आम लोग अपने देश के लिए कुछ करने का ठान लें, तो फिर उन्हें कोई नहीं दबा सकता
यूक्रेन के बूचा में नागरिकों की नृशंस हत्याओं पर नाराजगी जाहिर करने वाले अंतरराष्ट्रीय समुदाय में इस हफ्ते भारत भी शामिल हो गया
एन. रघुरामन का कॉलम:
यूक्रेन के बूचा में नागरिकों की नृशंस हत्याओं पर नाराजगी जाहिर करने वाले अंतरराष्ट्रीय समुदाय में इस हफ्ते भारत भी शामिल हो गया और यूएनएससी में स्पष्ट रूप से इसकी निंदा की, साथ ही स्वतंत्र जांच की मांग का समर्थन किया। पश्चिमी देशों का आरोप है कि रूस ने 'जमीन पर भाग रहे आम नागरिकों को गोली मारने, टैंक से उन्हें कुचलने और पशुओं की खाल की तरह पड़े रहने' जैसे कृत्य करके भयानक युद्ध अपराध किया है।
स्थानीय अधिकारियों ने बताया कि बूचा, इरपिन और होस्टोमेल में कुछ स्थानों पर लाशों के ढेर के साथ सामूहिक कब्रें हैं, इसके बाद यूक्रेन के राष्ट्रपति वोल्दिमीर ज़ेलेस्की ने इसे नरसंहार कहा। टीवी पर आ रही कुछ तस्वीरें दिल दहलाने वाली हैं। इससे मुझे पूर्व अफ्रीका के अनसुने देश इरीट्रिया की राजधानी असमारा की कहानी याद आई। इरीट्रिया की आबादी, भोपाल-इंदौर की कुल आबादी के बराबर करीबन 37 लाख होगी।
इसने सिर्फ चंद दिनों का युद्ध नहीं, बल्कि 24 मई 1993 को स्वतंत्र घोषित होने से पहले 30 साल तक पड़ोसी देश इथियोपिया से युद्ध लड़ा। जब वे युद्ध लड़ रहे थे, तो गोरिल्ला लड़ाकों की सेना, जो खुद को इरीट्रियन पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट (ईपीएलएफ) कहती थी, उसने मीलों लंबे पहाड़ी किनारों-चट्टानों को काटकर सुरंगें बनाईं, वो भी सिर्फ हथियार रखने नहीं बल्कि सैनिकों के बच्चों के स्कूल, तीन हजार बिस्तर के अस्पतालों के लिए।
जैसे यूक्रेन में शिक्षक, डॉक्टर्स, टेलर जैसे आम नागरिकों ने हथियार उठाए हैं, पुरुषों के साथ स्त्रियां भी लड़ाई में कूद गईं थीं। उस समय सैनिकों की वर्दियां जींस काटकर बनाई गईं। दान की गईं जीन्स को जितना मुमकिन हो, उतना काटा गया, ताकि हर जींस से कई शॉर्ट्स बनेंं। ऐसी सेनाओं की कहानियां हैं, जिन्होंने बिना पीने के पानी, बिना वॉशरूम जाए युद्ध लड़े।
आज अगर आप असमारा के बीचों-बीच जाएं, तो आपको बाथरूम सैंडल की धातु शीट से बनी 20 फुट ऊंची और करीबन 24 फुट लंबी मूर्ति देखेंगे। ये 'शीडा' स्कैवयर कहलाता है। इरीट्रियन बाथरूम स्लिपर्स को 'शीडास्' कहते हैं और इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है। असमारा में रफेलो बिनी नाम के शख्स एक जूते की कंपनी चलाते थे, उन्होंने हांगकांग से मशीन मंगाकर 'कोंगो' नाम से सस्ती पीवीसी सैंडल बनाना शुरू कर दीं।
जब इथियोपियन सेना ने बिनी की फैक्ट्री पर कब्जा किया, तो उनके कामगार अंडरग्राउंड हो गए और ईपीएलएफ में भर्ती हो गए और फिर बमबारी में क्षतिग्रस्त वाहनों के टायर पिघलाकर लड़ाकों के लिए सस्ते कोंगो बनाने लगे। उनके बनाए 'शीडास्' न सिर्फ सस्ते थे बल्कि उन्हें पानी से साफ कर सकते थे और किसी भी कैम्प फायर पर पिघलाकर आसानी से मरम्मत हो सकती थी।
इथियोपियन भारी-भरकम जूते पहनते थे, तो ईपीएलएफ सैंडल्स में आसानी से चलते थे। युद्ध में जब किसी ईपीएलएफ सदस्य की मौत होती तो बस छोटी सी दुनिया उनके पास रह जाती। सालों तक ईपीएलएफ, मृत जवानों के परिजनों तक उनकी सैंडल्स भिजवाते रहे।
जिन सैंडल्स को पहनकर वे आजादी के लिए लड़े और उन्हें पहने ही मर गए, उनकी याद में घर के अंदर सैंडल्स के इर्द-गिर्द एक स्मारक बनाया जाता। इसलिए इस बड़ी-सी शीडा मूर्ति के साथ ट्राफिक चौराहा न सिर्फ आगंतुकों, बल्कि रहवासियों को 30 साल चले युद्ध की याद दिलाता है, जो उन्होंने बड़े व बेहतर सशस्त्र पड़ोसी इथियोपिया से लड़ा था।
फंडा यह है कि अगर आम लोग अपने देश के लिए कुछ करने का ठान लें, तो फिर उन्हें कोई नहीं दबा सकता। यह दृढ़ संकल्प अच्छी चीजों पर भी लागू होता है जैसे इंदौर के लोग इसे देश का सबसे स्वच्छ शहर बनाने के लिए काम करते हैं।