मुस्लिम विमर्श बदलता पसमांदा आंदोलन: कांग्रेस और सपा ने पसमांदा मुस्लिमों को खूब ठगा
मुस्लिम विमर्श बदलता पसमांदा आंदोलन
डा. एके वर्मा। देश में राष्ट्रीय, प्रांतीय या स्थानीय स्तर पर चुनाव चलते ही रहते हैं। उनमें 'मुस्लिम मतदाता' महत्वपूर्ण घटक होता है। राजनीतिक दल मुसलमानों को रिझाने के भरपूर प्रयास करते हैं। बंगाल विधानसभा चुनावों में यह स्पष्ट दिखा। सभी दल भाजपा पर इसका दोषारोपण करते हैं, जबकि सच्चाई कुछ और होती है। उसे अनदेखा किया जाता है। दरअसल मुस्लिम विमर्श में कुछ भ्रामक धारणाएं हैं। पहली यह कि मुस्लिम एक समरूप समाज है। दूसरी, मुस्लिम समाज में जातीय संरचनाएं और ऊंच-नीच का भेद नहीं होता। तीसरी, इस्लाम में असमानता या उत्पीड़न नहीं है। चौथी यह कि मुस्लिम एकजुट होकर किसी पार्टी का समर्थन या विरोध करते हैं। पसमांदा आंदोलन इन सभी धारणाओं को ध्वस्त करता है।
पसमांदा आंदोलन ने किया जिन्ना के 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' का विरोध
स्वतंत्रता पूर्व हिंदू समाज के दलित और पिछड़े वर्ग से बड़े पैमाने पर मतांतरण कराए गए। मतांतरण के पीछे हिंदू समाज की ढांचागत विकृतियां भी जिम्मेदार थीं। इस कारण दलित-पिछड़े समाज के तमाम पीड़ित हिंदू कभी पैसे के लालच में, जोर-जबरदस्ती या इस्लाम में तथाकथित 'समानता' से आकृष्ट होकर मुसलमान बन गए। पसमांदा आंदोलन ऐसे ही पिछड़े मुसलमानों का सशक्त आंदोलन है, जो मुस्लिम विमर्श की तमाम मान्यताओं को चुनौती देता है। पसमांदा आंदोलन की शुरुआत स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जिन्ना के 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' का विरोध करने वाले अब्दुल कयूम अंसारी द्वारा मोमिन कांफ्रेंस बनाकर की गई। अंसारी 1946 में पसमांदा समाज से आने वाले पहले मंत्री भी बने। कोलकाता में मौलाना अली हुसैन (आसिम बिहारी) ने पसमांदा आंदोलन की बुनियाद रखी। महाराष्ट्र में मंडल आयोग से पहले 1981 में शब्बीर अंसारी के नेतृत्व में 'महाराष्ट्र मुस्लिम ओबीसी संगठन' की स्थापना हुई, जिसके प्रयास से महाराष्ट्र में अधिकांश पसमांदा मुस्लिमों को ओबीसी सूची में शामिल किया गया। इस मुहिम में एक अहम मोड़ 1994 में आया जब बिहार में एजाज अली ने 'आल इंडिया बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा' का गठन कर इसे आंदोलन का स्वरूप दिया, जिसे अनवर अली ने 1998 में 'आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज' बनाकर आगे बढ़ाया।
कांग्रेस और सपा ने पसमांदा मुस्लिमों को खूब ठगा
'पसमांदा' से आशय पिछड़े या दबे-कुचले मुस्लिमों से है। इस आंदोलन के नेताओं का दावा है कि मुस्लिम आबादी में 80-85 प्रतिशत पसमांदा मुस्लिम हैं, लेकिन मुस्लिम नेताओं ने अल्पसंख्यकों के नाम पर जो विमर्श चलाया, वह वास्तव में उच्चवर्गीय मुस्लिमों यानी अशराफ मुस्लिमों का विमर्श है। पसमांदा मुस्लिम महाज की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष मुहम्मद वसीम राइन के अनुसार तथाकथित सेक्युलर पार्टियों, खासकर कांग्रेस और सपा ने पसमांदा मुस्लिमों को खूब ठगा। उन्हें 'आरएसएस' के भूत से डराया, लेकिन धरातल पर मुस्लिमों के लिए किया कुछ नहीं। सपा ने 2012 में घोषणा की थी कि वह सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशें लागू करेगी, परंतु सत्ता में आने पर ऐसा नहीं किया।
मुस्लिम समाज में समानता एक मिथक, भारत में दो किस्म के मुसलमान
2007 में मौलाना आलम फलाही ने 'हिंदुस्तान में जात-पांत और मुसलमान' नामक पुस्तक में मुस्लिम समाज में व्याप्त सामाजिक विसंगतियों का चित्रण किया। पसमांदा बुद्धिजीवी फैयाज अहमद फैजी के अनुसार मुस्लिम समाज में समानता एक मिथक है। उनके अनुसार भारत में दो किस्म के मुसलमान हैं। एक वे जो अरब, ईरान और तुर्की मूल के हैं। इन्हें अशराफ या शरीफ मुस्लिम कहा जाता है। दूसरे वे देसी मुसलमान हैं, जिनमें मुख्य रूप से हिंदू समाज के दलित और पिछड़े वर्ग से इस्लाम में मतांतरित हैं। तमाम अशराफ नस्लवाद के वशीभूत होकर पसमांदा मुस्लिमों को अपना गुलाम मानते हैं।
पसमांदा 'कबीरदास' को मानते हैं अपना मसीहा
मुस्लिम समाज में जातीयता भी बरकरार है। इस्लाम स्वीकार करने पर भी दलित और ओबीसी मुस्लिमों में हिंदू समाज की जातीय संरचनाएं खत्म नहीं हुई हैं। पाकिस्तान में भी यही हाल है। जहांगीर अहमद ने न्यूयार्क टाइम्स में लिखा कि पाकिस्तान के 'गुलाम कश्मीर' में एक मुस्लिम लोहार को 80 गोलियों से इसलिए भून दिया गया, क्योंकि उसने अपने से ऊंची जाति की लड़की से शादी रचाई। पसमांदा 'कबीरदास' को अपना मसीहा मानते हैं, जिन्होंने मुस्लिम समाज में व्याप्त जातिवाद और ऊंच-नीच के खिलाफ आवाज उठाई और उलमा का विरोध किया। उन्हें दबाने के लिए अशराफ उलमा ने 'कुफ्र का फतवा' जारी किया और कहा कि वे मुस्लिम नहीं, ताकि पसमांदा मुस्लिमों पर उनका असर न हो और मुस्लिम समाज में जातिवाद और नस्लीय भेदभाव कायम रहे। पसमांदा मुस्लिमों का यह भी आरोप है कि स्वतंत्रता के बाद मौलाना आजाद ने सभी अशराफों को गोल टोपी पहनाकर शासन और प्रशासन में घुसा दिया और पसमांदा मुसलमान पिछड़ता चला गया। पसमांदा नेताओं के अनुसार मदरसे परिवारवाद और सामंतवाद के स्तंभ हैं, जिन पर यूजीसी जैसी संस्था बनाकर नियंत्रण करना चाहिए।
राज्य का तो कोई धर्म ही नहीं
पसमांदा तबके के अनुसार, 'सेक्युलर' देश में 'धार्मिक-अल्पसंख्यक' का कोई औचित्य नहीं, क्योंकि राज्य का तो कोई धर्म ही नहीं। फिर भारत में मुस्लिम जनसंख्या कई मुस्लिम देशों से भी ज्यादा और पाकिस्तान में मुस्लिमों की संख्या के बराबर है, तो मुस्लिम यहां अल्पसंख्यक कैसे हो सकते हैं? अशराफ मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड का सरकारों के विरुद्ध दबाव समूह के रूप में दुरुपयोग करते हैं, जबकि वे धोबी, नट, बक्सू, हलालखोर, नालबंद, पमरिया, भाट, कसाई आदि पसमांदा मुस्लिमों को प्रतिनिधित्व नहीं देते। मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय हेतु 'अशराफ' कोई आवाज नही उठाते, लेकिन हिंदू समाज में सामाजिक न्याय के लिए बहुत फिक्रमंद रहते हैं। पसमांदा आंदोलन राष्ट्रवादी सोच पर आधारित पिछड़े और दलित मुस्लिमों का आंदोलन है। पसमांदा की रगों में हिंदू समाज और भारत का खून दौड़ता है। त्रासदी यह कि उन्हीं की उपेक्षा कर उनके नाम पर अशराफ मुस्लिम अपनी राजनीति चमकाते हैं। पसमांदा आंदोलन तथाकथित सेक्युलर पार्टियों के लिए एक बड़ी चुनौती है। यह न केवल मुस्लिम विमर्श बदल रहा है, बल्कि एक बड़े मुस्लिम वर्ग की सोच और मतदान व्यवहार में बदलाव लाकर भारतीय राजनीति में गंभीर परिवर्तन लाने की प्रबल संभावना भी रखता है।
(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)