Vijay Garg: आज के समय में हम सभी एक कटु सत्य से दो चार हो रहे हैं। वह यह है कि सब अपनी-अपनी कहना चाहते हैं, मगर कोई किसी को धीरज से सुनना नहीं चाहता है । जब भी कभी दो लोगों को बात करते हुए देखें तो यही लगता है कि अपनी बात को कह देने की इतनी जल्दी है उनमें कि वे सामने वाले को सुनने की इच्छा नहीं रखते हैं।
कई बार तो ऐसा साफ दिखाई दे जाता है कि कहने वाला बेचारा बोलतो रहा होता है, पर उसके सामने श्रोता बने हुए बहुत कम लोग होते हैं, जो सचमुच उसको सुन रहे होते हैं। कई लोग सामने बैठ तो जाते हैं, मगर पल में ही कहीं खो जाते हैं। वे न तो बोलने वाले से आंखें मिला पाते हैं, न उसके संवेदनशील रवैये पर गौर फरमाते हैं और न ही उसके कहे का कोई निचोड़ निकालते हैं । वे बस शरीर रूप में उसके सामने रहते हैं । पर कुछ भी सुनते नहीं हैं। अगर किसी वजह से ध्यान चला गया, तो बोलने वाले को इससे गहरी ठेस पहुंचती है। वह अपने शब्द समायोजित करके कुछ महत्त्वपूर्ण बात साझा करना चाहता होगा, मगर जो लोग सिर्फ दिखावे के लिए सिर हिला रहे थे, वे दरअसल कुछ सुन नहीं रहे थे। किसी मसले पर अपनी कहने वाला व्यक्ति शायद किसी आशा और भरोसे से आया होगा। मगर सुनाने वाला व्यक्ति अंत में समझ जाता है कि वह ठगा गया। हां-हां, हूं- हूं आदि का सुंदर हुंकारा भरते हुए सामने वाला अपनी आगे की योजना बना रहा था या अपने ही निजी जीवन के किसी खयाल में गुम था । उसने वह सब सुना ही नहीं, जिसके लिए उससे उम्मीद की जा रही थी। कहने वाले का समय अनमोल था। उसकी ऊर्जा अनमोल थी। सब व्यर्थ चला गया।
ऐसी घटना से अगर आप और हम दो-चार हो रहे हैं तो यह कोई अनोखी बात नहीं है। गौर से सुनने का धीरज अब बहुत लोग सचमुच खोते जा रहे हैं। मनोवैज्ञानिक भी यह प्रमाणित कर रहे हैं कि सुनने की एकाग्रता अब महज नब्बे सेकंड की रह गई है। एक प्रसंग है, जिसमें एक विश्वविद्यालय के थियेटर में एक महत्त्वपूर्ण विषय पर सेमिनार हो रहा था । आमंत्रित छात्रों के सामने चालीस मिनट का पहला व्याख्यान हुआ। फिर दो सवाल किए गए। पहला यह कि इस व्याख्यान में बताए गए चार बिंदु कौन-कौन से हैं। दूसरा प्रश्न यह था कि इस व्याख्यान को गौर से सुनने के बाद आपको क्या - क्या याद आया । इन दोनों ही सवालों के जवाब में 'सुईपटक सन्नाटा' छा गया था। सेमिनार के विषय का सहारा लेकर कुछ ने संदर्भहीन बिंदु बताए, मगर वे गलत थे। उस व्याख्यान को दोबारा चलाया गया, जो सेमिनार के विषय से एकदम अलग था। अब वहां पर उपस्थित विद्यार्थियों को शर्मिंदगी महसूस हुई। यह कमोबेश हर सेमिनार या सभा का बुरा हाल रहता होगा, इसीलिए परिणाम निल बटे सन्नाटा रहता है । आजकल बहुत सारे लोग किसी बात को बढ़ा-चढ़ा कर कहते हुए भी मिल जाते हैं। उनका दावा होता है कि वे हमेशा खुद को ताजा जानकारियों से अद्यतन रखते हैं... सारी दुनिया को अपने मोबाइल में लिए घूमते हैं और हर बात उनको पता है। वे कहते हैं कि हम तकनी से जुड़े हर मंच को समझते हैं। अगर एक पल के लिए इस पर भरोसा कर भी लिया जाए तो इसका सच थोड़ा अलग होता है। आभासी मंचों पर जो सुन रहा होता है, वह कौन है और क्या प्रतिक्रिया दे रहा है, उसकी पहचान ठीक-ठीक मालूम नहीं होती। वह आभासी दुनिया है । उस आभासी जगत में एक 'इमोजी' भी जवाब मान लिया जाता है। लेकिन हमारा चलता-फिरता समाज, हमारा घर, परिवार, संबंधी, मित्र, कालोनी के लोग, दफ्तर के सहकर्मी, क्लब के सदस्य आदि हमसे सीधे ही संपर्क में रहते हैं। याद किया जा सकता है कि हमने कब और किस दिन उनकी कही बात को गौर से सुना और गुना था । ईमानदार होकर खुद को जवाब दिया जाना चाहिए ।
हमारे अपनों से किया गया वार्तालाप ही हमको वह बनाता है, जिसकी हम बात करते हैं। मिसाल के तौर पर अगर अभिभावक अपने बच्चों की अभिव्यक्ति को नजरअंदाज कर देते हैं तो आगे जाकर बच्चे भी उनसे कोई आशा नहीं रखते। वे अपने भविष्य की कोई योजना उनसे साझा करना पसंद नहीं करते। एक फिल्म आई थी- 'दिल धड़कने दो'। उस फिल्म की बुनियाद यही है कि एक परिवार इसलिए अलग-थलग सा हो गया कि उस घर में आपस में कोई ठीक से न सुनता है, न अपनी राय देता है। सुनने - सुनाने के मामले में इसीलिए गलतफहमी पनपने लगती है। दरअसल, संबंध गहरे तभी होते हैं, रिश्तों में गरमाहट तभी रहती है, जब हम किसी कहने वाले की बात सुनकर उसे निराशा से बाहर लाएं। जरूरी नहीं कि हर बार कोई अपनी परेशानी ही बता रहा हो । कुछ लोग अच्छी बातें और अपने जोश के चर्चे भी करते हैं। एक बार एक मजदूर ने अपने मित्र से कुछ खास बात कही। मगर सुनने वाले की अपनी ही व्यस्तता थी, अलग प्राथमिकता थी। वह उसकी बात को आधे-अधूरे कान से सुनकर चला गया और जब कहने वाले ने कुछ ही देर बाद पूछा कि, 'अभी तो मैंने कहा था... तुमने सुना नहीं।' सुनने वाले ने कहा, 'हां, कारखाना बंदर खा गया'। यही कहा था। 'नहीं, मैंने कहा था कि कारखाना बंद रखा गया है और आज अवकाश है। पर तुम काम पर चले गए ।' कहने वाले को कितना बुरा लगा कि उसकी बात हल्के कान से सुनी गई। सच यह है कि किसी को गौर से सुनने के लिए वक्ता के शब्द के साथ-साथ रहना होता है। उसके तेवर को पकड़ कर उसके मन को छूना होता है। तभी हम पूरे संदर्भ से किसी बात को समझ पाते हैं। किसी ने जो कहा उसे हमने वैसे का वैसा ही सुना । इसका दावा तभी कर पाते हैं, जब हमने एकाग्र होकर कुछ सुना होगा। सुनने की ललक और विकसित करना अपने व्यक्तित्व को बचाने की कोशिश है ।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब