अपने दिवंगत पितृजन का स्मरण एक कर्मकांड ही नहीं, इससे भी अधिक भावनात्मक संबल का काम है

विज्ञान और तकनीक के इस युग में श्राद्ध जैसी परंपरा को बनाए रखना भी एक चुनौती है

Update: 2021-09-21 10:39 GMT

पं. विजयशंकर मेहता। विज्ञान और तकनीक के इस युग में श्राद्ध जैसी परंपरा को बनाए रखना भी एक चुनौती है। पढ़े-लिखे और तथाकथित आधुनिक लोग जब-जब श्राद्ध आते हैं, शोध में जुट जाते हैं कि यह सब है क्या? अपने दिवंगत पितृजन का स्मरण एक कर्मकांड ही नहीं, इससे भी अधिक भावनात्मक संबल का काम है।

हमारे बड़े-बूढ़े जो इस संसार से चले गए, उनकी स्मृति हमारी ताकत बन जाती है। जब किसी का श्राद्ध करते हैं तो इसका अर्थ होता है न जुबां से बोला जा रहा है, न आंखों से देखा जा रहा है। सिर्फ अनुभूति हो रही है। इस टफ टाइम में हमें उन राहों पर चलना है, जहां गिरना भी है, संभलना भी है।
इन तमाम चुनौतियों में पितृ हमारी ताकत बन जाते हैं। श्रीराम ने रावण को मारा, सीताजी को मुक्त करवाकर लाए, उस समय एक घटना घटी जिस पर तुलसीदासजी ने लिखा- 'तेहि अवसर दसरथ तहं आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए।' उसी समय दशरथजी वहां आए और पुत्र को देखकर उनकी आंखें आंसुओं से भर गईं।
दोनों भाइयों ने उनकी वंदना की और पिता से आशीर्वाद प्राप्त किया। देखिए, दशरथजी की मृत्यु हो चुकी थी, फिर भी वे आशीर्वाद देने आए। बस, यही श्राद्ध का भाव है। पितृ हर सफलता-असफलता में सदैव हमारा साथ देते आए हैं। श्राद्ध के रूप में उनकी स्मृतियां अंधविश्वास नहीं, आस्था का मामला है।


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