Nepal Elections: किस राह जाएगा नेपाल? चुनाव नतीजों पर सबकी नजर
जिससे वे रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता को तेज करने का अखाड़ा बन जाएंगे।
कल हिमालयी राष्ट्र नेपाल के मतदाताओं ने मतदान किया। वहां वर्ष 2015 में नया संविधान लागू होने के बाद यह दूसरा चुनाव है। हालांकि इसका नतीजा आठ दिसंबर को आने वाला है, लेकिन वहां के चुनावी नतीजे के बारे में दो तरह की अटकलें लगाई जाने लगी हैं। एक यह कि क्या मतदाता पड़ोसी भारत में 'हिंदुत्व' के प्रभुत्व की अपनी व्यापक धारणा से प्रभावित होंगे, या फिर वे उत्तरी पड़ोसी मुल्क चीन की कई परियोजनाओं को अंजाम देने की कथित चेकबुक कूटनीति से प्रभावित होंगे। इन परस्पर विरोधी बिंदुओं का उत्तर उतना ही जटिल है, जितना नेपाल की आबादी और उसकी राजनीति।
एक ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक, नेपाल दुनिया में सर्वाधिक धार्मिक हिंदू बहुसंख्यकों का देश है। लेकिन यह गौतम बुद्ध का जन्म स्थान भी है, जिसके कारण बौद्ध धर्म का भी वहां एक विशेष स्थान है और अक्सर कुछ समुदायों के बीच यह हिंदू धर्म के साथ घुल-मिल जाता है। नेपाल हमेशा बौद्धों के साथ सह-अस्तित्व में रहा है, हालांकि उनकी आबादी 9.11 प्रतिशत है। नेपाल ने 2006 में अपनी 239 साल पुरानी राजशाही के साथ हिंदू राष्ट्र की पहचान को त्याग दिया और अब सांविधानिक रूप से यह एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है।
चूंकि नेपाली संविधान में धर्मनिरपेक्षता निहित है, ऐसे में कोई तर्क दे सकता है कि राजनीतिक लाभ के लिए धार्मिक भावनाओं का फायदा उठाने की कोशिश करने वाले नेताओं को लाभ नहीं होगा। लेकिन धार्मिक गतिविधियों में नेपाली राजनेताओं की बढ़ती दिलचस्पी ने विश्लेषकों को यह अनुमान लगाने के लिए प्रेरित किया है कि हिंदू राष्ट्रवाद वहां एक प्रमुख मुद्दा बन सकता है। इसे इस तथ्य से भी मजबूती मिल रही है कि सत्ता के आकांक्षी दोनों गठबंधनों में बेशक चीन से प्रभावित कम्युनिस्ट तत्व हैं, लेकिन वे दोनों हिंदू कार्ड खेल रहे हैं, मंदिरों में जा रहे हैं और धार्मिक अनुष्ठान कर रहे हैं।
मार्क्सवादी केपी शर्मा ओली ने पशुपतिनाथ मंदिर में पूजा करना शुरू कर दिया। जबकि यह प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के लिए स्वाभाविक हो सकता है, जो मध्यमार्गी नेपाली कांग्रेस से ताल्लुक रखते हैं और अपनी हिंदू जड़ों को दर्शाते हैं तथा जिनकी पत्नी आरजू देउबा रक्षाबंधन के दिन भारत के शीर्ष भाजपा नेता को राखी बांधती हैं। लेकिन ओली के अलावा उनके कम्युनिस्ट प्रतिद्वंद्वी पुष्प कमल दहल प्रचंड भी, जो अब सत्ताधारी गठबंधन में हैं, मार्क्सवाद-लेनिनवाद के प्रति निष्ठा के बावजूद वही रास्ता अपना रहे हैं। फिर भी प्रचंड इन चुनावों को प्रगतिशील और प्रगतिकामी ताकतों के बीच मुकाबला बताते हैं। दरअसल, हाल में जारी घोषणापत्र एक ही गठबंधन की विभिन्न पार्टियों के बीच राजनीतिक विचारधाराओं में भारी अंतर को दर्शाते हैं।
ऐसे विरोधाभासों का प्रतीक ओली की सीपीएन-यूएमएल राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के साथ गठबंधन में है, जो राजशाही की बहाली चाहती है। नेपाल में बहुदलीय प्रणाली स्थापित नहीं हुई है। इसके तीन प्रमुख दलों (नेपाली कांग्रेस, सीपीएन-यूएमएल और माओवादी सेंटर) ने अतीत में अलग-अलग गठबंधन का नेतृत्व किया है, लेकिन सत्ता संघर्ष और अंदरूनी कलह के कारण किसी ने भी पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया। जहां तक दूसरे कयास की बात है, चीनी प्रभाव मजबूत बना हुआ है, हालांकि देउबा ने ओली के कई फैसलों को पलट दिया और चीन समर्थक झुकाव को खत्म करने के लिए काफी मेहनत की है।
लेकिन चीन एक प्रमुख व्यापार भागीदार और लाभ उठाने वाला देश बना हुआ है। वर्ष 2019 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने जो वायदा किया, उसके अलावा नेपाल ने अगस्त में 15 अरब नेपाली रुपये की एक चीनी परियोजना पर हस्ताक्षर किया है। लेकिन यह चीन के कर्ज जाल को लेकर चिंतित है और बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव के तहत परियोजनाओं को स्वीकार करने के मामले में सुस्त रहा है। साथ ही, नेपाल को अमेरिकी मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (एमसीसी) के तहत भी वित्तपोषित किया जाता है।
नेपाल ने अमेरिका और पश्चिम के साथ चीन की उभरती क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता को संतुलित करने की पूरी कोशिश की है और भारतीय सहायता का वह मुखर स्वागत करता है। संक्षेप में, नेपाल को अपने भूगोल और भू-राजनीतिक मजबूरियों के कारण लाभ और हानि, दोनों हुई है। राजनीतिक स्थिरता पाने में इसकी विफलता के कारण भी स्थिति दुरूह बनी हुई है। वर्ष 2006 में गणतंत्र बनने के बाद से यहां दस सरकारें बनीं और 13 प्रधानमंत्री हुए हैं। 275 सांसदों और 550 प्रांतीय विधानसभा सदस्यों को चुनने के लिए 1.8 करोड़ मतदाताओं ने मतदान किया। मिश्रित निर्वाचन प्रणाली के तहत, 60 प्रतिशत सांसदों का चुनाव निर्वाचन व्यवस्था से किया जाएगा, जबकि 40 प्रतिशत आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के माध्यम से चुने जाएंगे। 165 संसदीय सीटों के लिए कुल 2,412 प्रत्याशी मैदान में हैं, जिनमें से मात्र 225 महिलाएं (9.3 प्रतिशत) हैं।
एक प्रमुख महिला नेता और दो बार कैबिनेट मंत्री हिसिला यामी कहती हैं कि 'सामंती पितृसत्तात्मक मानसिकता एक बड़ी बाधा है।' राजनीतिक नेताओं के अवसरवादी गठबंधन ने नेपाल के लोगों में निराशा पैदा की है। कार्यकाल की सीमा के अभाव में मौजूदा प्रधानमंत्री देउबा छठा कार्यकाल चाह रहे हैं, जबकि उनके तत्काल पूर्ववर्ती केपीशर्मा ओली तीन बार प्रधानमंत्री रह चुके हैं। चुनाव परिणामों के आगामी आठ दिसंबर को घोषित किए जाने की उम्मीद है, जो नेपाल के भावी राजनीतिक दिशा पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालेंगे। दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता के कारण निवेशक दूर रहते हैं।
कोविड महामारी ने वहां के पर्यटन उद्योग को बुरी तरह प्रभावित किया, जो देश की जीडीपी में चार प्रतिशत का योगदान करता है। इसी तरह विदेशों से आने वाले धन का प्रवाह भी बाधित हुआ, जो जीडीपी में 25 फीसदी योगदान करता है। नेपाल इस चुनाव के जरिये विश्वसनीयता चाहता है। भारत चाहता है कि नेपाल में ऐसी सरकार हो, जो कम से कम शत्रुतापूर्ण न हो। नेपाल और अन्य छोटे एशियाई व हिंद-प्रशांत देशों में अपनी पैठ बनाने के लिए एक तरफ भारत व अमेरिका, तो दूसरी तरफ चीन के बीच संघर्ष जारी रहेगा। यह इन देशों की घरेलू राजनीति को भी निर्धारित करेगा, जिससे वे रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता को तेज करने का अखाड़ा बन जाएंगे।
सोर्स: अमर उजाला