घटती आजादी के दौर में इंटरनेट

तकरीबन 31 साल पहले मानव सभ्यता ने संवाद का एक नया माध्यम हासिल किया था

Update: 2021-09-26 18:04 GMT

हरजिंदर। तकरीबन 31 साल पहले मानव सभ्यता ने संवाद का एक नया माध्यम हासिल किया था। संवाद का हर नया माध्यम न सिर्फ अभिव्यक्ति के नए रास्ते खोलता है, बल्कि ज्ञान-विज्ञान को भी नए पड़ाव तक ले जाता है। इन सारे दबावों के बीच लोग भी बदलते हैं और समाज भी पूरी तरह बदल जाते हैं। कई बार तो इतना बदल जाते हैं कि फर्क जमीन-आसमान का हो जाता है। अतीत में जाकर उस समाज को देखिए, जिसमें भाषा का विकास नहीं हुआ था और उसकी तुलना उस समाज से कीजिए, जिसमें भाषा का विकास हो गया था, अंतर बहुत साफ नजर आएगा। लगेगा कि जैसे दोनों दो अलग ग्रह के वासी हैं।

कुछ इसी तरह का बदलाव तीन दशक पहले इंटरनेट ने हमारी झोली में डाला था, जिसने इस दरम्यान हमारी जमीन और हमारे आसमान को पूरी तरह बदल दिया। जब हमने भाषा का विकास किया, या जब हमने लिखना शुरू किया, या जब छापेखाने ने पूरी दुनिया पर अपनी छाप छोड़ी, या जब रेडियो, टीवी और टेलीफोन जैसे संवाद के माध्यम हमारे बीच आए, कभी भी बदलाव इतनी तेजी से हमारे घरों और दिल-ओ-दिमाग में नहीं घुसा, जितना पिछले 30 साल में तकरीबन हर जगह घुसपैठ कर गया है। एक फर्क यह भी रहा कि बाकी ज्यादातर माध्यम भूगोल या रेडियो तरंगों की सीमाओं से बंधे थे, लेकिन इंटरनेट के इस नए माध्यम ने पुरानी बाधाओं को पार करते हुए पूरी दुनिया को एक साथ जोड़ दिया। ये फर्क अपनी जगह हैं, लेकिन सबसे बड़ा फर्क कुछ और था, जो उस दौर में एक बड़ी उम्मीद बंधा रहा था। यह माध्यम उस दौर में आया, जब आजादी और खासकर अभिव्यक्ति की आजादी एक बड़ा मूल्य बनती जा रही थी। तानाशाही खत्म हो रही थी और लोकतंत्र का विस्तार हो रहा था। बर्लिन की दीवार टूट चुकी थी और चीन को छोड़कर बाकी साम्यवादी देशों में सर्वहारा की कथित तानाशाही या तो विदा हो चुकी थी या अंतिम सांसें गिन रही थी। ऐसे देश, जिनमें लोकतंत्र है, उनकी संख्या अचानक ही बढ़ने लगी थी। इसी माहौल ने अमेरिका के एक राजनीतिशास्त्री फ्रांसिस फुकुयामा को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने इतिहास के अंत की घोषणा कर दी। द एंड ऑफ हिस्ट्री ऐंड द लास्ट मैन नाम की उनकी किताब की सबसे ज्यादा आलोचना उसके शीर्षक को लेकर ही हुई थी। हालांकि, इसमें उन्होंने जो कहा था, वह उस समय बहुत से लोगों को सच लगता था। उन्हें लग रहा था कि मानव सभ्यता अब अपने वैचारिक विकास के शिखर पर पहुंच चुकी है। धीरे-धीरे लोकतंत्र पूरी दुनिया में पहुंचेगा और सभी देश इसी की परंपराओं से चलेंगे। मगर 30 साल में दुनिया कहां पहुंच गई, इसकी चर्चा हम बाद में करेंगे, फिलहाल बात इंटरनेट की।
उस समय उम्मीद यह थी कि एक ऐसा मंच तैयार हो गया है, जो पूरी दुनिया के लोगों को जोडे़गा और इससे बहुत सी खाइयां पाटी जा सकेंगी। दिल्ली के वन बेडरूम में बैठा एक व्यक्ति जब लिस्बन, काहिरा और रियो डी जेनेरो के अनजान लोगों से जुड़ेगा, तब उसका नजरिया भी विस्तृत होगा। उसकी सोच अपने पूर्वाग्रहों के तिनकों और फूस से लदे-फदे कबूतरखानों से बाहर निकलेगी, तो उसे एक नई विश्व दृष्टि भी मिलेगी। यह भी उम्मीद थी कि तानाशाही में गुजर-बसर करने वालों का संपर्क जब लोकतंत्र की जीवन-शैली जीने वालों से होगा, तो उनके अपने देश में लोकतंत्र कायम करने का दबाव बनेगा। इसी के कुछ बाद जब पश्चिम एशिया में वे आंदोलन दिखे, जिन्हें हम 'अरब स्प्रिंग' के नाम से जानते हैं, तो एकबारगी लगा कि यह सपना सच होकर ही मानेगा। लेकिन सुंदर सपनों के टूटने का इतिहास भी उतना ही बड़ा है, जितना खुद मानव सभ्यता का इतिहास।
और अब, जब हम साल 2021 में हैं, तब हमें मिली है अमेरिकी संस्था फ्रीडम हाउस की एक रिपोर्ट- फ्रीडम ऑन द नेट। इंटरनेट पर दुनिया भर के देशों में आजादी का हाल बताने वाली यह रिपोर्ट हर साल जारी होती है। यह रिपोर्ट बता रही है कि तकरीबन पूरी दुनिया में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों पर सरकारों का नजला गिरा है। सोशल मीडिया पर पोस्ट के कारण कहीं लोगों को मारा-पीटा गया, तो कहीं उन्हें गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया। यहां आप चाहें, तो यह मान सकते हैं कि भारत में कम से कम इतने बुरे हाल तो नहीं हैं, और चाहें, तो आप ऐसे कुछ भारतीय उदाहरण भी दे सकते हैं, जहां लोगों को सोशल मीडिया पर पोस्ट के लिए प्रताड़ित किया गया। यह मामला सिर्फ भारत या किसी इस या उस देश का नहीं है, कमोबेश यह सब लगभग पूरी दुनिया में हो रहा है।
बेशक, इंटरनेट की किसी पोस्ट के कारण अगर कोई सरकार किसी को गिरफ्तार करती है, तो इससे इंटरनेट की ताकत भी समझी जा सकती है। दुनिया भर के तानाशाहों को अब खतरा आंदोलनों से ज्यादा इंटरनेट से लगने लगा है। लेकिन यह भी सच है कि इंटरनेट से हम जिस दबाव और बदलाव की उम्मीद बांध रहे थे, न सिर्फ वह उम्मीद अधूरी रह गई, बल्कि दुनिया उसकी उल्टी दिशा में भागती दिख रही है। हम यह सोच रहे थे कि इंटरनेट हर किसी की सोच को नया विस्तार देगा, लेकिन मानसिकता के कबूतरखाने अब और छोटे होते जा रहे हैं। यह इंटरनेट की आभासी दुनिया के आस-पास ही नहीं हो रहा, उसके बाहर के समाजों का हाल भी वही है। उदारवाद, नागरिक अधिकार और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों को जब गाली की तरह इस्तेमाल किया जाने लगे, तब भला यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह आजादी बची रह जाएगी, जिसकी ये सब उपलब्धियां थीं। ये सब वे उपलब्धियां हैं, जो पूरी 20वीं सदी की राजनीतिक चेतना से उपजी थीं और हमारे जैसे बहुत से देशों ने तमाम संघर्षों के बाद इनको हासिल किया था। जिन्हें नहीं हासिल हो सकीं, उनके लिए वे एक हसरत थीं। 21वीं सदी के कुछ शुरुआती वर्षों में ही हमने वह राजनीतिक चेतना खोनी शुरू कर दी है। वह भी उस समय, जब इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी।


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