वसंत पंचमी पर निराला के 'नव स्वर'...
याददाश्त में लहराती धुनों के सहारे उनका कंठ गा रहा होगा
कलुष भेद तम, हर प्रकाश भर, जगमग जग कर दे… हताश और हारे हुए जीवन में उम्मीद के उजियारे की पवित्र कामनाओं को जगाता यह छंद यक़ीनन बुजुर्ग और प्रौढ़ हो चली पीढ़ी की स्मृतियों में अब भी किसी मंत्र की तरह झंकृत होता होगा. इसे बांचते-सुनते ही अनायास पूरी कविता कौंध रही होगी.
याददाश्त में लहराती धुनों के सहारे उनका कंठ गा रहा होगा- "वर दे वीणा वादिनी वर दे. प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव, भारत में भर दे".
अंतरजाल में गाफि़ल आज की नई नस्ल को यह वासंती संदेश बेगाना और कुछ पुरातन-पारंपरिक सा लगे लेकिन साहित्य की अमृत-बूंदों का आचमन कर जि़ंदगी के होश थामने वाली पीढ़ी के लिए शब्द और वाणी की महारानी सरस्वती के प्रति यह निवेदन जीवन की धन्यता का उद्घोष है.
…भाषा-भारती, पाठ-एक. वर दे! कवि-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला. यही तो था मंगलाचरण. कि़ताब का पहला शब्द-पुष्प. पांखुरी-पांखुरी खिलता जैसे पूरे मानस को महक से भर देता. गुरूजी विस्तार से इस कविता का अर्थ समझाते और अबोध मन वाग्देवी के चित्र को कौतुहल से निहारता! भीतर कोई लौ जागती.
एक भरोसा किसी कोने में जगह बनाता कि तमाम दुश्वारियों के बावजूद कोई शक्ति है जो समाधान की रोशनी लिए हमारे कर्मपथ पर फैले कांटे बुहारकर राह आसान बनाती रहेगी. इस कविता का संदर्भ इसलिए कि वसंत की पंचमी हिन्दी के महाप्राण कवि निराला के इस नश्वर संसार में पैदा होने का मुहूर्त है.
निराला ने अपने रचनाशील जीवन में विपुल और विविध लिखा. वे छायावाद के अप्रतिम कृतिकारों जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा और सुमित्रा नंदन पंत के साथ खड़े एक ऐसे विलक्षण कवि रहे जो हिन्दी के आधुनिक परिसर में नई क्रांति के प्रतीक माने जाते हैं.
यूं निराला की साहित्यिक मेधा और उनकी महिमा को कई कोणों से मापा जा सकता है, लेकिन उनके पक्ष में सर्वाधिक महत्व की बात ये है कि निराला भारतीय संस्कृति, जीवन मूल्यों, इतिहास, दर्शन और विश्व मानवीय दृष्टि से समृद्ध व्यक्तित्व थे. संघर्ष उनकी कुंडली में स्थायी भाव की तरह था.
निराला इसी आंच में तपकर जीवन के गीत गाते रहे. कविता-वर दे… के आसपास रहकर निराला की साहित्य साधना को समझें तो अनेक दिशाएं खुलती दिखाई देती हैं.
यह कविता निराला ने 1936 में लिखी थी. उनके अत्यंत लोकप्रिय संग्रह 'गीतिका' में संकलित यह प्रथम गीत है. शब्द-प्रयोग और लय-गति के विन्यास को देखें तो निराला नए छंद की रचना का साहस और सामर्थ्य प्रकट करते हैं. वे शब्द की आत्मा में बसे गहरे नाद को, उसके अंतः संगीत को पहचानते हैं.
वे श्रृंगार, लालित्य और रस-भाव के शिल्पी हैं. कविता कहते-कहते अनुप्रास (यानि एक ही वर्ण-अक्षर या शब्द का बार-बार प्रयोग) की छटा सहज ही उसमें चली आती है. इन तमाम आग्रहों के साथ जब आप इस कविता के पूरे पाठ से गुजरते हैं तो मंत्र की तरह उसका असर शिराओं में प्रवाहित होता है. सचमुच, निराला ने मंत्र ही तो रचा है-
वर दे!
वीणा वादिनी वर दे!!
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव
भारत में भर दे
काट अंध उर के बंधन स्वर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भरजगमग जग कर दे
नवगति, नव लय, ताल छंद नव
नवल कंठ, नव जलद मंद्र रव
नव नभ के नव विहग वृंद को
नव पर नव स्वर दे.
ग़ौर करने की बात यह भी कि निराला ने इसे उस दौर में लिखा जब पराधीन भारत का आंतरिक संघर्ष स्वाधीनता के सपनों के आसपास परवान चढ़ रहा था. तमाम बंधनों से मुक्ति की कामना के लिए भीतर कसक थी. आज़ादी के आसमान पर अपने अरमानों के इंद्रधनुषी रंग-बिखेरने की हुमस थी.
गति, गौरव और गरिमा के गीत गाने को कंठ मचल रहे थे. ऐसे में निराला की कविता वरदान बनकर प्रकट होती है. पूरे देश की आत्मा की आवाज़ बन जाती है. देवी सरस्वती से यही गुहार कि शापित कालखंड को मथकर नए विहान (सुबह) का अभ्युदय हो!
निश्चय ही यह कविता नई गति, नई ताल, नए छंद और नए स्वरों को थामती नए उन्मेष की इबारत बनी. आज भी निराला का यह गीत एक आलोकित दीप शिखा की तरह हमारे अंतःकरण के स्याह कोनों को नए उजास से भरता है. शायर-फि़ल्मकार गुलज़ार कहते हैं कि गीत कभी बूढ़े नहीं होते.
उनकी झुर्रियां नहीं निकलती. किसी मौजूं सी धुन में जड़ दो तो नग़मा फिर से सांसे लेने लगता है. इस गीत के साथ भी कमोबेश ऐसा ही है. अनेक संगीतकार-गायकों ने अलहदा सी धुनों में इस रचना को पिरोया. संगीत की सोहबत में जैसे इस कविता को नए पंख मिल नए.
सारस्वत सभाओं से लेकर स्कूलों में होने वाली नियमित प्रार्थना में इसे एकल और सामूहिक गाने की परंपरा हो गयी. शास्त्रीय राग-रागिनियों और लोक धुनों से लेकर सुगम संगीत में ढलकर निराला का यह छंद देश-देशांतर में स्वच्छंद विचरण करने लगा. किसी कृति के कालजयी हो जाने का उदाहरण इससे बेहतर और क्या हो सकता है!
लेकिन, इतनी स्वर-सिद्ध कविता रचने का कौशल अगर निराला के पास रहा. इसकी एक बड़ी वजह शब्द के साथ-साथ संगीत के प्रति उनकी अगाध असक्ति थी. उनकी गीतात्मक कविताओं से लेकर छंद मुक्त रचनाओं तक में अंतः संगीत बहता हुआ दिखाई देता है.
'वर दे' और 'बादल राग' से लेकर 'वह तोड़ती पत्थर' तक आते-आते निराला नए प्रयोगों की मिसाल गढ़ते हैं लेकिन कविता का आरोह-आरोह और उसका ध्वनि सौन्दर्य कभी कम न हुआ. दरअसल संगीत उनकी चेतना में प्रकृति प्रदत्त था. हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक डा. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक 'निराला की साहित्य साधना' में निराला के संगीत प्रेम से जुड़े अनेक प्रसंगों की चर्चा की है.
एक दिलचस्प वाकया कुछ इस तरह हुआ. पत्नी मनोहरा को एक दिन जब निराला ने तुलसी की 'विनय पत्रिका' का पद "कंदर्प अगणित अमित छवि नव, नील नीरद सुंदरम्" गाते हुए सुना तो उन्हें लगा जैसे गले में मृदंग बज रहा है. जैसे संगीत के सोते हुए संस्कार जाग नए.
निराला को लगा कि साहित्य इतना सुंदर है और संगीत इतना आकर्षक! उनकी आंखों ने जैसे नया संसार देखा! कानों ने ऐसा संगीत सुना जो इस पृथ्वी पर किसी दूर लोक से आता हो!
तुलसीदास के इस पद 'श्रीरामचन्द्र कृपालु भजमन' से उन्हें मोह हो गया. एक अज़ीब विश्रांति और अनंद वे इस छंद में महसूस करते. वे हारमोनियम पर इस पद को गाते तो आपे से बाहर आ जाते. आवेश में उनकी माथे की नसें तन जाती. वे शांत भाव से रामचरिमानस की चौपाइयां गाते.
उनके स्वर में पिघले हुए सोने का माधुर्य था. 'भैरवी' राग उन्हें अत्यंत प्रिय था. इसी राग में निबद्ध रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता उन्हें प्रिय थी और किसी के आग्रह पर या अपनी रूचि से वे गाने लगते. निराला अक्सर संगीत के शास्त्रीय पक्ष पर भी बहस करते.
अपने कोलकाता प्रवास के दौरान उनका परिचय रवीन्द्र संगीत से हुआ. टैगोर की संगीत दृष्टि से वे प्रभावित थे. किसी बंदिश को सुनते हुए सम आने पर चुटकी बजाते. यानी लय-ताल का ज्ञान उन्हें था. वे रवीन्द्र संगीत में आई कुछ पाश्चात्य धुनों के पक्ष में थे क्योंकि वे टैगोर की विश्व दृष्टि का सम्मान करते थे.
निराला के व्यक्तित्व में इन तमाम तत्वों का समावेश था. यह मुमकिन न होता अगर निराला सरस्वती के सच्चे उपासक न होते और सरस्वती की अनन्य कृपा उन पर न होती. वर दे… का लिखा जाना इसी परस्परता की परिणति है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
विनय उपाध्याय कला समीक्षक, मीडियाकर्मी एवं उद्घोषक
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.