विविधता के सम्मान से ही आएगी शांति, देश की एकता के लिए उठाने होंगे कठोर कदम

विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों और निर्णयों पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रवाह त्वरित गति से चलता ही

Update: 2022-07-12 11:30 GMT
जगमोहन सिंह राजपूत। पिछले दिनों प्रधान न्यायाधीश एनवी रमणा ने कहा कि न्यायालय और न्यायाधीश केवल संविधान के प्रति उत्तरदायी हैं, पक्ष या विपक्ष के प्रति नहीं। इसका सूक्ष्म विश्लेषण कानून के जानकार अपनी-अपनी तरह से कर रहे हैं, लेकिन सामान्य नागरिक आज भी न्यायमूर्ति एचआर खन्ना और जगमोहन लाल सिन्हा को याद करता है। वे साहस, समझ और संविधान के प्रति अटूट निष्ठा के लिए सदा सराहे जाते रहेंगे। प्रधान न्यायाधीश के वक्तव्य के ठीक एक दिन पहले जिस प्रकार की टिप्पणियां सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने कीं, उनसे देश में तमाम सजग और सतर्क नागरिकों के कान खड़े हो गए। क्या ये टिप्पणियां आवश्यक, उचित और न्यायसंगत थीं?
विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों और निर्णयों पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रवाह त्वरित गति से चलता ही रहता है, मगर न्यायपालिका की ओर से कहा गया हर शब्द, हर निर्णय सर्वमान्य के अतिरिक्त कुछ हो ही नहीं सकता है। अपने देश में तो पंच को परमेश्वर माना गया है। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष सभी को नतमस्तक होना है। यही न्याय व्यवस्था की संपूर्ण स्वायत्तता का परिचायक है।
भाजपा की निलंबित प्रवक्ता नुपुर शर्मा को लगाई गई फटकार की आलोचना कई सेवानिवृत्त न्यायाधीशों द्वारा की गई है। जनसामान्य यह समझ नहीं पा रहा है कि वह इस पर क्या कहे। सभी के अपने-अपने विचार हैं, जो वे आपस में बांट रहे हैं, मगर स्थिति की संवेदनशीलता के कारण चुप रह जाना ही पसंद कर रहे हैं।
वहीं राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से बंधे लोग अपनी-अपनी पार्टी लाइन के अनुसार आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। उदयपुर की बर्बर घटना को भी अपनी दलगत राजनीति में घसीट लेना यही दर्शाता है कि देश की राजनीति में नैतिकता, सेवा, सद्भाव और राष्ट्र के प्रति समर्पण अब सिर्फ विशेष अवसरों पर प्रयुक्त होनेवाले शब्द मात्र रह गए हैं।
नुपुर शर्मा के संबंध में तो यह तक कहना अनुपयुक्त माना जा रहा है कि उन्हें अपना पक्ष रखने और यह बताने का अधिकार है कि किन परिस्थितियों में और किस आधार पर उन्होंने वह कहा, जिसका अवांछित तत्वों ने देश ही नहीं, विदेश में भी भारत के विरुद्ध माहौल बनाने में बेशर्मी से दुरुपयोग किया। यह क्यों भुला दिया गया कि नुपुर ने यह कहा था कि मेरे देवी-देवताओं का अपमान न करें, अन्यथा मुझे भी उसी तरह उत्तर देना होगा।
न्याय की पूरी प्रक्रिया का पालन तो अजमल कसाब जैसे आतंकी के लिए भी किया गया था। न्यायिक प्रक्रिया के किसी भी स्तर पर किसी न्यायमूर्ति ने सुनवाई समाप्त होने के पहले उसे अपराधी घोषित नहीं किया। यह उच्चतम न्यायालय को बताना चाहिए कि उसकी पीठ को अपनी अलिखित चर्चा में एक तरह का निर्णय सुनाने की आवश्यकता क्यों पड़ गई? नुपुर शर्मा को देश से माफी मांगने के लिए कहा गया।
क्षमा मांगना सभी के लिए सदा उपयोगी होता है। व्यक्ति किसी भी आयु का हो, किसी भी पद पर हो, कितनी ही प्रतिष्ठा प्राप्त हो, कितना ही विशिष्ट हो, क्षमा मांग कर अपनी गलती सुधार सकता है।
21वीं सदी में सभ्य समाज तो वही होगा, जहां विविधता का सम्मान होगा। अंतर्मन से यह मानना होगा कि जिस प्रकार मेरा पंथ मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ है, उसी प्रकार मेरे पड़ोसी का पंथ भी उसके लिए उतना ही सही और श्रेष्ठ है। शिक्षा व्यवस्था को इसे सही ढंग से प्रस्तुत करने का उत्तरदायित्व उठाना होगा। साथ-साथ मिलकर रहना सीखना इस समय पूरे विश्व के समक्ष चुनौती है। इसमें सबसे पहले पंथिक विविधता ही आड़े आती है। यह कैसी विडंबना है कि देश के बाहर जन्मा आतंकवाद वहीं से सोची-समझी दीर्घकालीन रणनीति के आधार पर भारत को 'हजार जख्म' दे रहा है।
भारत में पंथिक वैमनस्य के बढऩे के दो ही मुख्य कारण हैं। पहला, दलगत राजनीति में लगातार बढ़ती स्तरहीनता और सेवाभाव तथा मानवीय मूल्यों का क्षरण। दूसरा, मुस्लिम समुदाय का आधुनिक शिक्षा के प्रति अलगाव बनाए रखना और इस शिथिलता के लिए अन्य को जिम्मेदार ठहराना। शिक्षा के प्रति मुस्लिम समाज की अन्यमनस्कता से उसी समाज के प्रबुद्धजन कभी अनभिज्ञ नहीं रहे।
वर्ष 1878 में सर सैयद अहमद खान ने कहा था कि 'यूरोपीय विज्ञान और साहित्य से मुस्लिम समाज ने सबसे कम लाभ लिया है।' वर्ष 1882 में सेंट्रल लेजिस्लेटिव काउंसिल से जुड़े शिक्षा आयोग के समक्ष उन्होंने कहा था कि कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातक और विधि उपाधि पाने वाले मुस्लिम युवाओं की संख्या 705 में आठ और 235 में तीन थी।
यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि गांधी जी की बुनियादी तालीम वाली बात मुस्लिम समाज के एक बड़े वर्ग को स्वीकार्य नहीं थी, जिसका अंतिम स्वरूप डा. जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में बना था। आल इंडिया मुस्लिम कांफ्रेंस के दिसंबर 1945 के आगरा सम्मलेन में नवाबजादा लियाकत अली खान ने वर्धा स्कीम को मुस्लिमों के ईमान और इस्लाम की राष्ट्रीयता की अवधारणा को जड़-मूल से उखाड़ने का प्रयास बताया था।
आज यदि किसी संस्था में संवेदनशील आयु में यही पढ़ाया जाए कि 'मेरा मत-मजहब ही सबसे श्रेष्ठ है और सारी दुनिया को उसी के अंदर लाना मेरा कर्तव्य है तो समाज में अशांति और अविश्वास तो बढ़ेगा ही। इसके समाधान का मार्ग है- हर बच्चे को प्रारंभिक वर्ष में सभी पंथों की समानता यानी बराबरी की अनिवार्य शिक्षा देना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में शालीनता, सम्मान, सद्भाव की अनिवार्यता निश्चित करना, सांप्रदायिकता और हिंसा फैलाने वालों को यथाशीघ्र और हो सके तो छह महीने के अंदर सजा देना। देश की एकता बनाए रखने के लिए कठिन और कठोर कदम उठाने ही पड़ेंगे।
(एनसीईआरटी के निदेशक रहे लेखक शिक्षा एवं सामाजिक सद्भाव के लिए कार्यरत हैं)
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