उनका पहला सवाल था कि गलाकाट प्रतियोगिता के इस जमाने में खुद को स्थापित कैसे किया जाए, और कैसे खुश रहा जाए? उनका दूसरा सवाल था कि रिश्तों में मजबूती कैसे लाएं, मधुरता कैसे लाएं और तीसरा सवाल था कि हम खुशी से आनंद और आनंद से परमानंद की ओर कैसे जाएं? आज के संदर्भ में यह एक महत्त्वपूर्ण सवाल है कि गलाकाट प्रतियोगिता का सामना कैसे किया जाए, कैसे अपनी पहचान बनाई जाए और इस प्रतियोगिता के बावजूद खुश कैसे रहा जाए? मेरा जवाब था कि प्रतियोगिता अच्छी बात है, लेकिन प्रतियोगिता किसी दूसरे से नहीं, बल्कि खुद से होनी चाहिए। हम सब में कुछ न कुछ खूबियां हैं और कुछ कमियां भी हैं, कुछ कमज़ोरियां भी हैं। हम अपनी कमियों को समझें, कमज़ोरियों को समझें और उन्हें दूर करने की कोशिश करें। मान लीजिए मुझमें दस कमियां हैं जो मुझे पता हैं तो मुझे पहले कोई एक कमी चुननी चाहिए, उस पर थोड़ा-थोड़ा काम करना चाहिए, धीरे-धीरे उससे छुटकारा पाना चाहिए, हर रोज़ बस एक प्रतिशत, एक प्रतिशत का बदलाव हर रोज़, बस।
युद्ध नहीं छेड़ना है, प्यार से, धीरे-धीरे उस कमी को दूर करना है। वज़न कम करना हो तो पहले महीने एक किलो भी कम हो जाए तो बहुत बढि़या है। ये नहीं होना चाहिए कि जिम जाना शुरू कर दिया, जॉगिंग शुरू कर दी, डाइट बदल दी और दो हफ्ते बाद तंग आ गए तो फिर से पिज़ा और बर्गर खाकर कोक पी लिया। युद्ध नहीं करना है, बस एक प्रतिशत का बदलाव लाना है हर रोज़। इससे समस्या हल हो जाएगी। समय लगेगा, मेहनत लगेगी, पर समस्या हल हो जाएगी। ऐसा करेंगे तो किसी और से प्रतियोगिता की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। इसी सवाल के दूसरे भाग, यानी प्रतियोगिता के बावजूद खुश कैसे रहा जाए, के जवाब में मैंने कहा कि ऐटीट्यूड ऑव ग्रैटीट्यूड, यानी कृतज्ञता का दृष्टिकोण ही सारी समस्याओं का हल है। जब हम यह देखते हैं कि हमारे पास कितना कुछ है, तो हमारा फोकस बदल जाता है और मन कृतज्ञता से भर जाता है। तब किसी अन्य से तुलना की आवश्यकता नहीं रह जाती, किसी अन्य से ईर्ष्या की भावना नहीं जगती और खुशियों का झरना अनायास ही फूट पड़ता है। रिश्तों में मजबूती लाने और मधुरता लाने के लिए यह समझना आवश्यक है कि लोग सिर्फ सोचते ही नहीं हैं, उनमें भावनाएं भी हैं।
विचारों और भावनाओं का यह खेल ही हमारा जीवन बनाता है। हम लोगों के विचारों को ही न सुनें, उनकी भावनाओं को भी समझें। मेरा सदाबहार मंत्र 'सिर पर बर्फ, मुंह में चीनी' का आशय ही यही है कि हम हमेशा कुछ कहने के लिए ही आतुर न हों बल्कि सहने की क्षमता भी रखें। सामने वाले की किसी बात पर फट पड़ने के बजाय, कुछ सुना देने के बजाय हम अगर रुक जाएं, सामने वाले के शब्दों से आगे जाकर उनकी भावना को समझें, उनका आशय जानें तो अक्सर हमारे विचार बदल जाते हैं, या शायद शुद्ध हो जाते हैं, गिला खत्म हो जाता है और हमारी वाणी में अनायास ही मिठास आ जाती है। हमें याद रखना चाहिए कि हमारा व्यक्तित्व हमारी शक्ल-सूरत ही नहीं है, हमारी ड्रेस-सेंस ही नहीं है, हमारा ज्ञान ही नहीं है, बल्कि हमारा व्यवहार भी है, दूसरों की सहायता करने की हमारी इच्छा भी है, किसी के काम आने की हमारी कोशिश भी है। हमारा व्यक्तित्व वह है, जब हम न हों और कोई हमारा जि़क्र करे। वह जि़क्र जिस तरह से होगा, उससे हमारा व्यक्तित्व परिभाषित होता है। डा. अनुराग बत्रा का तीसरा सवाल कि हम खुशी (हैपीनेस) से आनंद (ज्वाय) और आनंद से परमानंद (ब्लिस) की ओर कैसे बढ़ें, के जवाब में मैंने कहा कि पैसा कमाना जीवन के लक्ष्यों में से एक होना चाहिए, शिक्षित होना और सफलता पाना, नाम कमाना एक लक्ष्य होना चाहिए, होना ही चाहिए पर यह सब कुछ नहीं है। अगर मुझे अभी कोई डॉक्टर बता दे कि मेरा जीवन कुछ दिनों का बचा है तो मेरा नज़रिया एकदम से बदल जाएगा। हमें समझना चाहिए कि जीवन के बहुत से सत्य सचमुच विरोधाभासी हैं। पैसा इस विरोधाभास का सबसे बढि़या उदाहरण है। पैसा जीवन में बहुत कुछ है, पर सब कुछ नहीं है।
पैसे की कीमत बहुत है, पर जीवन का अंत होने वाला है तो पैसा एकदम अर्थहीन है। जीवन के अंत के समय में पैसे का महत्त्व कुछ भी नहीं होता, शून्य हो जाता है। मृत्यु एक शाश्वत सत्य है और यह एक ऐसी दीवार है जिसके पार कुछ नहीं जा सकता, वहां धन की महत्ता समाप्त हो जाती है। यह सच हमें जितनी जल्दी समझ आ जाए उतना ही अच्छा। यह सच, सच होने के बावजूद हमारे लिए सिर्फ एक थ्योरी है, एक सिद्धांत मात्र है जो हमारे जीवन में नहीं उतरा। यह ऐसा सच है जिसे हम सच नहीं मानते, तब तक जब तक हमारा खुद का अंत समय ही न आ जाए। हम अपने मित्रों में, परिचितों में, रिश्तेदारों में और खुद के परिवार में मृत्यु की घटनाओं को देखते हैं और उसके बावजूद मानते हैं कि हम अभी जि़ंदा रहेंगे। हम नहीं मानते कि हो सकता है कि हमें अगला सांस भी न आए। मृत्यु सच होते हुए भी हमारे लिए सच नहीं है। लेकिन अगर यह सच समझ में आ जाए तो फिर हमारा जीवन हमेशा के लिए बदल जाता है और परिणाम यह होता है कि रंजिशें, दुश्मनियां, प्रतियोगिताएं, ईर्ष्या, गिला, गुस्सा आदि सब खत्म हो जाते हैं। सार यह है कि जब खुश रहना हमारी आदत बन जाए तो वह पहला चरण है, वह हैपीनेस है। जब हम दूसरों की खुशी की वजह बन जाते हैं तो वह आनंद है, ज्वाय है, वह दूसरा चरण है और जब हम यह समझ लेते हैं कि धन का महत्त्व एक सीमा तक ही है और सारी दूषित भावनाओं से मुक्त हो जाते हैं तो हम परमानंद की स्थिति पा लेते हैं। वह ब्लिस है। खुशियों का मूल मंत्र बस इतना-सा ही है।
पी. के. खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
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