कोविड के बाद मंकीपॉक्स : आखिर कहां से बार-बार दुनिया में प्रकोप दिखाती हैं महामारियां, क्या चिंता की जरूरत
सारे विश्व को मिलकर उससे लड़ना और निपटना चाहिए।
सारी दुनिया में 1960 के दशक के मध्य में चेचक की बीमारी के उन्मूलन के लिए कदम उठाए जा रहे थे। तब उन्मूलन की प्रक्रिया को सुनिश्चित करने के लिए चेचक मरीजों को ढूंढ़ने की खातिर नियमित रूप से सघन जांचें चलती रहती थीं। वर्ष 1970 में, ऐसी ही एक जांच के दौरान अफ्रीका के देश जायरे (जिसे आजकल डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो कहा जाता है, जहां चेचक का आखिरी मरीज 1968 में मिला था) में नौ साल के एक बच्चे में चेचक से मिलते-जुलते लक्षण और शरीर पर चकत्ते मिले।
जब सैंपल की जांच की गई, तो चेचक का विषाणु नहीं मिला। दुनिया की अन्य विषाणु प्रयोगशालाओं में बात करने के बाद पता चला कि उस बच्चे को जो बीमारी थी, वह उससे पहले मनुष्यों में कभी नहीं पाई गई थी। हां, यही विषाणु डेनमार्क की एक प्रयोगशाला में कुछ बंदरों में वर्ष 1958 में पाया गया था और तब उसको मंकीपॉक्स वायरस नाम दिया गया था। अब हम जानते हैं कि मंकीपॉक्स एक जूनोटिक अर्थात जानवरों से इंसानों में फैलने वाली बीमारी है।
वर्ष 1970 के बाद से मंकीपॉक्स बीमारी के मरीज अफ्रीका के 11 देशों में नियमित रूप से मिलते रहे हैं और इन देशों को इस बीमारी के लिए एंडेमिक (स्थानीय महामारी) माना जाता है। वर्ष 2017 से नाइजीरिया में मंकीपॉक्स बीमारी का प्रकोप चल रहा है और पिछले पांच वर्षों में अकेले नाइजीरिया में 550 मरीज मिले हैं और कुछ की मृत्यु भी हुई है। अफ्रीका के इन 11 देशों के बाहर पहली बार मंकीपॉक्स के मरीज वर्ष 2003 में अमेरिका में मिले थे।
दरअसल अफ्रीका से लाए गए कुछ जानवरों के साथ ये विषाणु अमेरिका पहुंचे और उसके बाद वहां के जानवरों से होते हुए इंसानों में इसके संक्रमण के मामले आए। तब से, कुछ अन्य देशों, जैसे कि इस्राइल और सिंगापुर में भी इसके मरीज मिले हैं। फिर, मई, 2022 में अचानक जैसे कुछ बदल गया। विगत छह मई को ब्रिटेन में एक व्यक्ति में मंकीपॉक्स की बीमारी मिली। यह व्यक्ति 20 अप्रैल को नाइजीरिया गया था और तीन मई को वहां से वापस लौट आया।
तब से जून के दूसरे सप्ताह तक, यूरोप, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया महाद्वीपों के 29 देशों में मंकीपॉक्स बीमारी के करीब 1,000 मामले मिल चुके हैं। इनमें से अधिकतर देशों में यह बीमारी पहले कभी नहीं मिली थी। मंकीपॉक्स, चेचक विषाणु के परिवार का ही है। इस वायरस के दो प्रकार हैं, एक पश्चिमी अफ्रीकी रूप और दूसरा मध्य अफ्रीकी या कांगो बेसिन रूप। संक्रमण के बाद लक्षण आने में पांच से 21 दिन तक लग सकते हैं। लक्षणों में बुखार, शरीर दर्द और ग्रंथियों में सूजन आना मुख्य हैं।
जहां पर यह बीमारी फैल रही है, वहां शरीर में चकत्ते बनना और ग्रंथियों में सूजन आना मंकीपॉक्स का संदेह देते हैं। बच्चों, गर्भवती महिलाओं और कमजोर प्रतिरक्षा वाले व्यक्तियों में इस बीमारी के गंभीर होने का खतरा अधिक रहता है। इस बीमारी में एक से 10 प्रतिश संक्रमित की मृत्यु हो जाती है। अभी के प्रकोप में पश्चिमी अफ्रीकी रूप फैल रहा है, जो तुलनात्मक रूप से कम खतरनाक है। जैसा कि अधिकतर विषाणुजनित बीमारियों में होता है, इसकी कोई कारगर दवा नहीं है, और लक्षणों के आधार पर ही इसका इलाज किया जाता है।
मंकीपॉक्स के लिए कोई टीका नहीं है, परंतु चेचक का टीका इस बीमारी से भी बचाव करता है। लेकिन दुनिया से चेचक उन्मूलन के बाद वर्ष 1980 से चेचक का टीका लगना बंद हो गया था। जो लोग इसके पहले पैदा हुए थे, उनकी प्रतिरक्षा कितनी हो सकती है, यह कहना मुश्किल है। वर्ष 1980 के बाद पैदा हुए लोग अर्थात जिनकी उम्र 42 साल या उससे कम है, उन्हें कभी चेचक का टीका नहीं लगा है और कोई प्रतिरक्षा नहीं है। फिलहाल, चेचक के कुछ टीके अमेरिका तथा यूरोप के कुछ देशों में भंडारित रखे हुए हैं, लेकिन अधिकतर देशों में यह टीका उपलब्ध नहीं है, जिनमें भारत भी शामिल है।
आज के समय में, जब दुनिया एक-दूसरे से जुड़ी हुई है, बीमारियों के एक देश से दूसरे देशों में फैलने की पूरी आशंका रहती है। कोविड-19 महामारी इसका जीवंत और ताजा उदाहरण है। भारत में भी अब तक मंकीपॉक्स विषाणु या उसका मरीज नहीं मिला है। अभी हो रहे प्रकोप (ऑउटब्रेक) में बीमारी के प्रसार को देखते हुए अगर आने वाले समय में भारत में भी मंकीपॉक्स का एक या अधिक मरीज आ जाए, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। वैसे भी, पिछले कुछ वर्षों में भारत में कई नए विषाणु मिले हैं-जिनमें निपाह, जीका और वेस्ट नाइल वायरस भी शामिल हैं।
इसलिए, केंद्र और राज्य सरकारों को पूरी तैयारी रखनी चाहिए। विशेषज्ञ मानते हैं कि भले ही पिछले एक महीने में मंकीपॉक्स के मरीज कई देशों में मिले हैं, लेकिन इसके कोविड-19 की तरह वैश्विक महामारी में तब्दील होने की आशंका नहीं है। इसकी वजह यह है कि मंकीपॉक्स एक पुराना वायरस है, और इसकी रोकथाम के तरीके ज्ञात हैं। यह इतना संक्रामक भी नहीं है। यह बीमारी मुख्य रूप से जानवरों से इंसानों में फैलती है और मनुष्य से मनुष्य में इसका फैलाव कम है। इसलिए हमें अधिक चिंतित होने की जरूरत नहीं है।
मंकीपॉक्स के अफ्रीका के 11 गरीब देशों में पचास वर्षों से चुनौती बने रहने के बाबजूद इसके खिलाफ कोई कारगर दवा या टीके की खोज न होना इस बात को रेखांकित करता है कि गरीब देशों की स्वास्थ्य समस्या पर वैश्विक समुदाय अधिक ध्यान नहीं देता है। यही रवैया अफ्रीका में इबोला जैसी गंभीर बीमारी के लिए भी रहा है। लेकिन आज अगर मंकीपॉक्स पर दुनिया बात कर रही है, तो इसलिए कि अब बीमारी अमीर देशों में उभर कर आई है। अब इसके लिए वैक्सीन बनाने और इलाज की खोजों पर उत्साह से काम होगा। कोरोना के बाद, मंकीपॉक्स का प्रकोप हमें याद दिलाता है कि हम दुनिया के चाहे किसी भी हिस्से में हों, हमारा स्वास्थ्य एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। इसलिए स्वास्थ्य समस्या चाहे किसी भी देश की हो, सारे विश्व को मिलकर उससे लड़ना और निपटना चाहिए।
सोर्स: अमर उजाला