स्मरण : गीत गाने वाले एक सिपाही का जाना
वह आज नहीं हैं, लेकिन उनका विद्यालय आज भी खुला है और नए सुब्बारावों को बुला रहा है।
सिपाही का अवसान शोक की नहीं, संकल्प की घड़ी होती है। सलेम नानजुंदैया सुब्बाराव या मात्र सुब्बाराव जी या देश भर के अनेकों के लिए सिर्फ भाई जी का अवसान एक ऐसे सिपाही का अवसान है, जिससे हमारे मन भले शोक से भरे हों, कामना है कि हमारे सबके दिल संकल्पपूरित हों। वह निराश और लाचार मन से नहीं गए, काम करते, गाते-बजाते थककर अनंत विश्राम में लीन हो गए। 27 अक्तूबर, 2021 की सुबह 6 बजे दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हुआ।
सुब्बाराव जी आजादी के सिपाही थे, लेकिन वह उन सिपाहियों में नहीं थे, जिनकी लड़ाई 15 अगस्त, 1947 को पूरी हो गई। वह उन सिपाहियों में थे, जिनके लिए आजादी का मतलब लगातार बदलता रहा और उसका फलक विस्तीर्ण होता गया। कभी अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति की लड़ाई थी, तो कभी अंग्रेजियत की मानसिक गुलामी से मुक्ति की। फिर नया मानवीय व न्यायपूर्ण समाज बनाने की रचनात्मक लड़ाई विनोबा-जयप्रकाश ने छेड़ी, तो वहां भी सुब्बाराव हाजिर मिले।
यह कहानी 13 साल की उम्र में शुरू हुई थी, जब 1942 में गांधी जी ने अंग्रेजी हुकूमत को 'भारत छोड़ो' का आदेश दिया था। कर्नाटक के बंगलूरू के एक स्कूल में पढ़ रहे 13 साल की भींगती मसों वाले सुब्बाराव ने अपने स्कूल व नगर की दीवारों पर बड़े-बड़े हर्फों में लिखना शुरू कर दिया : क्विट इंडिया! 13 साल के सुब्बाराव जेल भेजे गए। बाद में सरकार ने उम्र देखकर उन्हें रिहा कर दिया, लेकिन सुब्बाराव ने इस काम से रिहाई नहीं ली- कभी नहीं! आजादी की आवाज लगाता वह किशोर जो जेल गया, तो फिर जैसे लौटा ही नहीं; आवाज लगाता-लगाता वह अब जाकर महामौन में समा गया!
आजादी की लड़ाई लड़ने का तब एक ही मतलब हुआ करता था-कांग्रेस में शामिल हो जाना! कांग्रेस से वह कांग्रेस सेवा दल में पहुंचे और तब के सेवा दल के संचालक हार्डिकर साहब ने उन्हें एक साल सेवा दल को देने के लिए मना लिया। भजन व भक्ति-संगीत तो वह स्कूल के जमाने से गाते थे, अब समाज परिवर्तन के गीत गाने लगे। आवाज उठी, तो युवाओं में उसकी प्रतिध्वनि उठी।
ऐसे में कब कांग्रेस का, सेवादल का चोला उतर गया और सुब्बाराव खालिस सर्वोदय कार्यकर्ता बन गए, किसी ने जाना ही नहीं। 1969 का वर्ष गांधी-शताब्दी का वर्ष था। सुब्बाराव की कल्पना थी कि गांधी-विचार और गांधी का इतिहास देश के कोने-कोने तक पहुंचाया जाए। साल भर दो रेलगाड़ियां सुब्बाराव के निर्देश में भारत में घूमती रहीं, यथासंभव छोटे-छोटे स्टेशनों पर पहुंचती-रुकती रहीं और स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी, नागरिक, स्त्री-पुरुष इन गाड़ियों के डिब्बों में घूम-घूमकर गांधी को देखते-समझते रहे।
इससे एक और बात हुई : देश भर के युवाओं से सीधा व जीवंत संपर्क! रचनात्मक कार्यकर्ता बनाने का कठिन सपना गांधी जी का था, सुब्बाराव ने रचनात्मक मानस के युवाओं को जोड़ने का काम किया। मध्य प्रदेश के चंबल के इलाकों में घूमते हुए सुब्बाराव के मन में युवाओं की रचनात्मक वृत्ति को उभारने की एक दूसरी पहल आकार लेने लगी और बड़ी संख्या वाले श्रम-शिविरों का सिलसिला शुरू हुआ। वह चलते-फिरते प्रशिक्षण शिविर बन गए। चंबल डाकुओं का अड्डा माना जाता था।
सरकार करोड़ों रुपये खर्च करने और भारी पुलिस-बल लगाने के बाद भी कुछ खास हासिल नहीं कर पाती थी। फिर कहीं से कोई लहर उठी और डाकुओं की एक टोली ने संत विनोबा भावे के सम्मुख अपनी बंदूकें रखकर कहा : हम अपने किए का प्रायश्चित करते हैं और नागरिक जीवन में लौटना चाहते हैं! यह डाकुओं का ऐसा समर्पण था, जिसने देश-दुनिया के समाजशास्त्रियों को कुछ नया देखने-समझने पर मजबूर कर दिया। बागी-समर्पण के इस अद्भुत काम में सुब्बाराव की अहम भूमिका रही।
सुब्बाराव ने बहुत कुछ किया, लेकिन अपनी धज कभी नहीं बदली! हाफपैंट और शर्ट पहने, हंसमुख सुब्बाराव बहुत सर्दी होती तो पूरे बांह की गर्म कमीज में मिलते थे। अपने विश्वासों में अटल, लेकिन अपने व्यवहार में विनीत व सरल सुब्बाराव गांधी-विद्यालय के अप्रतिम छात्र थे। वह आज नहीं हैं, लेकिन उनका विद्यालय आज भी खुला है और नए सुब्बारावों को बुला रहा है।