मेघालय में परिवार की संपत्ति मां से बेटी को मिलती है, इसलिए राजनीति और पॉलिसी निर्माण में भी उनका ज्‍यादा दखल है

मेघालय में परिवार की संपत्ति मां से बेटी को मिलती है

Update: 2021-05-31 08:35 GMT

मनीषा पांडेय। लैंगिक असमानता की जड़ में आर्थिक असमानता है. सारी संपदा और सत्‍ता केंद्रों पर मर्दों का अकेला एकाधिकार.

– सिमोन द बोवुआर, द सेकेंड सेक्‍स
एंथ्रोपॉ‍लॉजिस्‍ट लुइस हेनरी मॉर्गन की थ्‍योरी कहती है कि जीवन की शुरुआत में सभी सभ्‍यताएं और समाज मातृसत्‍तात्‍मक थे. यानी स्त्रियों का आधिपत्‍य था. वो कबीलों की मुखिया होती थीं, बच्‍चों की मांएं होती थीं और विवाह जैसी किसी संस्‍था का कोई अस्तित्‍व नहीं था. भारी और बल वाले काम जैसे शिकार वगैरह पुरुष ही करते थे, लेकिन नए जीवन को जन्‍म दे सकने की प्राकृतिक शक्ति ने स्त्रियों को सहज ही एक ऊंजा दर्जा प्रदान कर रखा था. बच्‍चे के पिता का पता नहीं होता था. वो सिर्फ मां के नाम से जाना जाता था. अपनी किताब 'एंशिएंट सोसायटी' और 'ए कॉन्‍जेक्‍ट्यूरल सॉल्‍यूशन ऑफ द ओरिजिन ऑफ द क्‍लासिफैक्‍टरी सिस्‍टम ऑफ रिलेशनशिप' में मॉर्गन विस्‍तार से प्राचीन मातृसत्‍तात्‍मक समाजों और उन समाजों में स्‍त्री-पुरुषों संबंधों के बारे में लिखते हैं. मॉर्गन का अधिकांश काम 1835 से 1878 के बीच का है.
मॉर्गन की मृत्‍यु के बाद 19884 में जब फ्रेडरिक एंगेल्‍स अपनी किताब द ओरिजिन ऑफ फैमिली प्राइवेट प्रॉपर्टी एंड स्‍टेट लिख रहे थे तो उसमें वो जगह- जगह मॉर्गन की थियरी को कोट करते चलते हैं और बताते हैं कि कैसे मातृसत्‍तात्‍मक समाजों के पितृसत्‍तात्‍मक समाजों में बदलने की शुरुआत निजी संपत्ति यानी प्राइवेट प्रॉपर्टी के उदय के साथ हुई. उसके बाद के एक हजार साल संपदा और सत्‍ता पर मर्दों के एकछत्र मालिकाना हक हासिल करने और औरतों के गुलाम और कमजोर होते जाने की कहानी है.
19वीं सदी की शुरुआत में जब अमेरिका और यूरोप में फेमिनिस्‍ट मूवमेंट की शुरुआत हुई और इतिहास को फेमिनस्टि नजरिए से खंगाला और लिखा जाने लगा तो नारीवादी इतिहासकारों ने पहला सवाल प्रॉपर्टी का ही उठाया. सिमोन द बोवुआर से लेकर बेट्टी फ्राइडेन, शुलामिथ फायरस्‍टोन और ग्‍लोरिया स्‍टाइनम की थियरी यही कहती है कि औरत और मर्द के बीच सारी असमानता और गैरबराबरी की जड़ में आर्थिक असमानता है. संसार की 90 फीसदी संपदा पर 50 फीसदी मर्दों का मालिकाना हक इसकी वजह है.

कई सदियों के बाद अब दुनिया में मातृसत्‍तात्‍मक समाज कम ही बचे हैं. कुछ ट्राइब्‍स को छोड़ दें तो पूरी दुनिया संपत्ति संबंधों के मामले में पितृसत्‍ता में ही ढल चुकी है. ऐसे में समाज विज्ञानियों और शोधकर्ताओं के लिए वो कुछ गिनती के बचे रह गए मातृसत्‍तात्‍मक समाज अध्‍ययन का विषय हैं.


ऐसा ही एक मातृसत्‍तात्‍मक समाज हमारे देश के नॉर्थ ईस्‍ट में है, जिसके बारे में बॉस्‍टन और कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के रिसर्चर पिछले एक दशक से अध्‍ययन कर रहे थे. उस स्‍टडी की रिपोर्ट अब सामने आई है, जो समाज विज्ञान और पैट्रीआर्की के अध्‍ययन के लिहाज से काफी महत्‍वपूर्ण है. मैं उसके लिए रोचक या चौंकाने वाली जैसे शब्‍दों का इस्‍तेमाल नहीं करूंगी क्‍योंकि ये स्‍टडी एक तरह से उन्‍हीं बातों की पुष्टि कर रही है, जिसका दावा एंगेल्‍स से लेकर नारीवादी इतिहासकार कई दशकों से करती रही हैं. द यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो प्रेस जरनल में छपी इस स्‍टडी का शीर्षक है-. कल्‍चरल, कैपिटल एंड द पॉलिटिकल इकोनॉमी जेंडर गैप: एविडेंस फ्रॉम मेघालयाज मैट्रीलीनियल ट्राइब्‍स (Culture, Capital, and the Political Economy Gender Gap: Evidence from Meghalaya's Matrilineal Tribes).
ये स्‍टडी मेघालय की गारो, खासी और जंतिया ट्राइब्‍स के अध्‍ययन पर आधारित है, जो पूरे मेघालय की तकरीबन 91 फीसदी आबादी है. इन ट्राइब्‍स मातृसत्‍तात्‍मक हैं, जहां आज भी प्रॉपर्टी मां से उसकी बेटी को हस्‍तांरित होती है. विवाह करके लड़कियां लड़के के घर में रहने नहीं जातीं. वो मां की संपत्ति की उत्‍तराधिकारी होती हैं और अपने ही घर में रहती हैं. उनसे विवाह करने वाला लड़का आकर उनके घर में रहता है. परिवार के अधिकांश बड़े फैसलों में मां का निर्णय ही माना जाता है. उनके समाज में बेटी पैदा होना कोई दुख की बात नहीं है. मेघालय में थोड़ी आबादी मिजोज और हमरा ट्राइब समूहों की भी है, जो पितृसत्‍तात्‍मक हैं और जिनके यहां संपत्ति का मालिक घर का पुरुष होता है. उन समाजों के बाकी नियम और महिलाओं की स्थिति भी बाकी भारत की तरह ही है.
यह स्‍टडी कहती है कि मेघालय की जिन ट्राइब्‍स में संपत्ति मां से बेटी को जाती है, वहां महिलाओं का राजनीतिक हस्‍तक्षेप भी पुरुषों के मुकाबले ज्‍यादा है. वो महत्‍वपूर्ण राजनीतिक, आधिकारिक और निर्णायक पदों पर हैं, पॉलिसी निर्माण में उनका हस्‍तक्षेप ज्‍यादा है और उनकी पॉलिसीज में जेंडर भेदभाव भी देश के बाकी हिस्‍सों के मुकाबले बहुत कम है. स्त्रियों के प्रति समाज का पूर्वाग्रह कम है और राजनीति में पुरुष प्रभुत्‍व वाले मीजो और हमरा ट्राइब की हिस्‍सेदारी होने के बावजूद औरतों की आवाज प्रबल और प्रखर है.
इसका एहसास आपको सिर्फ शिंलाग ही नहीं, बल्कि मेघालय के किसी भी शहर या गांव में घूमते हुए हो जाएगा. चाहे भीड़भाड़ वाले शहर हों या सुदूर पहाडि़यों पर बसे बेहद कम आबादी वाले गांव, आपको 90 फीसदी दुकानों, होटलों और रेस्‍तराओं में औरतें ही मुख्‍य काउंटर पर बैठी, पैसों का हिसाब करती और काम करती मिलेंगी. अर्थव्‍यवस्‍था की पूरी कमान उनके हाथ में है, जिसका असर उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्‍व पर भी साफ दिखाई देता है. वहां के समाजों में सड़कों, सार्वजनिक जगहों पर महिलाएं देश के बाकी हिस्‍सों के मुकाबले सुरक्षित भी हैं क्‍योंकि वहां सार्वजनिक जगहों पर भी महिलाओं का ही प्रभुत्‍व है. हजारों की संख्‍या में औरतें हर जगह दिखाई देती हैं. रैपर राउंड पहनकर पीठ पर बच्‍चा बांधकर पैदल काम पर जा रही और दुकान पर बैठकर सामान बेच रही स्‍त्री का दृश्‍य वहां बहुत आम है.
इस स्‍टोरी के साथ रेचेल ब्रूल और निखर गायकवाड़ पूरी स्‍टडी का हायपरलिंक भी है, जहां जाकर आप पूरी स्‍टडी पढ़ सकते हैं.
आखिर में एक जरूरी बात जो यह अध्‍ययन हमें बताता है कि अगर कोई देश, समाज और राजनीतिक प्रतिनिधित्‍व इस बात को लेकर गंभीर है कि समाज में जड़ों तक व्‍याप्‍त जेंडर भेदभाव खत्‍म होना चाहिए, औरतों को सामाजिक, आर्थिक सुरक्षा के साथ-साथ जॉब और पॉलिटिक्‍स में समान हिस्‍सेदारी मिलनी चाहिए तो इसके लिए सिर्फ बातों और दावों से काम नहीं चलेगा. सिर्फ इतना भी काफी नहीं है कि महिलाओं की शिक्षा और नौकरी में हिस्‍सेदारी बढ़े. इसके लिए पॉलिसी के स्‍तर पर यह सुनिश्चित करना होगा कि महिलाओं की संपत्ति में बराबरी की हिस्‍सेदारी हो. जमीन, जायदाद, बैंक, अकाउंट का न्‍यायपूर्ण बंटावारा हो.
भारतीय दंड संहिता में अब यह कानून तो बना दिया गया है कि लड़कियों का भी पिता की संपत्ति में बराबर का हक है, लेकिन यह हक देना अभी भी कोई कानूनी मजबूरी नहीं है और न ही बराबर अधिकार न देना कोई दंडनीय अपराध है. स्‍टडी इस बात को तथ्‍यों और आंकड़ों के साथ रेखांकित करती है कि पुरुष प्रधान समाजों में औरतों के पक्ष में बने किसी भी कानून और उन्‍हें दिए गए किसी भी अधिकार को लेकर 'वॉयलेंट सोशल बैकलैश' (हिंसक प्रतिरोध) की संभावना रहती है, जिससे निबटने के लिए पॉलिसी के स्‍तर पर ठोस बदलाव की जरूरत है.
कुल मिलाकर निष्‍कर्ष यह कहता है कि महिलाओं की आर्थिक हिस्‍सेदारी उनकी राजनीतिक हिस्‍सेदारी बढ़ाती है, जिसका नतीजा ज्‍यादा जेंडर सेंसिटिव और जेंडर बराबरी सुनिश्चित करने वाली नीतियों के रूप में सामने आता है. देश के बाकी हिस्‍सों और खासतौर पर उत्‍तर भारत में महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्‍व ना के बराबर है. जो थोड़ी-बहुत महिलाएं हैं भी, वो भी अपनी स्‍वतंत्र मुखर आवाज के दम पर नहीं, बल्कि पितृसत्‍ता की दया पर हैं. इसलिए यहां कुछ चंद महिलाओं की राजनीतिक मौजूदगी महिलाओं से जुड़ी जरूरी नीतियों और कानूनों में बदलती नहीं दिखाई देती.
हालांकि इस स्‍टडी में मर्दवाद की मारी सरकारों के लिए कुछ जरूरी सुझाव भी हैं, लेकिन सवाल ये है कि उन सुझावों की परवाह किसे हैं. मर्दों ने औरतों पर मालिकाना हक जमाए रखा है और ये सुझाव भी उन्‍हीं को दिए जा रहे हैं, जो खुद मालिक हैं. दुनिया में कौन सा मालिक अपने विशेषाधिकार आसानी से छोड़ने को तैयार होता है. दुनिया का इतिहास उठाकर देख लीजिए, औरतों को कोई अधिकार थाली में सजाकर नहीं मिला. जितनी बराबरी आज दिखती है, वो सैकड़ों साल लंबी लड़ाई का नतीजा है. भारत में तो अभी उसकी शुरुआत भी नहीं हुई है. बाकी भारत मेघालय की राह पर न भी चले तो इस बात को मान ही ले कि गैरबराबरी है, शोषण है, आधिपत्‍य है, पैट्रीआर्की है, ये भी अभी बहुत दूर की कौड़ी है.
फिलहाल ये स्‍टडी एक बार जरूर पढ़ी जानी चाहिए.
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