क्या 1990 के दशक के बाद भारत सबसे खराब श्रम और रोजगार संकट के दौर से गुजर रहा है
ओपिनियन
(जी प्रमोद कुमार)
पिछले हफ्ते हमलोगों ने रस्मी तौर पर एक और अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया. इस दिन हम इस मुद्दे को नज़रअंदाज कर गए कि भारत एक बड़े श्रम और रोजगार संकट ( Unemployment) के कगार पर खड़ा है. और ये संकट शायद 1990 के दशक की शुरुआत के बाद से सबसे खराब दौर में से एक है. बहुत सारे पॉलिसी के बदौलत रोजगार सृजन किए गए, नौकरियों की संख्या बढ़ाई गई और कल्याणकारी योजनाओं (Welfare Scheme) की एक नई श्रृंखला लाई गई. लेकिन इन सबके बावजूद अर्थतंत्र में वो आवेग नहीं बन पा रहा है और नौकरी चाहने वालों की संख्या में लगातार इजाफा ही हो रहा है. सबसे ज्यादा चिंताजनक सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE ) की एक रिपोर्ट है जो पिछले कई सालों से रोजगार के आंकड़ों पर नजर रख रही है.
CMIE के मुताबिक, 2017-22 के दौरान, श्रम भागीदारी 46 प्रतिशत से घटकर 40 प्रतिशत हो गई. ये कमी इसलिए नहीं थी कि हमारे पास काफी नौकरियां थीं बल्कि इसलिए कि लगभग 6.6 मिलियन लोगों ने नौकरी की तलाश बंद कर दी थी. CMIE के महेश व्यास ने लिखा है,
"बेरोजगारों की संख्या में 6.6 मिलियन की गिरावट का मतलब यह नहीं है कि उन्हें रोजगार देने के लिए 6.6 मिलियन और नौकरियां पैदा की गईं. बल्कि उन्होंने हताश-निराश होकर नौकरी की तलाश करना बंद कर दिया. नतीजतन, उनकी गिनती अब बेरोजगारों के रूप में नहीं होती थी. वे श्रम शक्ति से बाहर थे और इसलिए बेरोजगारी दर की गणना करते वक्त उनकी गिनती नहीं की गई थी."
दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि बेरोजगारी की जो कहानी है उससे बदतर तो वास्तविक स्थिति है. निराशा और थकान का यह संकेत बड़े पैमाने पर युवा वर्कफोर्स के लिए एक बुरा संकेत है. इससे भी बुरी बात यह है कि नौकरी के बाजार से अब ज्यादातर महिलाएं गायब हो रही हैं और नौकरी के लिए योग्य महिलाओं में से केवल नौ प्रतिशत महिलाओं को ही रोजगार मिल रहा है.
यह निराशा का संकेत है जिसका प्रभाव देखा जा सकता है
दरअसल, बेरोजगारी काफी समय से एक समस्या रही है. नेशनल सैम्पल सर्विस आर्गेनाइजेशन (NSSO) ने 2012-18 के दौरान रोजगार सर्वेक्षण किया था और वो इस नतीजे पर पहुंची थी कि 45 वर्षों में बेरोजगारी अपने बदतर स्तर पर पंहुच चुकी है. बहरहाल, सरकार का इस मुद्दे पर एक अलग नजरिया था और उसने कहा कि रोजगार की स्थिति में वास्तव में सुधार हुआ है.
CMIE की रिपोर्ट में कहा गया था कि इस दौरान करीब दो करोड़ पुरुषों की नौकरी चली गई. कोविड -19 की दो लहर की वजह से जीडीपी में कम से कम 12 प्रतिशत तक और मैनुफैक्चरिंग में 20 प्रतिशत से अधिक की कमी की वजह से हालात और बदतर बन गए. बहरहाल, जो मौजूदा आंकड़ा हैं वो एक बहुत बड़ी समस्या की एक छोटी झलक ही है.
85 प्रतिशत लोगों की आय में गिरावट
कुछ गणनाओं से पता चलता है कि 85 प्रतिशत लोगों की आय में गिरावट आई है और लगभग पांच करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी के शिकार हुए हैं. सेंटर फॉर इकोनॉमिक डेटा एंड एनालिसिस की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले पांच वर्षों में युवा श्रमिकों के लिए रोजगार में 30 प्रतिशत की गिरावट हुइ है.
दिलचस्प बात यह है कि श्रम बल में ये हताशा विशेष रूप से शिक्षित बेरोजगारों में दिखाई दे रही है. हमने देखा कि यूपी और बिहार जैसे राज्यों में ये नौजवान पुलिस से भिड़ गए और देश के विभिन्न हिस्सों में विरोध प्रदर्शन किया. और ये विरोध प्रदर्शन ऐसे समय में हुए जब आईटी सेक्टर में उछाल देखी जा सकती है.
आईटी सेक्टर में कुशल उम्मीदवारों के लिए नौकरी और वेतन दोनों के मामले में स्थिति सबसे अच्छी रही है, लेकिन जहां तक अर्धकुशल और अकुशल लेबर फोर्स की बात है तो उनके लिए कहानी बिल्कुल विपरीत है.
नोटबंदी के बाद जीएसटी और फिर कोविड महामारी
इसका एक कारण निश्चित रूप से झटकों की वो श्रृंखला है जो नोटबंदी से शुरू हुई है. नोटबंदी के बाद जीएसटी और फिर कोविड महामारी की दो लहरों ने दरअसल अर्थव्यवस्था को बैठा ही दिया है.
बहरहाल, अर्थव्यवस्था ने नकारात्मक वृद्धि को ऑफसेट करने के लिए काफी सुधार किया है. लेकिन इसे अभी भी 7.5 प्रतिशत के GDP की वृद्धि दर हासिल करने के लिए एक लंबा रास्ता तय करना है. सरकार उम्मीद कर रही है कि 2022-23 में GDP 7.5 प्रतिशत के स्तर तक पहुंच जाएगी. लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि क्या यह पर्याप्त रोजगार पैदा कर सकेगा.
युवा श्रम शक्ति के आकार को देखते हुए सरकार को बड़े पैमाने पर लेबर-इंटेसिव उपायों की तलाश करनी होगी. तभी देश के लाखों अर्ध-कुशल और अकुशल श्रमिकों को साल भर रोजगार दिया जा सकता है. इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर पर जोर देने से निश्चित रूप से इसमें से कुछ को रोजगार दिया जा सकता है. लेकिन जो वास्तव में तस्वीर बदल सकती है वो है मैनुफैक्चरिंग सेक्टर. केंद्र सरकार ने PLIS (प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव स्कीम्स) जैसी योजनाएं शुरू की हैं जिसकी खूब चर्चा हो रही है और इसमें Apple जैसी कंपनियां भी शामिल हैं. लेकिन ये स्कीम काफी हद तक तकनीक से संबंधित है और इसलिए अकुशल लोगों के लिए नहीं है.
भारत को चीन के श्रम प्रधान और निर्यात-संचालित मैनुफैक्चरिंग सेक्टर को अपनाने की जरूरत है. हाल के वर्षों में वियतनाम, लाओस और कंबोडिया जैसे देशों ने भी इसी तरीके को अपनाया है. कई पर्यवेक्षकों का मानना है कि यदि निवेशक लागत और भू-राजनीतिक कारणों से चीन को छोड़कर जा रहे हैं तो इसका एक बड़ा हिस्सा प्राप्त करने के लिए भारत को तेजी से आगे बढ़ना चाहिए. आखिरकार वियतनाम और लाओस जैसे छोटे देशों ने इस स्थिति का भरपूर फायदा उठाया है.
2030 तक 90 मिलियन गैर-कृषि रोजगार की जरूरत
सीएमआईई का मानना है कि भारत को 2030 तक 90 मिलियन गैर-कृषि रोजगार सृजित करने की आवश्यकता है. वास्तव में, विभिन्न वैश्विक अध्ययनों से पता चला है कि खेती को टिकाऊ बनाए रखने के लिए भी गैर-कृषि नौकरियां आवश्यक हैं.
मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का विस्तार तभी हो सकता है जब बड़े पैमाने पर निजी सेक्टर निवेश करे. लेकिन ये निवेश सालों से ठप्प पड़ा है. हम किस बदतर स्थिति में हैं इसका पता इसी बात से चल सकता है कि सरकार की छोटी छोटी नौकरियों के लिए पढ़े -लिखे और ओवर-क्वालिफाइड उम्मीदवारों की लम्बी कतार लग गई है और सरकारी नौकरी के इच्छुक उम्मीदवारों और पुलिस के बीच जमकर संघर्ष हो रहा है.
ऐसी बहुत सी खबरें सामने आई हैं कि तमिलनाडु में 9500 क्लर्क पदों के लिए 1000 पीएचडी धारकों सहित 20 लाख लोगों ने आवेदन किया है तो यूपी में 62 चपरासी की नौकरी के लिए 3700 पीएचडी धारकों ने. ये खबरें भारतीय युवाओं में व्याप्त हताशा को दर्शाती हैं. इसलिए, श्रम बल से उनका गायब होना आश्चर्यजनक नहीं है. लेकिन इसके साथ ही बड़ा सवाल यह है कि वे जाएं कहां? यह एक खामोश सामाजिक अस्थिरता को दर्शाता है जो कभी भी जल्द ही भड़क सकती है.