धर्म सुखपूर्ण जीवन की आदर्श आचार संहिता है
भारत की धर्म परंपरा जड़ नहीं है। धर्म सुखपूर्ण जीवन की आदर्श आचार संहिता है। इसका मूल तत्व सनातन है, लेकिन यह प्रकृति की तरह परिवर्तनशील है। इसमें कालवाह्य को छोड़ने और काल संगत को अपनाने की परंपरा है। भारतीय समाज ने अनेक रूढ़ियां छोड़ी हैं। वे आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के संगत नहीं थीं। ऋग्वैदिक काल से लेकर अथर्ववेद के रचनाकाल और पुराण काल तक मृत शरीर की ससम्मान अंत्येष्टि का इतिहास है। अथर्ववेद (18.3.56) में शव को अंत्येष्टि स्थल तक ले जाने के लिए बैलगाड़ी का उल्लेख है। अब चौपहिया वाहन के प्रयोग हैं। परिस्थिति के अनुसार संशोधन उचित हैं। ऋग्वेद अथर्ववेद में अग्नि से भावुक स्तुति है-हे अग्नि इस मृत देह को जैसे सुख मिले, वैसे जलाओ। रोती बिलखती पत्नी से कहते हैं-तुम्हारा रोना उचित नहीं। इन्हेंं छोड़ो। संसार का सत्य जानो। पुत्रों-पौत्रों के साथ रहो। मृतक से कहते हैं-तुम्हारा प्राण विश्व वायु से मिले। आंखें सूर्य से मिलें। अंत्येष्टि के ये सूत्र हजारों वर्ष प्राचीन हैं। चूंकि काल, परिस्थिति बदल गई हैं इसलिए परंपरा का पुर्निवश्लेषण अनिवार्य है।
अंत्येष्टि कर्म का विधान वैदिककाल से बहुत प्राचीन है
अंत्येष्टि कर्म का विधान वैदिककाल से बहुत प्राचीन है। अग्नि में ही मुख्य रूप से शव समर्पण की परंपरा के अन्य रहस्य भी संभव हैं। भारतीय चिंतन परंपरा के अनुसार मृत्यु के बाद भी जीवन की निरंतरता चलती रहती है। मृत्यु के बाद भी शेष अवयव शरीर से प्रीति बनाए रखते हैं। अग्निदाह के समय दुखी पुत्र या परिजन ही चिता में अग्नि लगाते हैं। मृतात्मा परिवार मोह से मुक्त होती है। अग्निदाह के बाद वह शरीर मोह से भी मुक्त हो जाती है। कई उपनिषदों में मृत्यु के बाद शरीर से भिन्न अवयव माने गए हैं। विज्ञानी ही इस रहस्य का अनावरण कर सकते हैं। भारतीय चिंतन में जिज्ञासा, प्रश्न एवं संशय ज्ञान प्राप्ति के मुख्य उपकरण रहे हैं। बदली परिस्थितियों में इन्हीं उपकरणों से अंत्येष्टि के विधि-विधान का पुर्निवलोकन संभव है
अंत्येष्टि सामाजिक जीवन का संवेदनशील कर्मकां
प्राचीन काल से आधुनिक काल तक प्रकृति में अनेक परिवर्तन हुए हैं। भूमंडल का ताप बढ़ रहा है। अनेक जीव प्रजातियां नष्ट हो गई हैं। जैव विविधता नष्ट हो रही है। भूकंप और तूफान बढ़े हैं। गंगा सहित सभी नदियां पहले हहराकर बहती थीं। अब पानी का अकाल है। पेयजल की भी चुनौती है। अधिकांश नदियां मरणासन्न हैं। जल प्रदूषण भयावह है। वायु प्रदूषण से हाहाकार है। वनस्पतियों की अनेक प्रजातियां नष्ट हो रही हैं। तमाम महामारियां लाखों लोगों को निगल चुकी हैं। कोरोना का कहर जारी है। मनुष्य स्वभाव में भी परिवर्तन हो रहे हैं। विश्व मानवता तनावग्रस्त है। भयग्रस्त भी है। ऐसे वातावरण में पूरी जीवनशैली और दिनचर्या में परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। अंत्येष्टि सामाजिक जीवन का संवेदनशील कर्मकांड है। सेना या अन्य पुलिस बल अपने सहयोगी की मृत्यु पर शव को सलामी देते हैं। गोली चलाकर भी सम्मान देते हैं, लेकिन समाज के एक वर्ग में अपने स्वजनों की ससम्मान विदाई भी प्रश्नवाचक है। चुनौती बड़ी है। प्रश्न विचारणीय है।
शव दाह उत्तम माना जाता है, लेकिन लकड़ी का संकट विचारणीय है
शव दाह उत्तम माना जाता है, लेकिन लकड़ी का संकट विचारणीय है। यहां गरीब-अमीर की बात नहीं है। वन क्षेत्र सीमित हैं। वन लगातार घट रहे हैं। इसका विकल्प जरूरी है। विद्युत शव दाह भी उपयोगी है, लेकिन अग्नि को ही श्रेष्ठ विकल्प समझने वाले लोगों को प्रीतिपूर्ण नहीं लगते। कहीं-कहीं गोबर के उपलों को इसका सुंदर विकल्प बनाया गया है। अध्ययन बताते हैं कि गाय का गोबर और घी जलते हुए क्षतिकारक धुंआ नहीं देते। दाह संस्कार में इसका सदुपयोग संभव है। कुछ पंथिक विश्वासी परंपराओं में शव को जमीन में दफनाते हैं, लेकिन इसके लिए अंत्येष्टि क्षेत्र में पर्याप्त जमीन की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। क्या अंत्येष्टि क्षेत्र में एक निश्चित अवधि मसलन 40-50 वर्ष बाद दोबारा शव दफनाना संभव हो सकता है? इस पर धर्मगुरुओं की राय अंतिम होगी। दक्षिण कोरिया में 60 वर्ष बाद शवों को हटाने की परंपरा है। बुद्ध पंथ के तिब्बती मानते हैं कि मृत्यु के बाद शरीर खाली बर्तन जैसा हो जाता है। इसे फिर से पृथ्वी को सौंपने के लिए वे उसे ऊचे पहाड़ पर छोड़ देते हैं। जानवर उसे खा जाते हैं।
नदियों में शव और अन्य सामग्री डाला जाना क्षतिकारी है
भारत की मुख्य समस्या गंगा सहित सभी नदियों को अविरल निर्मल बनाना है। इसलिए नदियों में शव और अन्य सामग्री डाला जाना क्षतिकारी है। गंगा में मूूर्ति विसर्जन पर कई बार विवाद हुए हैं। कोई भी परंपरा सर्वकालिक नहीं होती। परिवर्तन प्रकृति का नियम है तो परंपरा को भी पुनर्नवा होना चाहिए। चूंकि दुनिया का भौतिक स्वरूप बदल गया है, इसलिए हम सबको अपने सभी अनुष्ठानों में विवेक सम्मत निर्णय लेने चाहिए।
क्या गंगा के अभाव में हम सांस्कृतिक भारत का आकर्षण नहीं खो देंगे?
क्या गंगा के अभाव में हम सांस्कृतिक भारत का आकर्षण नहीं खो देंगे? सरस्वती प्राकृतिक आपदा में पहले ही विलुप्त हो गई। साधु, संत सामाजिक कार्यकर्ता कालवाह्य रूढ़ियों का अध्ययन करें। कालसंगत का वैज्ञानिक परीक्षण करें। प्राचीन भारत में जल, वायु और आकाश जैसे विषयों पर गोष्ठियां थीं, तब ऐसी जानलेवा परिस्थितियां नहीं थीं। अब परिस्थितियां चुनौतियां बन गई हैं। भारतीय प्रज्ञा न कभी विकल्पहीन थी और न आज है। समय और परिस्थिति के अनुसार सम्यक विचार अपरिहार्य है।
( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं )