माखनलाल चतुर्वेदी: देशद्रोह के आरोप में जेल गए, मुख्यमंत्री की कुर्सी ठुकराई, पद्मभूषण लौटाया और लिखी- पुष्प की अभिलाषा...

आज तीस जनवरी है. महात्‍मा गांधी का शहीदी दिवस. यही दिन ‘एक भारतीय आत्‍मा’ के नाम से प्रसिद्ध भावधरा के कवि, निर्भिक पत्रकार, स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी राष्‍ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी की पुण्‍यतिथि भी है

Update: 2022-01-30 12:40 GMT

आज तीस जनवरी है. महात्‍मा गांधी का शहीदी दिवस. यही दिन 'एक भारतीय आत्‍मा' के नाम से प्रसिद्ध भावधरा के कवि, निर्भिक पत्रकार, स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी राष्‍ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी की पुण्‍यतिथि भी है. ऐसे मनीषी जिसने साहित्‍य साधना के लिए मुख्‍यमंत्री का पद भी नकारा और हिंदी को लेकर सरकार के रवैये का विरोध करते हुए पद्मविभूषण भी. दादा माखनलाल चतुर्वेदी का उल्‍लेख करते ही हमें उनकी ख्‍याल कविता 'पुष्‍प की अभिलाषा' याद आती है. राष्ट्र प्रेम के साहित्‍य को भारी-भरकम शब्दावली से मुक्‍त करवा कर उसे सहज रूप से जनता तक पहुंचाने का श्रेय दादा माखनलाल चतुर्वेदी को जाता है. उनकी रचनाओं में जितना राष्‍ट्र प्रेम मुखरित हैं उतनी ही पर्यावरण चेतना भी. जो खुद कभी ईमान से डिगे, जिन्‍होंने अपने आचरण से हमेशा संघर्ष की सीख दी उनकी रचनाओं में प्रकृति के सहारे जीवन उन्‍नत बनाने की प्रेरणा बारम्‍बार रेखांकित होती है. आकाश, धरा, पुष्‍प, कांटें, मास, गंगा, बादल आदि प्रतीक जीवन सूत्र के रूप में मौजूद हैं. इन कविताओं से गुजरना प्रकृति की गोद में विचरण करते हुए अपनी मन की उलझनों के तालों की चाबी पाने जैसा है. एक-एक कविता पढ़ते जाइये और अपने लिए एक खास तरह का प्राकृतिक संदेश पाते जाइये.

क्‍या आज यह दोहराने की आवश्‍यकता है कि दादा माखनलाल चतुर्वेदी देश के महान राष्ट्र कवियों में से एक हैं जिन्‍होंने अपना सर्वस्व त्याग कर देश सेवा का पथ चुना था? हमारी पीढ़ी तो अपने स्‍कूल की किताबों में पुष्‍प की अभिलाषा पढ़ कर ही बढ़ी हुई है. दादा का नाम साहित्‍य के क्षेत्र में जितने आदर से लिया जाता है पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उतने की सम्‍मान से संबोधित किया जाता है. आज भी पत्रकारित की बालवाड़ी में उनके 'कर्मवीर' को संविधान की तरह देखा जाता है. सहज साहित्यकार एवं निर्भीक पत्रकार दादा माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल, 1889 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के बावई में हुआ था. 30 जनवरी 1968 को वे ब्रह्मलीन हुए. 79 वर्ष के जीवन का विस्‍तार इतना है कि दादा का हर कर्म क्षेत्र अपने आप में एक पूर्ण जीवन जितना योगदान रखता है. लगभग 16 वर्ष की आयु में ये आजीविका के लिए शिक्षण कार्य आरंभ किया लेकिन अंग्रेज सरकार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे क्रांतिकारियों के संपर्क में आने के बाद शिक्षण कार्य त्‍याग दिया. तत्कालीन क्रांतिकारियों एवं पत्रकारिता के पुरोधा माधवराव सप्रे से मुलाकात के बाद जीवन दिशा परिवर्तित हुई.
दादा के पत्रकारिय जीवन का आरंभ 1913 में हुआ जब उन्‍होंने 'प्रभा' नामक पत्रिका का संपादन आरंभ किया. इसी दौरान उनकी मुलाकात गणेशशंकर विद्यार्थी, माधवराव सप्रे, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी इत्यादि से हुई. माधवराव सप्रे ने कवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके दादा माखनलाल चतुर्वेदी के जीवन में देशभक्ति के भावों को मुखर किया. सप्रे जी ही बाद में दादा के राजनीतिक गुरु भी बने. सप्रे जी के प्रधान संपादन में जबलपुर से प्रकाशित होने वाले अखबार 'कर्मवीर' से 1920 में दादा आ जुड़े. तथ्‍य है कि 'कर्मवीर' नाम भी दादा माखनलाल ने ही सुझाया था. दादा को अपनी निर्भीक पत्रकारिता के कारण 'राजद्रोह' के मुकदमे में जेल भी जाना पड़ा, लेकिन पत्रकारिता का पैनापन कभी खत्‍म न हुआ. अंदाज ऐसा कि 15 से ज्यादा रियासतों ने 'कर्मवीर' पर पाबंदियां लगा दी मगर पत्रकारिता की धार वैसी ही बनी रही. जब अंग्रेज सरकार ने गणेशशंकर विद्यार्थी को गिरफ्तार कर लिया तो विद्यार्थी जी के समाचार पत्र 'प्रताप' को कुछ समय तक दादा माखनलाल ने संभाला.
दादा माखनलाल की साहित्‍य यात्रा का उल्‍लेख करते हैं तो 'हिम किरीटिनी', 'हिमतरंगिणी', 'समर्पण', 'युग चरण' 'मरण ज्वार' (कविता-संग्रह), 'कृष्णार्जुन युद्ध', 'साहित्य के देवता', 'समय के पांव (गद्य रचना) जैसे नाम याद आते हैं. 'हिम किरीटिनी' के लिए 'देव पुरस्कार' तो 'हिमतरंगिणी' के लिए दादा माखनलाल को 'साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
1963 में भारत सरकार ने दादा को 'पद्मभूषण' से अलंकृत किया. जब 1967 में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की प्रक्रिया के दौरान विधेयक पारित किया गया तो इसके विरोध में उन्‍होंने 'पद्मभूषण' सम्मान लौटा दिया था. इसके पहले आजादी के बाद जब 1 नवंबर 1956 को मध्य प्रदेश का गठन हुआ तो पहले मुख्‍यमंत्री के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी, रविशंकर शुक्ल और द्वारका प्रसाद मिश्र के नाम सुझाए गए. तब दादा ने यह कहते हुए पद ठुकरा दिया था कि मैं पहले से ही शिक्षक और साहित्यकार होने के नाते 'देवगुरु' के आसन पर बैठा हूं. तुम लोग मुझे 'देवराज' के पद पर बैठना चाहते हो. यह पदावनति है जो मुझे सर्वथा अस्वीकार्य है.
अपने कर्म और आचरण से ऐसे संदेश देने वाले दादा माखनलाल की रचनाओं में भी खास तरह का संदेश है. राष्‍ट्रप्रेम से ओतप्रोत इस संदेश की मुख्‍यधारा में प्रकृति प्रेरणा एक अंतर्धारा के रूप में उपस्थित है. 'पुष्‍प की अभिलाषा' में जो संदेश मिला है उसे प्रेरणा बना कर आगे साहित्‍यकारों में कई तरह की अभिलाषा को व्‍यक्‍त करती रचनाएं लिखी हैं.
जैसे यह रचना :
ये अनाज की पूलें तेरे काँधें झूलें
तेरा चौड़ा छाता
रे जन-गण के भ्राता
शिशिर, ग्रीष्म, वर्षा से लड़तेभू-स्वामी, निर्माता !
कीच, धूल, गन्दगी बदन पर
लेकर ओ मेहनतकश!
ये उगी बिन उगी फ़सलें
तेरी प्राण कहानी
हर रोटी ने, रक्त बूँद ने
तेरी छवि पहचानी !
यह शासन, यह कला, तपस्य
तुझे कभी मत भूलें.
किसान के परिश्रम और उनके योगदान को न भूलने का संदेश देती इस रचना का सरल अंदाज पाठकों को प्रभावित करता है. 'ये वृक्षों में उगे परिन्दे' में पुष्‍प के प्रतीक के सहारे वे लिखते हैं –
ये वृक्षों में उगे परिन्दे
पंखुड़ि-पंखुड़ि पंख लिये
अग जग में अपनी सुगन्धित का
दूर-पास विस्तार किये.
हो कल्याण गगन पर-
मन पर हो, मधुवाही गन्ध
हरी-हरी ऊँचे उठने की
बढ़ती रहे सुगन्ध!
पर ज़मीन पर पैर रहेंगे
प्राप्ति रहेगी भू पर
ऊपर होगी कीर्ति-कलापिनि
मूर्त्ति रहेगी भू पर.
'फुंकरण कर रे, समय के साँप' कविता भी बार-बार पढ़े जाने को ललचाती है. अहा, कितना बड़ा संदेश कितने प्रभावी अंदाज में! दादा लिखते हैं –
क्या हुआ, हिम के शिखर, ऊँचे हुए, ऊँचे उठ
चमकते हैं, बस, चमक है अमर, कैसे दिन कटे!
और नीचे देखती है अलकनन्दा देख
उस हरित अभिमान की, अभिमानिनी स्मृति-रेख.
डग बढ़ाकर, मग बनाकर, यह तरल सन्देश
ऊगती हरितावली पर, प्राणमय लिख लेख!
दौड़ती पतिता बनी, उत्थान का कर त्याग
छूट भागा जा रहा उन्मत्त से अनुराग !
मैं बनाऊँ पुण्य मीठा पाप
फुंकरण कर रे, समय के साँप
शिखर की ओर तकने वाले, शिखर की ओर बढ़ने वाले, ऊंचाई के लिए स्‍वयं को गिरा देने वाले इस समय में 'गंगा की विदाई' में निराली प्रेरणा उद्घाटित होती है.
शिखर शिखारियों मे मत रोको,
तुम ऊंचे उठते हो रह रह
यह नीचे को दौड़ जाती,
तुम देवो से बतयाते यह,
भू से मिलने को अकुलाती,
रजत मुकुट तुम मुकुट धारण करते,
इसकी धारा, सब कुछ बहता,
तुम हो मौन विराट, क्षिप्र यह,
इसका बाद रवानी कहता,
तुमसे लिपट, लाज से सिमटी, लज्जा विनत निहाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |
यह हिमगिरि की जटाशंकरी,
यह खेतीहर की महारानी,
यह भक्तों की अभय देवता,
यह तो जन जीवन का पानी !
इसकी लहरों से गर्वित 'भू'
ओढे नई चुनरिया धानी,
देख रही अनगिनत आज यह,
नौकाओ की आनी-जानी,
इसका तट-धन लिए तरानियाँ, गिरा उठाये पाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |
और बादलों को बहाने से दादा ने क्‍या कहा, यह पढ़ लेंने तो शायद समझ आ जाए कि कहां आवश्‍यकता हैं वहां होना हमारे जीवन की सार्थकता है.
बदरिया थम-थनकर झर री
सागर पर मत भरे अभागन
गागर को भर री.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

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