कांग्रेस का जीवन

यह जगजाहिर है कि राष्ट्रीय राजनीति में पिछले कुछ सालों से कांग्रेस मुश्किल स्थिति से गुजर रही है। फिलहाल हालत यह है कि अगर किसी चुनाव क्षेत्र में कांग्रेस को जीत या उत्साहजनक नतीजे मिलते हैं, तो उसे पार्टी के लिए विशेष महत्त्व का माना जाने लगा है।

Update: 2022-04-22 05:35 GMT

Written by जनसत्ता: यह जगजाहिर है कि राष्ट्रीय राजनीति में पिछले कुछ सालों से कांग्रेस मुश्किल स्थिति से गुजर रही है। फिलहाल हालत यह है कि अगर किसी चुनाव क्षेत्र में कांग्रेस को जीत या उत्साहजनक नतीजे मिलते हैं, तो उसे पार्टी के लिए विशेष महत्त्व का माना जाने लगा है। जबकि पार्टी के राजनीतिक इतिहास के लिहाज से देखें तो यह एक निराशाजनक तस्वीर है। हालांकि कांग्रेस आज भी देश की लोकतांत्रिक राजनीतिक के परिदृश्य में एक अहम स्थान रखती है और राष्ट्रीय स्तर पर इसकी मौजूदगी अब भी कायम है, लेकिन आम जनता में इसके प्रति समर्थन के स्तर में बड़ा फर्क आया है।

इस मसले पर पार्टी के भीतर अक्सर मंथन होता रहता है और इसके नेता आपस में विचार-विमर्श करते रहते हैं। यहां तक कि चुनावों में प्रदर्शन और राष्ट्रीय स्तर पर घटते दखल के बीच पार्टी के भीतर असंतुष्ट नेताओं का 'जी-23' नाम से एक समूह भी बन गया, जिसमें शामिल नेता कांग्रेस की भूमिका और शीर्ष नेतृत्व को लेकर अलग-अलग रुख रखते हैं। सवाल है कि अब तक राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण स्थिति में रही कांग्रेस आखिर किन वजहों से ऐसी हालत में पहुंच गई और उससे उबरने के लिए उसके पास क्या योजना है!

ऐसा लगता है कि कांग्रेस के भीतर इस मुश्किल पर विचार तो हो रहा है, मगर जमीनी स्तर पर पार्टी को फिर पहले की तरह सक्रिय करने और जीवन देने में कामयाबी नहीं मिल पा रही है। पार्टी की कोशिशें अब तक पारंपरिक राजनीतिक गतिविधियों के ढांचे में चल रही थीं, मगर कांग्रेस ने शायद नया प्रयोग करना तय किया है। इस सिलसिले में चुनावी रणनीतिकार के रूप में काम करने वाले प्रशांत किशोर की सोनिया गांधी सहित कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं से मुलाकात को अहम माना जा रहा है।

खबरों के मुताबिक सोनिया गांधी के आवास पर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व और अन्य नेताओं के सामने प्रशांत किशोर ने कांग्रेस में शामिल होने की इच्छा जताई और अगले लोकसभा चुनाव में रणनीति का खाका पेश किया है। इसके तहत उन्होंने फिलहाल कांग्रेस को करीब 370 लोकसभा सीटों पर ध्यान केंद्रित करने के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार और ओड़ीशा जैसे कुछ राज्यों में कांग्रेस को नए सिरे से अपनी रणनीति बनाने और गठबंधन करने से परहेज करने की सलाह दी। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में पार्टी को गठबंधन के तहत चुनावी मैदान में उतरना चाहिए।

सही है कि प्रशांत किशोर को चुनावों के लिए रणनीति बनाने वाले व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है और उन्होंने कई पार्टियों के लिए इस भूमिका में काम भी किया है। वे योजना और प्रबंधन के आधुनिक तौर-तरीकों की बात करते हैं और इसी मुताबिक चुनाव जीतने का भरोसा जताते हैं। लेकिन भारत में जनमत में जैसे उतार-चढ़ाव होते हैं, मतदान के ऐन पहले किसी अचानक गतिविधि की वजह से लोगों के बीच राय बदलने की प्रवृत्ति देखी जाती है, उसमें मतदाताओं के बीच जमीनी स्तर पर पकड़ और जनता के मिजाज की समझ रखने वाले नेता की भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।

फिर आज जनमत निर्माण में संचार के साधनों और संवाद स्थापित करने की जितनी बड़ी भूमिका हो चुकी है, उसमें खुद को मजबूत स्थिति में लाए बिना कोई भी पार्टी जनता के बीच अपनी उपस्थिति और स्वीकार्यता दर्ज नहीं कर सकती। ऐसे में देखने की बात यह होगी कि कांग्रेस अगर प्रशांत किशोर का सहयोग लेती है तो जमीनी स्तर पर जनता के बीच फिर से अपनी जगह बनाने के लिए वह कैसे खुद को सक्रिय करती है। चुनावी राजनीति में तकनीकी प्रबंधन का ठोस हासिल तभी संभव है, जब वह पार्टी को मिलने वाले वोट में तब्दील हो सके।


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