गिरफ्तारी की हदें
सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर आगाह किया है कि गिरफ्तारी को एक रूटीन कार्रवाई का रूप नहीं देना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर आगाह किया है कि गिरफ्तारी को एक रूटीन कार्रवाई का रूप नहीं देना चाहिए। इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी से उसकी प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान को जबर्दस्त चोट पहुंचती है। कोर्ट ने कहा कि पुलिस किसी को गिरफ्तार कर सकती है, उसके पास इसका कानूनी अधिकार है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि उसे हर आरोपी को गिरफ्तार कर ही लेना है।
कानून के तहत एक अधिकार होना और उस अधिकार का विवेकपूर्ण इस्तेमाल करना, दोनों दो बातें हैं और इनके बीच का अंतर स्पष्ट होना चाहिए। हालांकि इस बारे में सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस काफी पहले से मौजूद हैं। लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा का भी तकाजा है कि गिरफ्तारी को नियम न बना दिया जाए, उसे अपवाद के ही रूप में रहने दिया जाए। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट के पास ऐसे मामले बड़ी संख्या में आते रहते हैं, जिनमें आरोपी के जांच में पूरा सहयोग देने पर भी आरोपपत्र दायर करते समय उसे गिरफ्तार किया जाता है क्योंकि निचली अदालतों का आग्रह होता है कि अगर आरोपी को गिरफ्तार कर उनके सामने पेश नहीं किया जाएगा तो आरोपपत्र रेकॉर्ड पर नहीं लिया ज
हालांकि हाईकोर्ट के भी ऐसे कई फैसले हैं, जिनमें स्पष्ट किया गया है कि इस आधार पर आरोपपत्र स्वीकार करने से इनकार नहीं किया जा सकता कि आरोपी को गिरफ्तार नहीं किया गया है। सुप्रीम कोर्ट के सामने मौजूदा मामला भी ऐसा ही था। कोर्ट ने इस स्थिति पर अफसोस जरूर जताया, लेकिन फिर भी अपनी तरफ से यह स्पष्ट कर देना जरूरी समझा कि अगर जांच अधिकारी समझता है कि आरोपी सहयोग कर रहा है और उसके फरार होने की कोई आशंका नहीं है तो उसे आरोपी को गिरफ्तार करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने पहले से स्थापित इस धारणा को दोहराते हुए और मजबूती दे दी कि किसी मामले में गिरफ्तारी की ठोस वजहें होनी चाहिए। या तो अपराध बेहद गंभीर प्रकृति का हो या हिरासत में पूछताछ जरूरी हो जाए या फिर गवाहों को प्रभावित करने या आरोपी के फरार हो जाने की आशंका हो।
जाहिर है, ऐसा कुछ न होने पर किसी आरोपी को गिरफ्तार करने की प्रवृत्ति उचित नहीं कही जा सकती। किसी भी वजह से ऐसा संकेत नहीं जाना चाहिए कि जांच एजेंसियों की दिलचस्पी आरोपी को गिरफ्तार करने और न्याय प्रक्रिया के बहाने अधिक से अधिक समय तक जेल में डालने में है। इससे जांच प्रक्रिया ही अपने आप में एक सजा बन जाती है जिसका सबसे ज्यादा नुकसान इंसाफ को होता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट का यह सामयिक दिशानिर्देश केवल पुलिस और निचली अदालतों को ही नहीं बल्कि तमाम जांच एजेंसियों को अपने आचरण की समीक्षा करने की प्रेरणा देगा।