National Vaccination Day 2022: क्या टीके ने बचाया तीसरी लहर के प्रकोप से
क्या टीके ने बचाया तीसरी लहर के प्रकोप से
तसल्ली की बात है कि देश अब तक कोरोना की तीसरी लहर के बुरे प्रकोप से बचा हुआ है. दूसरी लहर में श्मशान में जलती और नदियों में तैरती लाशों से मन में एक बहुत बुरी आशंका थी कि आगे जाने क्या होगा? जब तीसरी लहर की धमकी और कोविड 19 वायरस के एक नए स्वरूप की खबरें मीडिया में आने लगीं, तब हमारा चेहरा डर के मारे सफेद पड़ने लगा था.
लेकिन, अब जबकि देश में रोज कुछ हजार केस ही आ रहे हैं और पीक कभी की निकल चुकी है, यह तसल्ली मन में है कि चलो हमारी आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं और इसकी श्रेय किसी को दिया जाना चाहिए तो वह टीका ही है. आज 16 मार्च राष्ट्रीय टीकाकरण दिवस के अवसर पर न केवल कोविड-19, बल्कि उन तमाम टीकों को धन्यवाद बनता है, जिन्होंने हमारे देश में अनेक प्रकार की महामारियों से हमारी रक्षा करते हुए लाखों जान बचाई हैं.
पर क्या हमें अब से ठीक साल भर पहले की वह कहानियां याद हैं, जिनमें कोविड 19 के साथ टीके के लिए भी एक भय का वातावरण बना था. टीके लगवाने से लोग कतरा रहे थे. टीके के खिलाफ देश के कोने-कोने में तरह-तरह की अफवाहें सुनाई दे रही थीं. टीका लगने के बाद नपुंसक हो जाने से लेकर उसमें मांस मिला होने की जाने कैसी-कैसी बातें. लेकिन, अफवाहों को उड़ाने वालों से ज्यादा टीके के पक्ष में माहौल बनाने वाले ज्यादा लोग सामने आए.
डॉक्टरों ने, मेडिकल प्रैक्टिशनर्स ने कोविड के खिलाफ जमीनी काम कर रहे लोगों ने सबसे पहले काम टीके को लगाकर दिखाया कि यही बचाव का एकमात्र रास्ता है और इसके अलावा कोई जोरदार उपाय नहीं है. जनप्रतिनिधियों ने पहल की. देश के कोने—कोने में काम कर रही स्वयंसेवी संस्थाओं ने टीके के प्रति जागरुकता लाने का बड़ा काम किया. यही कारण है कि तमाम बाधाओं और चुनौतियों को पार करते हुए तकरीबन बड़ी आबादी ने टीका लगवाया.
देश के लाखों फ्रंटलाइन वर्कर्स की वजह से भारत जैसे 130 करोड़ की आबादी वाले देश में संभव हो पाया. सरकार ने 2021-22 के बजट में 35 हजार करोड़ रुपए का भारी भरकम बजट कोविड 19 टीकाकरण कार्यक्रम के लिए आवंटित किया और इस पर तकरीबन 27 हजार करोड़ रुपए खर्च भी किए. इन्हीं प्रयासों का नतीजा रहा कि तीसरी लहर अपना रौद्र रूप नहीं दिखा पाई है.
वैसे दुनिया में जितनी भी महामारियां रही हैं उनमें टीका ही काम आया है. टीके से पहले महामारियां पूरी दुनिया में मौत का तांडव करती रही हैं. अठारहवीं सदी की शुरुआत में टीके का महत्वपूर्ण अविष्कार सामने आया. 1803 में वैक्सीनेशन शब्द गढ़ा गया. इसके बाद से निरंतर शोध कार्य होते रहे. भारत में राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम सत्तर के दशक में शुरू हुआ, खासकर बच्चों के लिए यह एक जरूरी पहल थी क्योंकि हमारे यहां बच्चों की मृत्यु दर बहुत अधिक रही है.
बच्चों के लिए चलाए जाने वाला टीकाकरण कार्यक्रम डिप्थीरिया, परटूसिस, टिटनेस, पोलियो, मीजल्स, रूबेला, टीबी, हेपेटाइटिस बी, निमोनिया आदि 9 तरह की जानलेवा बीमारियों से रक्षा करता है. यह वह घातक बीमारियां थीं जो बच्चों की जान लेती रही हैं और इसी कारण लोगों को भरोसा ही नहीं होता था कि उनके सभी बच्चे जीवित रहेंगे, इसलिए हमारे यहां परिवार नियोजन या हम दो हमारे दो का नारा भी लंबे समय तक कम लोगों ने माना. भारत में अधिक आबादी होने का यह भी एक बड़ा कारण रहा है.
बहरहाल, टीके ने कोविड के मामले में तो हाल ही में अपना ठीक असर दिखाया है, लेकिन बच्चों के मामले में लंबे समय की कोशिशों के बाद भी अपेक्षित सफलता बहुत देरी से मिलती रही है। कठिन भौगोलिक क्षेत्रों में समुदाय तक टीके की पहुंच का संकट तो रहा है, लेकिन उससे अधिक संकट जागरुकता का भी रहा है.
राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक तीसरे सर्वे में 12 से 23 माह तक के 43.5 प्रतिशत बच्चों को ही पूरे टीके लगवाए गए थे, दस साल बाद 2015-16 में जब चौथा सर्वेक्षण आया तो यह प्रतिशत बढ़कर 62 तक पहुंचा, लेकिन अब भी 38 प्रतिशत बच्चों की आबादी पूरी तरह सुरक्षित नहीं हो पाई थी. हाल ही में एनएफएचएस 5 की रिपोर्ट आई है और इसमें भी यह निकलकर आया है कि तकरीबन 24 प्रतिशत बच्चों को सभी टीके नहीं लगवाए गए हैं.
सवाल यह है कि जब हम कोविड 19 के टीके के प्रति जागरुक हो सकते हैं तो क्या बच्चों के टीकों के प्रति वह संवेदना नहीं ला सकते, वह भी तब जबकि सरकार हर साल करोड़ों रुपए खर्च करके टीकों को पूरी तरह निशुल्क उपलब्ध करवाती है.
अब जबकि टीकाकरण के लिए देश में एक आशावादी माहौल बन गया है, जरुरत इस बात कि है कि इसे दूसरे टीकाकरण के लिए भी अपनाया जाए. समुदाय के उन इलाकों तक बात पहुंचे जहां कि देश में पहले से चल रहे टीकाकरण कार्यक्रम नहीं अपनाए जाते हैं, पूर्ण टीकाकरण से देश में कोविड ही नहीं, अन्य महामारियों का असर भी कम होगा, आज राष्ट्रीय टीकाकरण दिवस पर यह समझने की जरुरत है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
राकेश कुमार मालवीय वरिष्ठ पत्रकार
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.