एक अग्रणी न्यूज़ चैनल के खेल रिपोर्टर से बात हो रही थी, तो सूत्र की बाबत सवाल करने पर उसने झट से कहा, "फलां अख़बार में सूत्र से छपा है, हमने भी चिपका दिया..." ऐसे में ख़बर इस सूत्र से उस सूत्र, उस सूत्र से एक और चैनल, एक और अख़बार और फिर किसी आग की लपटों की तरह बिल्डिंगों से ऊपर निकल जाती है, और सूत्र इसी में जलकर भस्म हो जाते हैं. इसके बावजूद, सूत्र हमेशा ज़िन्दा रहेंगे. फिर चाहे वे वास्तविक हों या काल्पनिक, क्योंकि इनके बिना 'पत्रकारिता जीवन' नहीं ही चलेगा. वैसे, विराट ने इन सूत्रों की ख़बर पर प्रतिक्रिया नहीं दी. कोहली ने 'बॉस' के बयान पर पलटवार किया है, लेकिन इसे भी वह बेहतर तरीके से नियंत्रित कर सकते थे, और यही बात गांगुली पर भी लागू होती है
सवाल यह है कि बुद्धिजीवी, विराट या इस स्तर का कोई भी शख्स BCCIकी सालों से चली आ रही परम्परा (व्हाइट-बॉल फॉरमैट में एक ही कप्तान) को कैसे भूल सकते हैं या नजरअंदाज़ कर सकते हैं? क्या वह किसी मुगालते में थे? क्या वह अपने बड़े कद के आगे पुरानी परम्परा को बदलने की उम्मीद कर रहे थे? जब विराट ने पिछले दिनों टी-20 विश्वकप से पहले ही प्रतियोगिता के बाद इस फॉरमैट की कप्तानी छोड़ने का ऐलान कर दिया था, तो क्या वह 'दीवार पर साफ-साफ लिखा' (परम्परा को देखते हुए) नहीं पढ़ सके थे कि अब उन्हें जाना ही होगा और वन-डे कप्तानी से उनका जाना या कभी भी चले जाना महज़ औपचारिकता रह गया है? क्या विराट को यह दिखाई नहीं दिया, या उन्होंने जानते-बूझते इसकी अनदेखी की? ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता कि 'दीवार पर साफ-साफ लिखा' जो वाक्य तमाम पूर्व दिग्गजों और देश की मीडिया को दिख रहा था, वह उन्हें नहीं दिख रहा था.
कहीं विराट की वन-डे की कप्तानी न छोड़ने की ज़िद इसलिए तो बरकरार नहीं थी कि ऐसा होने पर उनकी सालाना कमाई और ब्रांड वैल्यू पर असर पड़ता? क्या विराट ने एक तरह से BCCI को चैलेंज नहीं दिया था कि या वह उनके लिए व्हाइट-बॉल में एक कप्तान की परम्परा को बदल दे, या उन्हें हटाकर दिखाए? क्या विराट यह नहीं जानते थे? शर्तिया जानते थे, क्योंकि निश्चित ही विराट '90 के दशक के मोहम्मद अज़हरुद्दीन कतई नहीं हैं, जो पत्रकारों के 'उत्तर' के बारे में सवाल पूछने पर 'दक्षिण' के बारे में जवाब देकर भी, कंधे उचकाते हुए "यू नो, यू नो" कहकर निकल जाएं.
वास्तव में विराट ने मुगालते में / गलत ज़िद के तहत / समय पर फैसला न लेकर BCCI को एकदम सही फैसला (व्हाइट-बॉल में एक ही कप्तान) लेने के लिए बाध्य कर दिया. BCCI ने सालों की परम्परा को बरकरार रखा, और जब बोर्ड ने फैसला लिया, तो विराट के घर एकदम सन्नाटा पसर गया. विराट को BCCI का फैसला हज़म नहीं हुआ कि बोर्ड आखिरकार उनके खिलाफ ऐसा फैसला कैसे ले सकता है. आखिर कैसे? वह तो विराट कोहली हैं! कोहली ने खुद को प्रेस कॉन्फ्रेंस में इतने साफ / उम्दा तरीके से पेश किया, मानो उनका बिल्कुल भी दोष नहीं है. लेकिन ऐसा नहीं है? क्या वास्तव में है? सब कुछ साफ-साफ दिख तो रहा था... और फिर अगर सेलेक्टरों ने विराट को मीटिंग खत्म होने से 15 मिनट पहले (मान लो) ही उन्हें वन-डे कप्तानी से हटाने की सूचना दी, तो गलत क्या था
गलत तो तब होता, जब उन्हें पहले इसका इशारा नहीं दिया गया होता. सच यही है कि इसकी खिचड़ी काफी लंबे समय से भीतर ही भीतर पक (कुछ खिलाड़ियों का शिकायत करना, बोर्ड के एक धड़े का रोहित शर्मा को कप्तान बनाने पर ज़ोर देना, वगैरह) रही थी. कहीं विराट खुद ही तो यह मान नहीं बैठे (सूत्रों के अनुसार ऐसा ही है) थे कि वह 2023 तक वन-डे कप्तान बने रहेंगे? अगर वह मान बैठे थे, तो सवाल यह है कि वह ऐसा कैसे सोच या मान सकते हैं? BCCI उनकी गलत ज़िद या बात को कैसे मानकर इसका असर टीम पर और भविष्य पर पड़ने का जोखिम ले सकता है? कौन कप्तान होगा, कौन नहीं, इसका विशेषाधिकार पांच-सदस्यीय राष्ट्रीय चयन समिति को ही है. या फिर विराट 15 मिनट पहले बताने की जगह खुद को फूलमालाएं पहनाकर विदाई दिए जाने की उम्मीद कर रहे थे.
इस सवाल का जवाब तो वही जानें कि गांगुली ने निजी तौर पर विराट ने टी-20 की कप्तानी नहीं छोड़ने का अनुरोध किया था या नहीं, लेकिन BCCI का उन्हें वन-डे की कप्तानी से हटाने का फैसला परम्परा के लिहाज़ से, ज़्यादा दिक्कतों से बचने के लिहाज़ से कतई सही था. लेकिन गलती सिर्फ यही हो गई कि जिस गेंद का सामना चीफ सेलेक्टर चेतन शर्मा को करना था, उसे अध्यक्ष गांगुली ने खेलना (मीडिया में बयान) पसंद किया. और ज़रूरत इसकी भी नहीं थी, क्योंकि यह बात मीडिया में आनी ही नहीं चाहिए थी. और जब आई, तो बात इतनी ज़्यादा आगे निकल गई कि आज BCCI पदाधिकारी अपने अध्यक्ष के ऑफिस का सम्मान बचाने के लिए विशेषज्ञों से सलाह ले रहे हैं. काश! बोर्ड अधिकारी इस बाबत भी सलाह लेते कि बोर्ड अध्यक्ष को कब और कितना 'क्रीज़ से बाहर निकलना' चाहिए, क्योंकि जब कोई भी अध्यक्ष क्रीज़ से ज़्यादा बाहर निकलेगा, तो इस तरह की तस्वीरें सामने आती रहेंगी.
बात चाहे मैदान के भीतर की हो या बाहर की, सौरव को हमेशा कदमों का इस्तेमाल करते हुए लंबे-लंबे छक्के लगाना प्रिय रहा है. उन्हें यह बहुत ही भाता है और वह इसका लुत्फ उठाते हैं. उन्हें कैमरे पर दिखना और मीडिया की सुर्खियों में बने रहना भी बहुत पसंद है, लेकिन कई बार दादा 'क्रीज़' से बहुत ज़्यादा बाहर निकल जाते हैं! गुरु ग्रेग चैपल विवाद में भी सौरव क्रीज़ से बहुत ज़्यादा बाहर निकलकर 'गेंद' को उड़ाने की कोशिश में स्टंप हो गए थे! शायद ही भारतीय क्रिकेट इतिहास में कभी कोई कप्तान इतने अपमान और पीड़ा से गुज़रा हो, जिससे दादा गुज़रे! लेकिन BCCI का बॉस बनने के बाद भी ऐसा लगता है कि सौरव ने इतिहास से सबक नहीं लिया. सौरव अब भी ऐसा ही करते आ रहे हैं. यहां जस्टिस लोढा के संविधान और 'कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट' (हितों के टकराव) को छोड़ ही देते हैं. इससे इतर ऐसा लगता है कि ज़मीन से आसमान तक सब जगह सौरव ही हैं! ऐसा क्यों है कि BCCI के दफ्तर में गिलास टूटने से लेकर हर स्तर का बयान सौरव ही जारी करते हैं! क्या वजह है कि आज तक मीडिया को यह नहीं मालूम कि सचिव जय शाह की आवाज का टेक्सचर क्या है
याद नहीं आता कि भारतीय सेलेक्टरों ने आखिरी बार पत्रकारों की आंखों में आंखें डालकर कब सवाल लिए थे? ई-मेल संस्कृति ने पहले ही इस परम्परा को खासी चोट पहुंचाई है और कुछ बचा भी है, तो उसे जानते-बूझते खत्म किया जा रहा है. क्या करोड़ रुपये से ऊपर का सालाना वेतन पाने वाले चीफ सेलेक्टर इतने भी विवेकवान / रीढ़वान या भाषाविद नहीं हैं कि पत्रकारों के सवालों का सामना कर सकें? लगता तो नहीं कि उनके पास इसका टेम्परामेंट है. आम फैन्स को तो भूल जाइए, पत्रकारों को भी सेलेक्टरों के नामों को याद करने के लिए दिमाग पर खासा ज़ोर डालना पड़ता है.
ऐसा लगता है, सारी कमेटियां-उप-कमेटियां सिर्फ कागज़ों पर और दिखावे के लिए रह गई हैं. सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि सौरव गांगुली सारी गेंदें खुद ही खेलना चाहते हैं और 'बाकी बल्लेबाज़ों' को अधिकार होने के बावजूद स्ट्राइक नहीं देना चाहते. क्यों? क्यों वह BCCI अध्यक्ष होने के बावजूद चयन समिति की हर बैठक (लगभग) में शामिल रहते (परम्परा से उलट) हैं? क्या ऐसा नहीं है कि वह एकल व्यवस्था चलाना चाहते हैं? वास्तव में उदाहरण कई हैं. क्या इससे पहले BCCI अध्यक्ष नहीं थे? साफ दिख रहा है कि क्रिकेटर गांगुली के मुकाबले तब BCCI ज़्यादा पारदर्शी और डेमोक्रेटिक था, जब जस्टिस लोढा संविधान से पहले नेता चलाया करते थे, लेकिन एक क्रिकेटर के प्रशासनिक अधिकारी बनने के बावजूद हालात बदतर ही हुए हैं.
कुल मिलाकर, विराट-सौरव मामले में पैदा हुई दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से दो पदों का सम्मान दांव पर लग गया है. यहां व्यक्ति विशेष का सम्मान तो दांव पर है ही, इससे भी ऊपर BCCI, उसके अध्यक्ष और भारतीय कप्तान पद का सम्मान भी है. इस तरह इस स्तर की शख्सियतों का टकराव पहली बार दिखाई पड़ा है. और इसमें कोई हारे, कोई जीते, जगहंसाई भारतीय क्रिकेट की होगी. और पहले भी हो रही है. यहां समझदारी BCCI को ही दिखानी होगी. अधिकारी विशेषज्ञों से सलाह लेने में जुटे हैं. यह देखने की बात होगी कि इस मामले में बोर्ड अपना ही नहीं, विराट का सम्मान भी बचाते हुए इस प्रकरण पर कैसे मिट्टी डालता है, और कैसे सुनिश्चित करता है कि भविष्य में इस तरह के विवाद न हों. बोर्ड को सुनिश्चित करना होगा कि अंबाती रायुडू और अनिल कुंबले जैसे विवाद न हों. बोर्ड को सुनिश्चित करना होगा कि संन्यास के समय प्रेस कॉन्फ्रेंस में वी.वी.एस. लक्ष्मण जैसे दिग्गजों की आंखों में आंसू न हों वगैरह. वास्तव में BCCI को अपना 'वॉक एंड टॉक' एक नहीं, कई पहलुओं से बदलने की ज़रूरत है. आने वाले कुछ महीने काफी रुचिकर होने जा रहे हैं, TRP के लिहाज़ से