Pakistan Political Crisis : कश्मीर ही बना पाकिस्तान में इमरान खान की गिरावट का सबब
पाकिस्तान में इमरान खान की सत्ता जा रही है
चंद्रभूषण।
गिनतियां बता रही हैं कि पाकिस्तान (Pakistan) में इमरान खान (Imran Khan) की सत्ता जा रही है. लोकसभा (Lok Sabha) जैसे पाकिस्तानी संसद के निचले सदन नेशनल असेंबली में उनके पास कागजी तौर पर 155 सीटें हैं. कुल 372 सदस्यों वाले इस सदन में बहुमत का आंकड़ा 172 का है. खतरा इमरान की अपनी पार्टी से भी कई सांसदों के बागी हो जाने का है, लेकिन इस बगावत को वे किसी तरह शांत रख ले जाएं तो भी विपक्ष के लाए अविश्वास प्रस्ताव के सामने टिक पाने के लिए 17 सांसदों का बाहरी समर्थन उन्हें हर हाल में चाहिए. ऐसा हो पाने की कोई उम्मीद फिलहाल नहीं दिख रही क्योंकि हाल तक उनके साथ खड़ी 12 सांसदों वाली दो पार्टियां अभी विपक्ष के साथ जा चुकी हैं. विभाजन के समय उस पार गए मुहाजिरों की पहचान वाली एमक्यूएम-पी (सात सांसद) और बलूचिस्तान अवामी पार्टी (पांच सांसद).
पांच और सांसदों वाला एक धड़ा पीएमएल-क्यू भी हाल तक इसी पांत में शामिल था, लेकिन इमरान ने उसके नेता को पंजाब प्रांत का मुख्यमंत्री बनाने की उम्मीद बंधाकर ऐन मौके पर अपने पाले में खींच लिया. सरकारें बनने-बिगड़ने के ऐसे किस्से हम अपने यहां किसी न किसी राज्य में हर साल ही, और जब-तब एक ही साल में कई बार देखते हैं, लिहाजा इस मामले को यहीं छोड़ा जा सकता है. सोचने की बात यह है कि मामूली ताकत वाले विपक्षी दलों के सामने अभी थोड़े समय पहले तक अजेय दिख रही इमरान की सत्ता के अचानक पतझड़ में अटका हुआ सूखा पत्ता बन जाने की नौबत कैसे आ गई. क्या इस बदलाव के लिए पिछले महीने यूक्रेन पर हमले के शुरुआती दिनों में ही उनका रूस जाकर वहां के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुलाकात करना जिम्मेदार है?
ध्यान रहे, अमेरिका के कई राजनयिकों और राजनेताओं ने उनकी इस यात्रा को लेकर खुली नाराजगी जताई थी. रही-सही कसर इमरान ने इसके तुरंत बाद ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (ओआईसी) के विदेशमंत्रियों के सम्मेलन में चीनी विदेशमंत्री वांग यी को विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित करके पूरी कर दी.
पाकिस्तान की सरकारें तीन A के सहारे चलती हैं
पाकिस्तान में कहावत चलती है कि वहां सरकारें तीन 'ए' के चलाए चलती हैं- अल्लाह, आर्मी और अमेरिका. इनमें अल्लाह वालों यानी इस्लामी कट्टरपंथियों से मिलकर चलना वहां की सारी सरकारों के मिजाज में रहा है. इस मोर्चे पर कोई कसर छोड़ना तो दूर, इमरान इसमें दो अंगुल बढ़े हुए ही दिखते रहे हैं. हां, कुछ मौलाना यह एतराज जरूर जताते रहे हैं कि वज़ीर-ए-आज़म का अपनी बेगम को 'पीरनी' मानकर ज्यादातर काम उनकी सलाह पर करना उन्हें अच्छा नहीं लगता.
अमेरिका की नाराजगी का एक मामला तो खैर अभी का है लेकिन उसे चिढ़ाने वाले कुछ और काम भी इमरान ने किए हैं. रही बात आर्मी की तो हाल में आईएसआई प्रमुख की नियुक्ति को लेकर सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा से उनका मतभेद महीनों चर्चा में रहा. पॉपुलर विश्लेषण में जाएं तो इतने के बाद उनकी सरकार का जाना तय था. 'तीन में से दो 'ए' से पंगा लेकर भी पाकिस्तान में कोई पीएम रह सकता है भला!' लेकिन ऐसे फॉर्मूला आधारित विश्लेषणों की समस्या यह होती है कि उनसे आप भविष्य को लेकर कोई नतीजा नहीं निकाल सकते.
मसलन, कोई पूछ सकता है कि कल को इमरान की जगह पाकिस्तान का जो भी नया प्रधानमंत्री आएगा, वह अगर अमेरिका और फौज के साथ खूब बनाकर चले तो क्या उसकी गद्दी हमेशा सुरक्षित रहेगी? जैसे लक्षण हैं, अभी यह मौका शहबाज शरीफ को मिलने वाला है. उनके बड़े भाई नवाज शरीफ तो हमेशा तीनों 'ए' से बनाकर चलने के लिए मशहूर थे. क्या वे अपनी गद्दी बचा पाए?
पाकिस्तान की सबसे बड़ी सियासी ताकत बने रहेंगे
एक बात साफ है. इमरान खां अपनी पार्टी पीटीआई के साथ संसद में बहुमत खोने के बाद भी पाकिस्तान की सबसे बड़ी सियासी ताकत बने रहेंगे. पाकिस्तानी जनता अपने देश की राजनीतिक मुख्यधारा कहलाने वाली दोनों पार्टियों से, उनके भ्रष्टाचार और परिवारवाद से इतनी बुरी तरह त्रस्त हो चुकी है कि पिछले, यानी 2018 के आम चुनाव में उसने दोनों को बहुमत के आधे से भी कम सीटें दी थीं. 84 शरीफ खानदान की पाकिस्तान मुस्लिम लीग को और 56 भुट्टो खानदान की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को.
अफगानिस्तान में अमेरिका के खिलाफ जंग लड़ने के लिए पूरे पाकिस्तान से तालिबानी भर्तियां कराने वाले मौलाना फजलुर्रहमान की मुत्तहिदा मजलिसे अमल सिर्फ 15 सीटों पर अटक गई थी. ये लोग अभी इट्टक-बिट्टक जोड़कर इमरान खां का पत्ता साफ कर देंगे लेकिन फिर साथ मिलकर डेढ़ साल सरकार कैसे चलाएंगे, और अगले आम चुनाव के लिए आपस में सीटों का बंटवारा कैसे करेंगे? इमरान के पास बहुमत भले न हो, बेदाग सियासत वाला तुरुप का इक्का तो है. यहां पहुंचकर हमारा सामना पाकिस्तान की ज्यादा बड़ी समस्याओं से होता है, जिन्हें समझने में इमरान खां ने ठीक वही गलतियां कीं, जिनकी आशंका उनके राजनीतिक उभार के समय जताई जा रही थी. ये गलतियां हैं सरलीकरण की.
इतिहास से आई उलझनों का तुरत-फुरत कोई समाधान सुझा देने की.18 अगस्त 2018 को उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी. यह यकीनन बहुत बड़ी उपलब्धि थी. भारत की तरह पाकिस्तान में भी राजनीति एक पारिवारिक पेशा है. बल्कि भारत से कहीं ज्यादा, क्योंकि जमींदारी उन्मूलन कानून जैसा कोई कदम वहां कभी नहीं उठाया गया. सियासत की कमान शुरू से ही जमींदारों-रईसों, कबीलों के सरदारों ने संभाल रखी है.
पाकिस्तान में परिवारवाद
गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि के किसी व्यक्ति का वहां प्रधानमंत्री बनना तो दूर, सांसद या विधायक बनना भी बहुत मुश्किल है. लेकिन भ्रष्टाचार और परिवारवाद के बाद इमरान ने कश्मीर मुद्दे पर चुनाव लड़ा और प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद भी कश्मीर-कश्मीर ही रटते रहे. इसे संयोग के बजाय नियति का बदला कहना ज्यादा उचित होगा कि घेर-घारकर कश्मीर ने ही उनको इस अंजाम तक पहुंचाया है. इमरान के सत्ता में आने के छह महीने बाद पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर आतंकी हमला हुआ. यह हमला उनकी सरकार ने कराया या नहीं, वह अलग बात है लेकिन ऐसी किसी बड़ी वारदात का माहौल बनाने में उसकी भूमिका असंदिग्ध थी.
पुलवामा की परिणति भारत की ओर से बालाकोट के आतंकी शिविरों पर एयरस्ट्राइक के रूप में हुई. नतीजा यह कि रिटायरमेंट से निकलकर पाकिस्तान को विश्वकप जिता लाने वाले इमरान की 'राष्ट्ररक्षक' छवि एक झटके में चकनाचूर हो गई. डॉनल्ड ट्रंप की बदजुबानी मशहूर थी और फाइटर पायलट अभिनंदन की रिहाई में उन्होंने सीधी भूमिका निभाई थी. सोचा जा सकता है कि इमरान से कैसी भाषा में उन्होंने बात की होगी. फिर भी कोई मंझा हुआ पाकिस्तानी राजनेता उनके साथ-साथ अफगानिस्तान से वापसी में जुटे अमेरिका से भी पाकिस्तान के रिश्तों को संभाल सकता था. लेकिन यह काम नौसिखिए इमरान के बूते से बाहर था.
ओसामा के चक्कर में अमेरिका से भी रिश्ते खराब होने शुरू हुए
ओसामा बिन लादेन प्रकरण के साथ ही अमेरिका से बिगड़ने शुरू हुए पाकिस्तान के रिश्ते उसके बाद लगातार ढलान पर ही लुढ़कते गए. अतीत में कभी अमेरिका से पाकिस्तान का मनमुटाव होने पर सऊदी अरब मामला संभाल देता था. लेकिन कश्मीर से ही जुड़ी एक और चपेड़ ने इमरान और पाकिस्तान का उससे भी बिगाड़ करा दिया. मोदी सरकार ने 2019 में सत्ता में वापसी के बाद पहला काम यही किया कि संसद में प्रस्ताव लाकर संविधान का अनुच्छेद 370 खत्म कर दिया. इमरान को उम्मीद थी कि न सिर्फ पाकिस्तान बल्कि समूची इस्लामी दुनिया इसके खिलाफ उबल पड़ेगी. लेकिन संसार के दो सबसे समृद्ध इस्लामी देशों सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने तबतक भारत को अपने नकदी निवेश के ठिकाने के रूप में चुन लिया था. इन दोनों के पीछे-पीछे ज्यादातर इस्लामी मुल्कों ने भी कश्मीर पर चुप्पी साधे रखने का फैसला किया.
इस मामले को लेकर इमरान के एक-दो मंत्रियों ने सऊदी घराने के खिलाफ बयानबाजी की तो सऊदी सरकार की तरफ से बयान आ गया कि अब से पाकिस्तान को तेल वे नकदी लेकर ही देंगे और जो कर्ज पहले से देना तय था, उसका एक तिहाई रोक लेंगे. इमरान का कश्मीर प्रेम इतने भर से हवा हो गया. उनकी बड़ी कोशिशों के बाद तुर्की, कतर, मलयेशिया और ईरान साथ मिलकर कश्मीर मुद्दे पर भारत की भर्त्सना करने जा रहे थे. ऐन मौके पर पाकिस्तान ने ही इस आयोजन से कन्नी काट ली.
दरअसल, अच्छी-खासी लोकप्रियता और देश के बाकी राजनेताओं की तुलना में बेहतर छवि के बावजूद नेतृत्व के स्तर पर इमरान खां की विफलता इस बात में मानी जाएगी कि स्थितियों का आकलन वे ठीक से नहीं कर पाए. अमेरिका और सऊदी अरब के सामने पाकिस्तान का हमेशा कटोरा लिए खड़े रहना किसी भी स्वाभिमानी पाकिस्तानी को बुरा लगता होगा. शायद इमरान खां ने हिसाब लगा रखा था कि चीन से बनाकर चला जाए और अफगानिस्तान का गेम अच्छे से खेला जाए तो पुराने मददगारों के हाथ खींच लेने पर भी पाकिस्तान की गाड़ी चल जाएगी. खामी इस सोच में ही है. किसी देश का स्वाभिमान बाहर से उसको मिलने वाली मदद पर नहीं, सिर्फ और सिर्फ उसके अपने उद्यम पर निर्भर करता है.
4 वर्षों में उद्योग-व्यापार के लिए कुछ कर नहीं पाए
लगभग चार वर्षों के अपने शासन में पाकिस्तान के उद्योग-व्यापार को आगे बढ़ाने के लिए इमरान कुछ खास नहीं कर पाए। पुराने कर्जों की अदायगी के लिए 2019 में जो 6 अरब डॉलर का कर्ज विश्वबैंक ने उन्हें दिया, उसके लिए सरकारी खर्चों में काफी सारी कटौती की शर्त भी रख दी. पाकिस्तान की माली हालत अबतक बहुत खराब हो गई होती. वह तो गनीमत रही कि 2020 के चुनाव में ट्रंप की सत्ता चली गई और नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के रिश्ते सऊदी अरब के राजपरिवार के साथ बहुत खराब निकले. पाकिस्तान की सऊदी दरबार में वापसी प्रिंस मोहम्मद की इसी मजबूरी का नतीजा है. रही बात चीन की तो सारे 'लौह भाईचारे' के बावजूद सीपीईसी में काफी पूंजी फंसा चुकने के बाद वह भी पाकिस्तानी काहिली से तंग आकर एक बार लंबी कामबंदी पर जा चुका है.
सरकार गंवाने के बाद भी पाकिस्तानी राजनीति में इमरान की पारी आगे चल सकती है, लेकिन यह तभी हो पाएगा जब वे अपनी राजनीतिक शैली में अधिक धैर्य के लिए जगह बनाएं. 1947 से ही पाकिस्तान बाहर से चंदा वसूली और भीतर भारत विरोध की राजनीति के सहारे चल रहा है. लेकिन अभी न तो किसी शीतयुद्ध या तेल-कूटनीति के लिए अमेरिका को उसकी जरूरत है, न सऊदी अरब के लिए उसकी भूमिका मजहबी लेफ्टिनेंट जैसी रहने वाली है. हिंद महासागर में निकासी के जरिये के रूप में चीनी रणनीति उसे जरूरी मानती है, लेकिन इसके लिए चीन इतने पैसे नहीं खर्च करने वाला कि उसके बल पर पाकिस्तानी अमीरों की अय्याशी चलती रहे. पाकिस्तान को अगर विफल राष्ट्र बनने की नियति से बचना है तो उसे अपने पैरों पर खड़ा होना सीखना होगा. उसके राजनेता इस हकीकत के मुताबिक अपनी राजनीति को जितनी जल्दी ढाल लें, उतना अच्छा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)