By NI Editorial
रूस रुबल में कर्ज चुकाने की बात कह रहा है। जबकि पश्चिमी देशों का दावा है कि उसे ऐसा उस मुद्रा में करना होगा, जिसमें उसने कर्ज लिया था।
जी-7 देशों के शिखर बैठक से ये बात साफ उभर कर सामने आई कि रूस पर पश्चिमी देशों ने जो प्रतिबंध लगाए हैं, उनके हुए उलटे असर वे परेशान हैं। नतीजतन, उन्होंने रूस से तेल खरीद की नई नीति घोषित की। इसके तहत अब तेल खरीद पर पूरा प्रतिबंध नहीं रहेगा, बल्कि एक पूर्व निर्धारित कीमत पर देशों को रूस से तेल खरीदने की इजाजत दी जाएगी। अब ये बात दीगर है कि जब पूरे प्रतिबंध के मामले में पश्चिमी देश रूस पर अपनी शर्तें नहीं थोप पाए, तो खरीदारी पर ये शर्त मानने के लिए वे रूस को कैसे मजबूर करेंगे। दूसरा एक बड़ा मुद्दा रूस के कर्ज चुकाने का है। अब ये साफ हो गया है कि रूस को वैश्विक वित्तीय सिस्टम से बाहर करने का नुकसान अब पश्चिमी संस्थाओं को भी होने जा रहा है। पश्चिमी देशों और वहां के मीडिया का दावा है कि रूस अपने दो बॉन्ड्स पर ब्याज की दस करोड़ डॉलर की रकम चुकाने में नाकाम रहा है। इस तरह वह डिफॉल्टर हो गया है। जबकि रूस का दावा है कि उसने समयसीमा के भीतर अपनी देनदारी पूरी कर दी। विवाद की जड़ में कर्ज चुकाने की अपनी-अपनी परिभाषाएं हैं।
अमेरिका ने दावा किया है कि रूस का डिफॉल्टर होना अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने रूस के खिलाफ लगाए गए प्रतिबंधों की सफलता है। जबकि रूस का कहना है कि उसने अपनी देनदारी का भुगतान समय पर कर दिया, लेकिन वह रकम यूरोक्लीयर में अटकी हुई है। यूरोक्लीयर बेल्जियम स्थित एक पेमेंट सेटलमेंट एजेंसी है। मुद्दा यह है कि रूस रुबल में कर्ज चुकाने की बात कह रहा है। जबकि पश्चिमी देशों का दावा है कि उसे ऐसा उस मुद्रा में करना होगा, जिसमें उसने कर्ज लिया था। मगर जब पश्चिमी देशों ने विदेशी मुद्रा में जमा रूस की रकम को जब्त कर लिया है और उसे भुगतान के सिस्टम से बाहर कर दिया है, तो रूस ऐसा कैसे करेगा। बहरहाल, अगर पश्चिमी देशों के दावे को स्वीकार किया जाए, तो फिर ये हकीकत सामने आती है कि जिन पश्चिमी संस्थानों ने कर्ज दिया, उनके नुकसान की भरपाई कैसे होगी? इसे सुनिश्चित कराने का पश्चिम के पास क्या उपाय है?