न्यायपालिका किसी निकाय या संस्था के प्रति जवाबदेह नहीं
प्रधान न्यायाधीश ने तर्कसंगत के साथ अतर्कसंगत विचारों को भी सम्मान देने की अपील की है। इसीलिए उनका ताजा वक्तव्य विश्लेषण योग्य हो गया है। उन्होंने न्यायपालिका की पूर्ण स्वतंत्रता की बात कही है। साथ ही स्पष्ट किया है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को विधायिका या कार्यपालिका द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। इससे विधि का शासन छलावा बनकर रह जाएगा। भारत में केवल आपातकाल का समय ही कार्यपालिका द्वारा न्यायपालिका के मानमर्दन का काल है। इसके पहले और इसके बाद का काल न्यायपालिका के आदर से भरापूरा है, लेकिन मूल कठिनाई जवाबदेही की है। संविधान सभा में मसौदे पर बहस चल रही थी। सरकार के स्थायित्व और जवाबदेही की बात चली। डॉ. आंबेडकर ने कहा कि 'हमने स्टेबिलिटी (स्थायित्व) के बजाय जवाबदेही (रिस्पांसबिलिटी) को महत्व दिया है।' निर्वाचित सदस्य जनता के प्रति जवाबदेह होते हैं। निर्वाचित कार्यपालिका विधायी सदनों के प्रति जवाबदेह हैं, पर न्यायपालिका किसी निकाय या संस्था के प्रति जवाबदेह नहीं। उसे भी अपने भीतर जवाबदेही की कोई न्यायिक संस्था का विकास क्यों नहीं करना चाहिए?
किसान आंदोलन: न्याय में विलंब अन्याय कहा जाता है
विधायन संसद और विधानमंडल का अधिकार है। किसान आंदोलन के दौरान एक नया कुतर्क सामने आया। संसद ने अपनी विधायी क्षमता से कृषि कानून बनाए। कुछ किसान संगठनों ने सरकार पर सलाह न लेने के आरोप लगाए। संविधान में विधि निर्माण के लिए आम जनता से परामर्श की कोई व्यवस्था नहीं है। आंदोलनकारियों से वार्ता के लिए कोर्ट ने समिति बनाई। समिति ने कोर्ट को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। काफी समय बीत गया है। कार्रवाई नहीं हुई। न्याय में विलंब अन्याय कहा जाता है। जजों की कम संख्या सहित अन्य अज्ञात कारणवश महत्वपूर्ण मुकदमों में लंबा समय लगता है। श्रीराम जन्मभूमि मामले में ही इलाहाबाद हाई कोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट को अंतिम फैसला देने में नौ वर्ष लगे।
शरद यादव का दल-बदल मामला कोर्ट में काफी समय से लंबित है
दल-बदल भारतीय राजनीति की निंदित प्रवृत्ति है। संविधान की दसवीं अनुसूची में दलपरिवर्तन के आधार पर निरर्हता के संबंध में उपबंध है। प्रश्नगत निरर्हता की सुनवाई का कार्य संविधान ने लोकसभा के अध्यक्ष, राज्यसभा के सभापति, विधानसभा, विधान परिषद के सभापति को सौंपा है। पहले ऐसे मुकदमों की सुनवाई समयबद्ध नहीं थी। बाद में कोर्ट ने अध्यक्षों-सभापतियों के लिए तीन माह में ही सुनवाई पूरी करने के निर्देश दिए। शरद यादव के दल-बदल मामले में राज्यसभा के सभापति ने तत्काल फैसला सुनाया, लेकिन कोर्ट में यह मामला काफी समय से लंबित है। सीएए सहित ऐसे ही अनेक महत्वपूर्ण मुकदमे लंबित हैं। भारत के लोग न्यायालयों के प्रति श्रद्धालु हैं। उनकी ऐसी आस्था बनाए रखने के लिए सार्थक कदम उठाए जाने की दरकार है।
कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका को अपने कार्यक्षेत्र में रहना चाहिए
न्यायपालिका की स्वतंत्रता उच्चतर संवैधानिक मूल्य है। संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका को स्वतंत्र बनाए जाने के तमाम रक्षोपाय किए थे। नीति निदेशक तत्वों में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक रखना राष्ट्र राज्य के लिए आदेश है। सभी संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता जरूरी है। सभी संस्थाओं के कार्यक्षेत्र की सीमा है। इस सीमा के अतिक्रमण से लोकतंत्र का अंतर्संगीत कुप्रभावित होता है। प्रो. अर्नेस्ट बार्कर लोकतांत्रिक शासन के चिंतक हैं। उन्होंने सही लिखा है कि 'स्वतंत्रता के उपभोग में सामथ्र्य और सद्भावना होनी चाहिए। अपनी अस्मिता होनी चाहिए। दूसरों की अस्मिता के प्रति आदर भी होना चाहिए। यह सब संपूर्ण समाज में होना चाहिए। यह होने पर ही वास्तव में लोकतांत्रिक समाज की प्राप्ति संभव है।' कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका को अपने कार्यक्षेत्र में रहना चाहिए। कुछ समय पहले कोर्ट ने दिल्ली के प्रदूषण की सुनवाई के दौरान विशेष प्रकार की गाड़ियों के प्रवेश पर लेवी लगाने के निर्देश दिए थे। कर लगाना न्यायपालिका का क्षेत्र नहीं है।
न्यायपालिका में सुधार की आवश्यकता यक्ष प्रश्न है
बंगाल चुनाव के बाद भारी हिंसा हुई। न्यायिक सुनवाई में लोगों की उम्मीदें थीं। विषय महत्वपूर्ण था, लेकिन दो न्यायमूर्तियों ने स्वयं को सुनवाई से अलग कर लिया। इसका औचित्य समझ में नहीं आता। मुख्य न्यायाधीश ने वास्तविक लोकतंत्र के विकास के लिए बेशक अच्छी बातें की हैं, लेकिन न्यायपालिका में जरूरी सुधार की आवश्यकता यक्ष प्रश्न है। उन्होंने इंटरनेट मीडिया के बढ़ते प्रभाव पर भी टिप्पणी की है। कहा है कि 'नए मीडिया टूल में किसी भी बात को बढ़ा-चढ़ाकर बताने की क्षमता है। वे सही-गलत, अच्छे-बुरे और असली-नकली के बीच फर्क करने में असमर्थ हैं।' उन्होंने ठीक कहा है कि मीडिया ट्रायल मामलों के विचारण में मार्गदर्शक नहीं हो सकते। उन्होंने यह भी कहा कि 'न्यायाधीशों को कभी भी भावुक राय से प्रभावित नहीं होना चाहिए।' उन्होंने कोरोना महामारी पर भी विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि 'हमें आवश्यक रूप से खुद से पूछना होगा कि हमने अपने लोगों की सुरक्षा और कल्याण के लिए कानून के शासन का किस हद तक इस्तेमाल किया।' ऐसा आत्मचिंतन समय की मांग भी है।