खोए हुए डाकिए की याद

आज त्वरित संदेश भेजने के बहुत सारे साधन हैं। वाट्सऐप, इंस्टाग्राम, फेसबुक और न जाने क्या-क्या। भेजने के मार्गों में जितनी वृद्धि हुई है, उतनी ही संवेदनाओं की कमी हुई है।

Update: 2022-07-18 06:00 GMT

सुरेश कुमार मिश्रा 'उरतृप्त': आज त्वरित संदेश भेजने के बहुत सारे साधन हैं। वाट्सऐप, इंस्टाग्राम, फेसबुक और न जाने क्या-क्या। भेजने के मार्गों में जितनी वृद्धि हुई है, उतनी ही संवेदनाओं की कमी हुई है। इन सबके बीच हमारा डाकिया कहीं खो गया है। मानो उसे आज की प्रौद्योगिकी क्रांति ने लील लिया हो। सच तो यह है कि वह मात्र चिट्ठियां लाने वाला डाकिया नहीं, बल्कि दिल से दिल को जोड़ने वाला बड़ा मसीहा था। वह चिट्ठियों के बहाने कभी खुशी तो कभी गम का पैगाम दे जाता था। उसके घर आने पर ऐसा लगता, जैसे कोई अपना सगा-संबंधी आया हो। उसे बिठा कर जलपान कराना और आत्मीयता की चाशनी में डूबी बातों से संवेदना को संचित करना, कैसे भुलाया जा सकता है।

आज हर हाथ में मोबाइल है। हर मोबाइल में सैकड़ों लोगों के नंबर हैं। ये केवल नंबर नहीं, जीते-जागते रिश्तों के सूचक हैं। इन सूचकों का मौन रहना अत्यंत पीड़ादायी होता है। लोग 'आनलाइन' में दिखते हैं, लेकिन आपको 'आफलाइन' की तरह अनदेखा करते हैं। ऐसे समय में गांव का वह लाल डिब्बा और खाकी रंग का परिधान पहने डाकिए की बड़ी याद आती है। भले उसके पास आपके लिए कोई संदेशा न हो, लेकिन जब भी वह आपके द्वार से होकर गुजरता, एक क्षण के लिए रुक कर आपका हाल-चाल पूछ ही लेता।

वह हमारे समय का ऐसा देवदूत था, जो हल्दी लगा निमंत्रण पत्र देकर हमें किसी शुभकार्य के लिए ऐसे बुलाता जैसे उसी के घर में वह कार्य हो रहा हो। वह मानवीय मूल्य का सबसे बड़ा उदाहरण था। उसके मिलनसार व्यक्तित्व का कोई सानी नहीं। न जाने उसके हाथों कितनी नौकरियों के नियुक्ति पत्र बांटे गए। उन्हें पाने वालों के मन-मस्तिष्क पर उस डाकिए की छवि अमिट है। इतना अमिट कि उसे कालखंड का रबड़ भी चाह कर नहीं मिटा सकता।

डाकिए के थैले में चिट्ठियां नहीं, संवेदनाओं का भंडार होता। ऐसी संवेदनाएं, जिनकी कमी के चलते आज मनुष्य अपनी मनुष्यता खोता जा रहा है। मानवीय मूल्यों को ताक पर रख कर स्वार्थ के मोह-भंवर में फंसा जा रहा है। उसके थैले में किसी की शादी का निमंत्रण, तो किसी की मजबूरियों की गाथा होती थी। किसी के घर में नवजात के आने की खुशी, तो किसी के घर में दादी के गुजर जाने का दुख।

उसमें छोटों के लिए प्यार तो बड़ों के लिए आशीर्वाद छिपा होता था। किसी के विरह की पीड़ा तो किसी के मिलन की प्रसन्नता। किसी के लिए हंसी, तो किसी के लिए रोने की खबर। वह थैला नहीं, बल्कि उत्साह, प्रेम, क्रोध, आश्चर्य, घृणा, हास्य, शोक, भय, निर्वेद जैसे नवरसों का अद्भुत खजाना था। वह जितना लुटाता था, लोग उसके उतने ही निकट हो जाते थे। वह जीता-जागता चुंबक था, जो संवेदनाओं के गुरुत्वाकर्षण से सबको अपनी ओर खींचता था।

एक समय था, जब अपना कोई हमें छोड़ कर कहीं और चला जाता तो, उसकी याद हमें हृदय की गहराई तक झकझोर कर रख देती थी। हम बेचैन हो उठते थे। तब हमारे पास कोई चारा नहीं होता, कोई सहारा नहीं होता। यादों के भंवर में डूबते को केवल प्रतीक्षा होती थी, उस संदेशे की जिसे हम पाते थे। कभी लिफाफे में बंद, कभी अंतर्देशीय पत्र में तो कभी रजिस्ट्री में। पोस्ट कार्ड तो सागर की एक बूंद की तरह केवल लबों को गीला करता था, उसमें समाए भी तो कितना, एक तरफ से खाली और दूजी तरफ तो आधा पता लिखने में आ जाता।

हालांकि अंतर्देशीय पत्र भी कुछ बड़ा नहीं होता था, पर उस माटी की खुशबू जरूर उसमें समा जाती थी, जहां से वह चल कर आता था, लिफाफा हालांकि उम्मीद से भरा होता कि इसमें एक से ज्यादा पन्नों पर मन के भावों को उकेर कर भेजा गया होगा। कभी-कभी लिफाफे, पत्र किसी महकती खुशबू से सरोबार भी होते थे, जो पढ़ने से पहले ही खुशनुमा माहौल बना देते थे। जो कहा गया और जो नहीं कहा गया वह सब इनमें बंद होता था। तब भी किसी डाकिए ने इन्हें नहीं खोला और न ही पढ़ा। हां, कभी उसकी आंखों की चमक और हंसी जाहिर करती थी कि वह जानता है, इन बहारों में कौन-सा फूल खिला है, जो उसका खुशबू से महकते लिफाफे से कयास होता था।

अब इस दौर में जब पोस्ट कार्ड, अंतर्देशीय पत्र, लिफाफे केवल अभिशप्त होकर कराह सकते हैं, तब उनके होने न होने का कोई मतलब नहीं रह जाता। काश, डाकिए की अहमियत आज की पीढ़ी समझ पाती। मोबाइल फोन, एसएमएस, कूरियर और अंतर्जाल ने संदेशों का आदान-प्रदान तो आसान कर दिया, मगर प्रतीक्षा और रोमांच का वह क्षण छीन लिया, जिसका कभी लोग उत्कंठा से प्रतीक्षा किया करते थे। संवेदना शून्य होते जा रहे समाज में अब डाकिए पत्र नहीं बांटते, बल्कि लुप्त होती प्रजाति के रूप में गिने जाते हैं।


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