हमारी नई पीढ़ी : अविनम्र विचारों का अविवेकी समाज, परंपराओ से परिचय भी है जरूरी

कला संस्थानों में कभी मूल्यबोध का वर्चस्व हुआ करता था।

Update: 2022-04-03 01:47 GMT

बनारस में इन दिनों चंपारण नाम का ढाबा युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय हुआ है। विश्वविद्यालयों के युवा यहां अपनी शाम दोस्तों और मटन-बिरयानी के साथ गुजारते हैं। यह युवा पीढ़ी भितिहरवा के बारे में न तो जानती है, न जानना चाहती है। नरकटियागंज से भी कुछ युवा काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ने आते हैं।


ये अभिनेता मनोज बाजपेयी के कारण बेलवा या बेतिया और केंद्रीय विश्वविद्यालय बन जाने के बाद से मोतिहारी को जानते हैं, ये विश्वविद्यालय के ही कारण वर्धा को भी जानते हैं, पर भितिहरवा नाम इन्होंने नहीं सुना। चंपारण जिले के किसी गांव से आकर ढाबा चला रहे लोगों में से एक ने यह नाम सुना है।

जो नहीं जानते, उनके लिए सिर्फ इतना ही बताना काफी है कि दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधी जी ने भारत में अपना पहला आंदोलन चंपारण से आरंभ किया था। उससे पहले वर्ष 1917 में उन्होंने भितिहरवा में एक आश्रम बनाया। वहीं रहकर उन्होंने भारतीय जनमानस को समझा और लोगों को एक सूत्र में रचकर आंदोलन की नींव रखी।
भितिहरवा में वह आश्रम आज भी है, पर वहां वर्धा की तरह कोई विश्वविद्यालय न होने से या सरकारी, गैरसरकारी किसी सक्रियता के न होने से वह मृतप्राय है। मृतप्राय इस अर्थ में कि यह वर्तमान जेहन में अब अनुपस्थित है। इसीलिए इसका रख-रखाव भी अब गांधी की भूमिका की तरह अप्रासंगिक है।
अविवेक भी विनम्र हो सकता है, पर यदि अप्रासंगिक करने की कोशिश असंयमित और अहर्निश हो, तो फिर यह अविनम्र विचारों से बनते अविवेकी समाज का ही असभ्य चेहरा है। ऐसा सिर्फ गांधी और चंपारण को लेकर ही नहीं है, ऐसा हर उस भारतीय प्रतिष्ठा के साथ है, जिसमें गहन मूल्य और प्रथम महत्व का अवदान संचित है।
नई पीढ़ी को इससे कोई सरोकार नहीं। आर्थिक मूल्यबोध ने आत्मिक मूल्यबोध को विस्थापित कर रखा है और सांस्कारिक शिष्टता वैयक्तिक उन्नति के जश्न की ओट में चली गई है। अवनति का यह नया फैशन है। अपनी नई किताब फैशन, फेथ ऐंड फैंटेसी में नोबेल विज्ञानी रोजर पेनरोज ने इसे क्वांटम एन्ट्रॉपी कहा है।

भौतिकशास्त्र के अनुसार एन्ट्रॉपी का अर्थ अंत की ओर बढ़ना है। पढ़ रही, पढ़कर नौकरी ढूंढ रही या नौकरी कर रही युवा पीढ़ी से ठीक पहले वाली पीढ़ी संप्रति देश में इस एन्ट्रॉपी का मानक तैयार करने में जुटी हुई है। शिक्षा, साहित्य और कला के भ्रष्ट हो चुके संस्थानों का उपयोग कर यह पीढ़ी विद्या के उन अनुशासनों से वही हासिल करने में लगी है, जो राजनीति और अध्यात्म के क्षेत्र में पिछले चार-पांच दशकों का अशोभनीय अभ्यास है।

जैसे, लोगों को अज्ञानी बनाकर शक्ति और समृद्धि के सुख में रहने की वृत्ति। सत्य पर आवरण चढ़ा है, यह तो यथार्थ है, लेकिन जीवन यथार्थ पर लिप्सा का यह नया आवरण कुत्सित है। शिक्षा, ज्ञान, कला और आत्मिक उन्नति के लिए विश्व प्रशस्त इस देश का पूरब अब शेष पृथ्वी के लिए एक आवरण है।

मध्यकाल के एक बढ़ई का जिक्र तब से आज तक मौजूं है। मंदिर का घंटा बहुत अच्छा बनाने के लिए वह मशहूर था। एक बार राजा ने एक विराट मंदिर बनाने का निर्णय लिया और बढ़ई के पास उसका घंटा बनाने का प्रस्ताव आया। इतना बड़ा काम उसे राजा की ओर से मिला था, खुशी से वह घंटा बनाने में जुट गया।

वह सोचता रहा कि राज मंदिर के लिए कर रहे इस काम का पारिश्रमिक निश्चय ही अपेक्षा से अधिक होगा, उस धन का उपयोग वह कैसे करेगा। इस दौरान जो घंटा तैयार हुआ, वह बेकार बना। उसे नष्ट कर वह नया घंटा बनाने में लग गया। वह सोचता रहा कि राज मंदिर में यह घंटा सदैव विद्यमान रहेगा, लोग उसकी प्रशंसा करेंगे और उसकी यश-प्रतिष्ठा में वृद्धि होती चली जाएगी।

दूसरा घंटा भी बेकार बना। उसने सोचा कि भगवान के लिए वह घंटा बना रहा है और यश और धन के बारे में सोच रहा है। इस बार भगवान को ध्यान में रखकर वह घंटा बनाने लगा। पर वह विफल रहा। उसके बाद उसने सिर्फ घंटा बनाने पर ध्यान दिया। इस बार घंटा सुंदर बन गया था। यह राज मंदिर में स्थापित हुआ और उसे यश, धन और अमरत्व मिल गया।

हम युगों को सभ्यताओं की भाषा में ढालकर उन युगों की विवेचना करते हैं और उसे इतिहास कहते हैं। अन्यथा किसी भी सभ्यता में हमें सभ्यता का पता कम ही चल पाता है, सिवाय युद्ध, षड्यंत्र और सुख लोलुपता के। सभ्यताओं की हमारी परंपरा यदि सुदीर्घ है, तो हमारा वर्तमान असभ्य होकर मॉब लिंचिंग में क्यों प्रवृत्त हो जाता है?

यह भीड़ ही तो है, जो सत्ता के लिए या अपने ऊपर किसी को शासन करने के लिए किसी को जनादेश देती है, किसी फिल्म या गाने को प्रसिद्ध करती है या फिर किसी को प्रसिद्ध निर्देशक या अभिनेता बना देती है। भारतीय साहित्य और कलाओं में या थोड़ा और विस्तार देकर कहें, तो बौद्धिक वातावरण संप्रति आवरणों की व्यर्थ छाया का ऐम्फीथियेटर बना हुआ है, जहां न कविता है, न कहानी, न गीत, न धुन, न अभिनय, न निर्देशन।

सभी ने भीड़ को पात्र समझ कर खुद को सत्ता और संप्रभुता का दायित्व दे रखा है। जीवन संघर्ष सुख की ओट में चला गया है। संघर्ष के मायने जीवन बोध से दूर होते चले गए हैं। आहार, निद्रा और मैथुन की पशुवृत्ति उस विमर्श की ओट में चली गई है, जो मटन-बिरयानी के आवरण में सुरक्षित है, जहां मनुष्य होने की गुंजाइश लघुतम है और भितिहरवा पर पड़ रही धूप में सिर्फ औद्धत्य और अविवेक के निर्लज्ज चेहरे हैं।

ये चेहरे हमारी अद्यतन भीड़ है, जो किसी भी देवी-देवता के विसर्जन जुलूस और राजनीतिक रैलियों से लेकर बौद्विकता वंचित समूहों के अमूर्त चेहरे हैं। ये सोच ही नहीं सकते कि सत्ता से लेकर शिक्षा या कला संस्थानों में कभी मूल्यबोध का वर्चस्व हुआ करता था।

सोर्स: अमर उजाला

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