सभी पार्टियों के नेता हकीकतों से नजरें चुराते हैं, जबकि यह समय है सच्चाई की 'फाइलें' खोलने का
ओपिनियन
राजदीप सरदेसाई का कॉलम:
'कश्मीर फाइल्स' से बहुत पहले 'परजानिया बनी थी, जिसमें 2002 के दंगों में अपने नाबालिग बेटे को गंवा चुके पारसी परिवार की कहानी थी। अहमदाबाद में फिल्म की रिलीज से ठीक पहले उसके निर्देशक राहुल ढोलकिया को मल्टीप्लेक्स थिएटर एसोसिएशन ने 'बातचीत' के लिए बुलाया। उनसे कहा गया कि उनकी राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म तभी दिखाई जा सकेगी, जब इसे स्थानीय बजरंग दल नेता बाबू बजरंगी द्वारा 'क्लीयरेंस' दिया जाएगा।
बजरंगी पर 2002 के दंगों में हिंसक भीड़ का नेतृत्व करने का आरोप था। तब ढोलकिया के पास इसके सिवा कोई विकल्प नहीं रह गया था कि फिल्म को प्रदर्शन से हटा लें। वास्तव में सभी पार्टियों के नेता इतिहास की उन हकीकतों से नजरें चुराना चाहते हैं, जो उन्हें असहज करती हैं। आप 1984 के सिख विरोधी दंगों पर फिल्म बनाएं और कांग्रेस आपत्ति करेगी।
राजनीतिक हिंसाओं पर केंद्रित 'बंगाल फाइल्स' नामक कोई फिल्म पश्चिम बंगाल में शायद ही दिखलाई जा सके। केरल की वाम मोर्चा सरकार यकीनन कन्नूर हिंसा पर केंद्रित 'केरल फाइल्स' को रुकवा देगी। और 2002 के दंगों पर केंद्रित कोई 'गुजरात फाइल्स' भाजपा के राज में रिलीज नहीं हो सकती। हमारे देश का इतिहास ऐसी फिल्मों से भरा है, जिन्हें सेंसर या बैन किया गया है।
लेकिन 'कश्मीर फाइल्स' इन मायनों में सबसे अलग है कि निजी संसाधनों से बनाई गई एक फिल्म को सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी के द्वारा खुलकर प्रचारित किया जा रहा है। फिल्म को मनोरंजन कर से मुक्त करने से लेकर सब्सिडाइज्ड दरों पर थिएटरों की बुकिंग करने और सरकारी कर्मचारियों को फिल्म देखने के लिए एक दिन की छुट्टी देने तक- हाल-फिलहाल के वर्षों में याद नहीं आता कि किसी राजनीतिक नेतृत्व ने इस तरह नि:संकोच व्यावसायिक सिनेमा का इस्तेमाल लामबंदी के लिए किया हो।
स्टेट प्रोपगेंडा और सिनेमाई नैरेटिव की सीमारेखाएं धुंधला गई हैं। लेकिन यह अप्रत्याशित नहीं। आखिरकार फिल्म का कथानक उस बहुसंख्यकवादी विचारधारा के अनुरूप है, जिसमें मुस्लिमों को 'शत्रु' के रूप में देखा जाता है। कश्मीरी पंडितों की हत्याओं और उनके पलायन को 'शांतिपूर्ण' हिंदू बनाम 'बर्बरतापूर्ण' इस्लाम की स्याह-सफेद तस्वीर की तरह सामने रखा जाता है। जबकि कश्मीरी हिंदुओं की हत्याएं पाकिस्तान-प्रयोजित आतंकी समूहों ने की थीं।
उन छवियों को नए भारत के सामने फिर सजीव करना इस्लामोफोबिया से पहले ही अतिशय ग्रस्त हो चुकी नफरत की राजनीति को बढ़ावा देना होगा। कश्मीरी पंडितों के लिए इस तरह की फिल्म एक भावमुक्ति की तरह है, इससे उन्हें एक व्यापक दर्शक-वर्ग को अपनी दु:खमय कहानी सुनाने का अवसर मिला है। वैसे भी राष्ट्रीय मुख्यधारा से कश्मीरी मुस्लिमों के अप्रासंगिक हो जाने पर जितना ध्यान दिया गया है, उतना कश्मीरी हिंदुओं पर नहीं दिया गया है।
इन मायनों में कश्मीरी पंडितों के परिवार को इस बात से आक्रोशित होने का पूरा अधिकार है कि लेफ्ट-लिबरल बौद्धिकों के द्वारा उन पर पर्याप्त बातें नहीं की गईं। लेकिन कोई फिल्म अगर पीड़ितों के लिए मरहम साबित हो सकती है, वहीं क्या वह सच में कोई वास्तविक बदलाव ला सकती है या न्याय कर सकती है? कश्मीर के रक्तरंजित इतिहास को किसी एकतरफा सियासी रंगमंच तक सीमित नहीं किया जा सकता, जिसमें समुचित संदर्भ, प्रसंग व परिप्रेक्ष्य न हों।
ऐसा कैसे सम्भव है कि आप कश्मीर के बारे में बात करें और दिल्ली-श्रीनगर की दुरभिसंधियों, चुनावी धांधलियों, राज्यसत्ता की क्रूरताओं, स्वायत्तता की ऐतिहासिक मांगों की उपेक्षा कर दें? बीते तीन दशकों में अनेक सरकारें केंद्र में रहीं, लेकिन कोई भी कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास नहीं करा पाई, न ही दोषियों को दंडित करवा पाई। 1990 में चार वायुसेना अधिकारियों की हत्या के मामले में यासीन मलिक पर 2020 में जाकर आरोप दर्ज किए गए, जबकि दिल्ली में बैठी सरकारें तो मलिक को कश्मीर मामलों की संवाद-प्रक्रिया में साझेदार की तरह देखती रही थीं।
फिल्म कश्मीर फाइल्स अनेक खतरनाक अर्धसत्यों को सामने रखती है। जबकि सच्चाई यह है कि केवल कश्मीरी पंडित ही नहीं, कश्मीरी मुस्लिम भी आतंक और प्रतिहिंसा के दुष्चक्र में फंसकर अपने सैकड़ों परिजनों को गंवा चुके हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)