राजनीतिक चुनौती : खाली पद और बेरोजगारी
सरकार एक ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र तैयार करे, जो रोजगार सृजन को बढ़ावा दे।
भारत एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहां राजनीतिक चुनौती भी एक आर्थिक अनिवार्यता है। कमजोर रोजगार वृद्धि से उपजे परिणाम शायद ही कभी निशाने पर रहते हैं- वे राजनीति में असंतोष के रूप में सामने आते हैं, तो अर्थव्यवस्था में उनका असर संभावित विकास को कम करने के रूप में दिखता है। भारत की आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों को एक अजीब विरोधाभास बढ़ा रहा है- केंद्र और खासतौर से राज्य सरकारों में खाली पड़े पद और बेरोजगारी।
आर्थिक विकास की मूलभूत शक्ति को 1960 के दशक में अर्थशास्त्री आर्थर ओकुन ने बेहतर ढंग से रेखांकित किया था। ओकुन ने दर्शाया कि बेरोजगारी में गिरावट से उत्पादन में वृद्धि होती है और बेरोजगारी में वृद्धि से वास्तविक घरेलू उत्पादन में गिरावट आती है। भारत युवा आबादी वाला देश है। हालांकि अर्थशास्त्र का सिद्धांत कहता है कि जनसांख्यिकी (अनिवार्य रूप से कार्यबल की संख्या में वृद्धि) आर्थिक विकास का चालक है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि रोजगार में वृद्धि के लिए जरूरी नीतियों के बिना वांछित लाभ प्राप्त होगा।
पिछले पखवाड़े मध्य प्रदेश की एक चिर-परिचित कहानी सुनने को मिली। राज्य सरकार ने ग्वालियर जिला अदालत में चपरासी, माली, ड्राइवर और सफाईकर्मी के 15 पदों के लिए आवेदन मांगे थे, लेकिन उपलब्ध पदों के लिए 11,000 से ज्यादा लोगों ने आवेदन किए। इन पदों के लिए वांछित योग्यता आठवीं थी और ड्राइवर के लिए दसवीं कक्षा उत्तीर्ण थी। लेकिन आवेदन करने वाले स्नातक एवं स्नातकोत्तर थे, उनमें से कुछ लोग उसी अदालत में सिविल जजों की रिक्तियों के लिए अर्हता प्राप्त करने के लिए अध्ययन भी कर रहे थे।
मध्य प्रदेश में सरकारी नौकरी के लिए होड़ कोई अनोखी बात नहीं है। कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में चपरासी के 62 पदों के लिए 90,000 से अधिक उम्मीदवारों ने आवेदन किया था। 3,500 से अधिक आवेदकों के पास डॉक्टरेट और अन्य के पास स्नातकोत्तर डिग्री थी, जबकि वांछित बुनियादी योग्यता पांचवीं उत्तीर्ण थी। महाराष्ट्र में 290 पदों के लिए एमपीएससी परीक्षा के लिए 2.5 लाख आवेदकों ने पंजीकरण कराया-एक आवेदक, जिसने प्रारंभिक परीक्षा पास कर ली, साक्षात्कार के इंतजार में जान दे दी।
बेशक, महामारी ने स्थिति को और खराब कर दिया है, लेकिन रोजगार सृजन के लिए अर्थव्यवस्था पहले से संघर्ष कर रही है। हजारों लोगों द्वारा रोजगार के लिए संघर्ष के बावजूद, केंद्र और राज्य सरकारें विभिन्न स्तरों पर पदों को खाली रहने देने की नीति पर कायम हैं। संसद में नियमित रूप से सरकारी पदों की रिक्तियों के बारे में बताया जाता है। जरा केंद्र सरकार में रिक्तियों पर विचार करें। जुलाई 2021 में, सरकार ने संसद को सूचित किया कि केंद्र सरकार में विभिन्न स्तरों पर 8.72 लाख से अधिक पद खाली थे, इनमें से केवल रेलवे में 2.79 लाख से अधिक पद खाली थे।
राज्य सरकारों की स्थिति भी अच्छी नहीं है। विडंबना यह है कि जहां स्नातक और स्नातकोत्तर लोग चपरासी के पदों के लिए आवेदन कर रहे हैं, वहीं स्कूल और विश्वविद्यालयों में पद खाली हैं। ये आंकड़े हैरान करने वाले हैं। दस लाख से अधिक सरकारी स्कूल हैं, जिनमें शिक्षकों के स्वीकृत पदों की संख्या 61.84 लाख है। इनमें से छह में से एक यानी 10.6 लाख से अधिक पद खाली हैं- बिहार में 2.75 लाख से अधिक, उत्तर प्रदेश में 2.17 लाख और मध्य प्रदेश में 91,000 से अधिक पद रिक्त हैं।
अब जरा कानून व्यवस्था सुनिश्चित करने की क्षमता पर विचार करें। देश में पुलिस के पांच में से एक पद खाली हैं। सभी राज्यों में पुलिस के कुल स्वीकृत पद 26.23 लाख हैं, जबकि पुलिस की वास्तविक क्षमता मात्र 20.91 लाख है और 5.32 लाख से ज्यादा पद खाली हैं। इस मामले में सबसे खराब प्रदर्शन उत्तर प्रदेश का है, जहां 1.11 लाख पद खाली हैं, पश्चिम बंगाल में 55,000 तो बिहार में 47,000 से ज्यादा पद खाली हैं।
महामारी, विशेष रूप से दूसरी लहर, ने ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की अपर्याप्तता को उजागर किया। अब जबकि भारत ओमिक्रॉन लहर का सामना करने के लिए तैयार है, एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि राज्यों में स्वास्थ्य सेवा प्रणाली कैसी है। दिसंबर 2021 में, सरकार ने संसद को सूचित किया कि 47,000 से अधिक महत्वपूर्ण पदों (जिनमें से 24,000 से अधिक डॉक्टरों और विशेषज्ञों के पद हैं) के साथ-साथ ग्रामीण भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में सहायक कर्मचारियों के 10,000 से अधिक पद खाली हैं।
जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक द गेटेड रिपब्लिक में लिखा है, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निवेश करने में विफलता का परिणाम बड़ी राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। यह तर्क दिया गया है कि राज्य सरकारों के पास लोगों को रोजगार देने और रिक्तियों को भरने के लिए धन की कमी है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि राज्य सरकारों के बजट में प्राथमिकताओं और विवेक के पदानुक्रम बिल्कुल परिलक्षित नहीं होते हैं। कोई भी अर्थव्यवस्था मानव अवसंरचना पर खर्च किए बिना विकसित देशों क्लब में नहीं आई है और इसमें चीन भी शामिल है।
विकास का अनिवार्य सूत्र है सी+जी+आई+एनएक्स- उपभोग+सरकारी खर्च+निवेश+शुद्ध निर्यात। नई और बढ़ती आमदनी के दम पर ही खपत बढ़ सकती है। जिसका अर्थ है कि रोजगार सृजन उच्च खपत और विकास को गति प्रदान करता है। भारत के स्टार्ट-अप उद्यमों ने रोजगार सृजित किए हैं। यह भी सच है कि सरकार ने बुनियादी ढांचे में निवेश और विकास को बढ़ावा देने के लिए धन आवंटित किया है। यह मानी हुई बात है कि जैसे-जैसे सरकार निवेश बढ़ाएगी, निजी क्षेत्र लाभ की उम्मीदों में उसका अनुसरण करेगा।
मगर यह धारणा कि एक का परिणाम दूसरे में होगा, कि सरकारी खर्च और निवेश निजी निवेश को प्रेरित करेगा, शर्तों पर निर्भर है, जिसके लिए विधायी और नियामक स्थितियों को फिर से व्यवस्थित करना होगा। जैसा कि एवेंटिस रेगटेक के शोध से पता चलता है, उद्यमी 1,500 से अधिक कानूनों और 69,000 से अधिक अनुपालनों का पालन करने के लिए बाध्य हैं। ओकुन का मूलभूत प्रस्ताव कि रोजगार के साथ विकास बढ़ता है, मांग करती है कि सरकार एक ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र तैयार करे, जो रोजगार सृजन को बढ़ावा दे।