मंदी की मार
इसलिए बहुत सारे देश इस बात से इनकार करते रहे कि उनके यहां वास्तव में मंदी का दौर है। भारत सरकार भी मानती रही कि हमारे यहां मंदी का दौर नहीं है और जल्दी ही अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी।
Written by जनसत्ता: इसलिए बहुत सारे देश इस बात से इनकार करते रहे कि उनके यहां वास्तव में मंदी का दौर है। भारत सरकार भी मानती रही कि हमारे यहां मंदी का दौर नहीं है और जल्दी ही अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी। मगर अब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन ने स्वीकार किया है कि अगले चार सालों तक दुनिया की अर्थव्यवस्था इसी तरह लुढ़कते हुए आगे बढ़ेगी। इन दोनों संस्थाओं ने आर्थिक विकास दर और विश्व व्यापार संबंधी अनुमानों को घटा दिया है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने माना है कि अगले चार सालों में विश्व अर्थव्यवस्था में चार लाख करोड़ डालर की गिरावट आ सकती है। विश्व व्यापार संगठन के मुताबिक इस साल की दूसरी तिमाही में विश्व व्यापार की गति घटेगी और अगले साल तक इसके धीमी रफ्तार से चलने का अनुमान है। अगले वित्तवर्ष में विश्व व्यापार के एक फीसद की दर से बढ़ने का अनुमान जताया गया है। यानी अभी आने वाले कुछ सालों में अर्थव्यवस्थाओं के सुधरने की उम्मीद काफी कमजोर बनी हुई है।
मंदी की मार से बचने के लिए अमेरिका सहित तमाम विकसित देशों ने अपने यहां ब्याज दरों आदि के मामले में कठोर कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। कुछ देशों में इसके सकारात्मक नतीजे भी आने शुरू हो गए हैं। मगर महंगाई और नए रोजगार सृजित करने के मामले में चुनौतियां सबके सामने खड़ी हैं। इस मामले में भारत के सामने चुनौती इसलिए बड़ी है कि यहां संसाधनों पर आबादी का दबाव अधिक है और जिस अनुपात में यहां बाजार और निवेश का विस्तार होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है। कच्चे तेल, दवाओं के लिए रसायन आदि बहुत सारी चीजों के लिए भारत दूसरे देशों पर निर्भर है। फिर डालर के मुकाबले रुपए की कीमत में लगातार गिरावट बनी हुई है, विदेशी मुद्रा भंडार छीज रहा है।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में जगह बढ़ाना तो दूर, घरेलू बाजार में भी वस्तुओं के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है। इस तरह व्यावसायिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए नियमों को लचीला बनाने के बावजूद विदेशी और घरेलू निवेशकों में उत्साह पैदा नहीं हो पा रहा। जाहिर है कि अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में मंदी का माहौल बना रहेगा, तो भारत के लिए मुश्किलें और बढ़ सकती हैं।
इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में औद्योगिक विकास दर चिंताजनक स्तर पर नीचे बनी हुई है। चूंकि सकल घरेलू उत्पाद में सबसे अधिक निर्भरता औद्योगिक क्षेत्र पर बनती गई है, इसलिए इस क्षेत्र की मंदी का असर अर्थव्यवस्था पर साफ दिखता है। छोटे, मंझोले और सूक्ष्म उद्योग अभी बंदी की मार से उबर नहीं पाए हैं। इसलिए तमाम कोशिशों के बावजूद रोजगार के नए अवसर पैदा नहीं हो पा रहे।
रोजगार नहीं हैं, तो क्रयशक्ति बढ़ने की संभावना भी क्षीण हो गई है। फिर महंगाई पर काबू पाना कठिन बना हुआ है, जिसके चलते आम लोगों का रोजमर्रा का जीवन भी प्रभावित है। रुपए की कीमत में सुधार, महंगाई से पार पाने और उद्योग जगत की हालत सुधारने के लिए क्रयशक्ति में बढ़ोतरी जरूरी है। खतरा यह भी है कि जब वैश्विक मंदी की मार पड़ती है, तो रोजगार के लिए बाहर गए नागरिकों पर भी संकट गहराने लगता है। इसलिए भारत सरकार के लिए एक चुनौती वह भी बनी रहेगी।