दरअसल, दिल्ली सहित देश के दूसरे शहरों में कई अस्पतालों को कोविड केंद्र के रूप में बदल दिया गया है और उन्हें सिर्फ इसी बीमारी के मरीजों का इलाज करने को कहा गया है। लेकिन इस बीच ऐसे हालात बन गए हैं कि हृदयाघात या हादसे की आपात आवश्यकता वाले मामलों में वक्त पर इलाज मिल सकने की गुंजाइश कम हो गई है। इसके अलावा, ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें अपनी किसी तकलीफ का इलाज कराने की जरूरत है, लेकिन लगभग समूचे तंत्र के कोरोना मरीजों की चिकित्सा में लगे होने की वजह से वे अस्पताल नहीं जा पा रहे हैं।
मुश्किल यह है कि हृदय रोग या दूसरी कोई बीमारी का मरीज ऐसी हलत में भी हो सकता है कि समय पर इलाज नहीं मिलने पर उसकी जान चली जाए। दूसरी ओर, किसी व्यक्ति को ऐसी बीमारी भी हो सकती है, जिसका वक्त पर उपचार नहीं मिलने पर वह जानलेवा रोग में तब्दील हो जाए। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि कोरोना विषाणु की चपेट में आए रोगियों के इलाज के क्रम में सरकार का ध्यान क्या दूसरे गंभीर रोगों और आपात जरूरत वाले मरीजों के इलाज की ओर से हट गया है!
यह छिपा तथ्य नहीं है कि हृदयाघात, कैंसर, टीबी, मधुमेह और कुछ अन्य बीमारियों की वजह से भी हर साल लाखों लोगों की जान चली जाती है। मसलन, राष्ट्रीय कैंसर संस्थान, झज्जर की एक रिपोर्ट के मुताबिक अकेले 2019 में आठ लाख सैंतीस हजार नौ सौ सत्तानबे लोगों की मौत हो गई। इसी तरह भारत में कुल मौतों में उन्नीस फीसद मौतें अकेले हृदयरोग से जुड़ी होती हैं। तपेदिक की त्रासदी में कुछ सुधार जरूर हुआ है, लेकिन महज कुछ साल पहले तक इससे हर साल करीब साढ़े चार लाख लोगों की मौत हो जाती थी। ये आंकड़े सामान्य हालात के हैं।
सवाल है कि पिछले साल भर से अस्पतालों और इलाज की जो स्थिति है, उसमें दूसरी बीमारियों से पीड़ित किस हाल में होंगे! यह दुखद स्थिति अपने आप में बताने के लिए काफी है कि हमारे स्वास्थ्य ढांचे में कितनी बड़ी कमी है। ऐसा नहीं है कि अस्पतालों, डॉक्टरों की कमी मौजूदा संकट में सामने दिखी है। लंबे समय से स्वास्थ्य क्षेत्र का बुनियादी ढांचा मजबूत करने के लिए बजट में पर्याप्त आबंटन और व्यापक सुधार के लिए आवाजें उठती रही हैं। लेकिन समय रहते इस ओर ठोस पहल नहीं हुई। अब महामारी के इस दौर में सबक लेकर अगर सरकार स्वास्थ्य और चिकित्सा का मजबूत तंत्र खड़ा कर सके, तो यह देश के हित में होगा।