देश के बहुसंख्यक लोगों ने संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए को खत्म किए जाने पर खुशी का प्रदर्शन किया, लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि इस कदम से जम्मू कश्मीर के साथ भारत के संबंध पर कुल्हाड़ी चलाई गई है और इससे यह जम्मू कश्मीर के भारत में विलय पर ही सवालिया निशान लग गया है। इस अनुच्छेद पर जारी राजनीति के बीच सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर लगी है। शीर्ष अदालत की पांच जजों की पीठ इस मामले में दायर याचिकाओं पर फैसला सुनाने वाली है। इस मुद्दे पर दायर याचिकाओं में कई सवाल उठाए गए हैं। एक, जिनमें केंद्र सरकार के फैसले पर प्रश्न उठाए गए हैं। मसलन, जब जम्मू कश्मीर में संविधान सभा ही नहीं है तो फिर किसकी अनुमति से राज्य के संबंध में ये संवैधानिक बदलाव किए गए।
यह सवाल भी उठाया गया है कि क्या राज्यपाल राज्य के लोगों के अभिप्राय का प्रतिनिधित्व करता है। इसके अलावा यह प्रश्न भी उठा है कि क्या अनुच्छेद 370 का उपयोग अनुच्छेद 367 को संशोधित करने के लिए किया जा सकता है और फिर इसका इस संशोधित 367 का उपयोग अनुच्छेद 370 को अपने आप संशोधित करने के लिए किया जा सकता है। कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के 2018 के एक फैसले का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 370 स्थायी प्रकृति धारण कर चुका है।
इस पुस्तक की विशेषता इस बात में निहित है कि लेखक ने शैली और शब्दजाल एवं कानूनी बारीकियों का परित्याग करते हुए इसे साधारण और स्पष्ट भाषा में लिखा है, जिसकी वजह से इसका विषय आम आदमी की समझ के लिए और भी आसान हो गया है। लेखक ने किसी पक्ष की ओर झुके बगैर सभी पक्षों को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की है। केंद्रीय उत्पाद एवं सीमा शुल्क बोर्ड के चेयरमैन रहे सुमित दत्त मजूमदार ने यह पुस्तक अंग्रेजी में लिखी है, जिसका अनुवाद डी श्याम कुमार ने किया है। हालांकि पुस्तक के शीर्षक में `समझें सरल भाषा में` लिखा हुआ है लेकिन अनुवादक ने शब्दानुवाद के चक्कर में कई जगह पाठ को दुरूह कर दिया है। अंग्रेजी से हिंदी में अनुदित पुस्तकों को पढ़ने के अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि यह पुस्तक कोई अपवाद नहीं है।
लेखक ने पुस्तक के प्राक्कथन में ही स्वीकार किया है कि यह चुनौतीपूर्ण कार्य था क्योंकि यह विषय उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर था और काफी पेचीदा भी। इससे पहले वे कस्टम वैल्यूएशन ला एंड प्रैक्टिस और जीएसटी पर चार किताबें लिख चुके हैं। इसके बावजूद संविधान की बारीक समझ और कश्मीर मुद्दे पर चल रही बहस से अच्छी तरह परिचित होने के कारण वे इस कार्य को पूरा कर पाए। कहना न होगा कि यह लेखक की विनम्रता है। उन्होंने बहुत शानदार पुस्तक की रचना की है, जिसकी काफी जरूरत महसूस की जा रही थी क्योंकि आम पाठक के लिए विभिन्न स्रोतों से सामग्री जुटाकर पढ़ना और उसके आधार पर दृष्टिकोण बनाना कठिन कार्य है।