पी चिदंबरम का अपनी पार्टी के खिलाफ केस लड़ना अनैतिक था तो उसका वकीलों द्वारा विरोध गैरकानूनी था
ओपिनियन
अजय झा |
बुधवार को कलकत्ता हाई कोर्ट (Calcutta High Court) के बाहर जो हुआ वह निंदनीय है. कांग्रेस पार्टी (Congress Party) के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम (P Chidambaram) हाई कोर्ट में एक वकील के हैसियत से गए थे. चिदंबरम पेशे से वकील हैं. पश्चिम बंगाल सरकार ने एक केस में उन्हें अपना वकील बनाया था. समस्या थी कि एक वकील की हैसियत से उन्हें अपनी पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी द्वारा दाखिल एक केस का जिरह करना था, जो उन्होंने किया भी. वह केस क्या है, उस बारे में चर्चा इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि जिस तरह से वहां कांग्रेस पार्टी से जुड़े कुछ वकीलों ने उनका विरोध किया. चिदंबरम के खिलाफ नारेबाजी हुई और उन्हें काला झंडा दिखाया गया, जो विरोध करने का एक प्रतीक होता है.
कांग्रेस पार्टी से जुड़े स्थानीय वकीलों की शिकायत थी कि कैसे पार्टी के एक वरिष्ठ नेता अपने ही पार्टी द्वारा दाखिल केस का विरोध कर सकते हैं. वैसे तो यह शिकायत वाजिब लगती है, पर यह अगर अनैतिक था तो गैरकानूनी कतई नहीं. चिदंबरम को ही इस बारे में सोचना होगा कि क्या उनका यह सही फैसला था. हम अक्सर सुनते हैं कि किसी केस से किसी जज ने अपने आप को अलग कर लिया है, यानि उस केस को सुनने से मना कर देते हैं. कारण होता है कि उनपर पक्षपात का आरोप ना लगे. वह केस उनके किसी सगे संबंधी से जुड़ा होता है या फिर किसी ऐसे व्यक्ति या कंपनी के खिलाफ होता है जुसके वह पूर्व में वकील रह चुके हैं. यह एक सही और सराहनीय प्रथा है, जो लम्बे समय से चली आ रही है.
चिदंबरम को वकालत करने की पूरी आज़ादी है
कनफ्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट के बारे में अक्सर सुना जाता है. इसका उपयोग वहां होता है जहां किसी अधिकारी का निर्णय उसकी व्यक्तिगत रूचि से प्रभावित होने की सम्भावना होती है. चिदंबरम को वकालत करने की पूरी आज़ादी है, पर उन्हें सोचना होगा कि क्या अपने ही पार्टी के खिलाफ केस लड़ना क्या सही है? अगर भविष्य में सुब्रमण्यम स्वामी चिदंबरम को नेशनल हेराल्ड केस में अपना वकील बनाने की पेशकश करते हैं तो क्या चिदंबरम उसे स्वीकार कर लेंगे तथा क्या वह दिल्ली हाई कोर्ट में सोनिया गांधी और राहुल गांधी कि जमानत रद्द करके उनकी गिरफ़्तारी कि मांग करेंगे? अगर नहीं तो फिर कलकत्ता हाई कोर्ट में उनकी उपस्थिति सही नहीं ठहराई जा सकती.
ऐसा भी नहीं है कि चिदंबरम के पास और केस ना हों, और ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि उन्हें पैसों की कमी के कारण अपनी ही पार्टी के खिलाफ केस लड़ना पड़ा. चिदंबरम के पक्ष में यह बात कही जा सकती है कि वकीलों का काम जिरह करना है, चाहे वह कोई कुख्यात अपराधी ही के पक्ष में ही क्यों ना हो? जैसे किसी डॉक्टर को मरीज का इलाज करना होता है और उसकी जान बचानी होती है, चाहे वह मरीज कोई अपराधी ही क्यों ना हो, ठीक उसी तरह एक वकील से भी यही उम्मीद की जाती है कि यह जानते हुए भी कि जिसका केस वह लड़ रहा है वह आरोपी नहीं बल्कि एक मुजरिम हैं, उन्हें केस लड़ना पड़ता है.
भारत में कुछ समय से एक गलत प्रथा कि शुरुआत हो गयी हैं कि किसी आरोपी को मीडिया में या जनता के बीच ही दोषी करार दे दिया जाता है, जबकि यह काम न्यायालय का होता है. और कानून अंधा होता है, वह सिर्फ सबूत के आधार पर ही फैसला सुनाता है. कानून का आधार भी होता है कि जबतक न्यायालय किसी आरोपी को अपराधी घोषित नहीं करे, एक आरोपी को कानून की नज़रों में निर्दोष माना जाता है. इस तरह के गलत और गैरकानूनी विरोध में कांग्रेस पार्टी हमेशा से आगे रही है. इंदिरा गांधी हत्याकांड के दो आरोपी बलबीर सिंह और केहर सिंह का केस अपने समय के जानेमाने वकील राम जेठमलानी ने लड़ा था. बलबीर सिंह को वह बचाने में सफल रहे, जबकि केहर सिंह को मृत्यु दंड दी गयी. जेठमलानी को कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं का विरोध सहना पड़ा था और संसद में उन्हें कांग्रेस के नेताओं का ताना. कोर्ट ने भी माना कि बलबीर सिंह बेकसूर था. शायद अगर जेठमलानी नहीं होते तो एक बेकसूर को फंसी दे दी जाती.
कांग्रेस आलाकमान ही इस बारे में सोचें
वहीं दूसरी तरह ऐसे भी कई केस रहे हैं, जहां सभी वकील किसी आरोपी का केस लड़ने से मना कर देते हैं. मुंबई में कोई भी वकील पाकिस्तानी आतंकी अजमल कसाब, जो कि 2008 के मुंबई आतंकी हमले में शामिल था, का केस लड़ने को तैयार नहीं था, शायद इस डर की वजह से कि समाज में उनका विरोध होगा. पर किसी अपराधी को बिना सुनवाई के या बिना उसे अपने आप को निर्दोष साबित करने के मौका दिए सजा नहीं दी जा सकती. अंत में सुप्रीम कोर्ट को कसाब के लिए वकील नियुक्त करना पड़ा, केस की सुनवाई हुई और उसे फांसी की सजा दी गई.
जब कानून का मापदंड निर्धारित है कि हर एक आरोपी के पक्ष में किसी ना किसी वकील को अदालत में पेश होना ही होगा तो फिर क्या जिस तरह कोलकाता में चिदंबरम का विरोध हुआ वह, गैरकानूनी नहीं था. चिदंबरम का अपने पार्टी के खिलाफ केस लड़ना अलग बात है. इसका फैसला वही स्वयं ही कर सकते हैं कि यह एक सही कदम था या गलत, नैतिक या अनैतिक या फिर कांग्रेस आलाकमान ही इस बारे में सोचें. पर वकीलों द्वारा इसका विरोध किया जाना कानून के खिलाफ था.
शायद समय आ गया कि ऐसा कानून बनाया जाए कि अगर कोई वकील किसी और वकील का विरोध सिर्फ इसलिए करता है कि उन्हें वह केस नहीं लड़ना चाहिए था तो फिर उनकी वकालत का लाइसेंस कुछ समय के लिए ही सही, रद्द कर दिया जाना चाहिए. क्योंकि कोई वकील अदालत से बड़ा नहीं हो सकता और किसी वकील को यह अधिकार कतई नहीं है कि वह अपने स्तर पर ही किसी को अपराधी घोषित कर दे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)