मैंने उतार दिया दुख का चोला

जब भी मैंने अपने जीवन पर नजर डालने या उसका विश्लेषण करने की कोशिश की है

Update: 2021-07-08 16:02 GMT

दिलीप कुमार, प्रसिद्ध अभिनेता। जब भी मैंने अपने जीवन पर नजर डालने या उसका विश्लेषण करने की कोशिश की है, तब मुझे ये जानकर हैरानी हुई है कि मेरी शख्सियत के कई पहलू हैं, जो अब तक मेरे लिए अनजान थे। आत्म-विश्लेषण की यह प्रक्रिया सबसे पहले शबनम नाम की शुरुआती दौर की एक फिल्म से शुरू हुई। यह वो समय था, जब मैं चौराहे पर खड़ा था और सोच रहा था कि क्या मैं कभी 'ट्रैजेडी किंग' की उपाधि को छोड़ पाऊंगा, जो मेरे साथ अटूट रूप से जुड़ गई थी। हमारी विडंबना यह है कि लोग ट्रैजेडी की तुलना भावुकता से करते हैं। मैं इसे इस तरह से देखता हूं कि एक दुखद किरदार का चित्रण केवल उदास दिखने तक या सतही विपदाओं (जैसे, महबूब से जुदाई, दिवालिया हो जाना, दोस्तों की दगाबाजी या परिवार द्वारा अस्वीकार कर दिया जाना) से तबाह होने तक सीमित नहीं है। त्रासदी से जो मेरा मतलब है, वह ग्रीक और शेक्सपियर की त्रासदियों के करीब है। मेरा मानना है कि वास्तविक त्रासदी एक तरह की उदासी की ओर ले जाती है, जो किसी आदमी की रूह में समा जाती है, जिससे आदमी भीड़ में भी अकेला हो जाता है। परंपरागत समझ के मुताबिक, जब कोई फनकार अपनी कला की गहराई में सुलगता है, तभी वह अपने क्राफ्ट को खालिस सोने में बदल पाता है। और केवल तभी वह त्रासदी के चित्रण की कोशिश करने के योग्य है। मेरा मानना है कि अगर कोई उस चश्मे से देखे, तो मेरा मामला पूरी तरह से विरोधाभासी रहा है। मुझे ऐसे समय में 'ट्रैजेडियन' घोषित कर दिया गया, जब मैं अपने हुनर को निखारने की प्रक्रिया में था। फिराक साहब का एक मिसरा मुझ पर बहुत सही लागू होता है : अक्सीर बन चला हूं, इक आंच की कसर है (मैं एक अमृत में तब्दील हो जाऊंगा, अगर थोड़ा और आंच पर तप जाऊं)।

मुझ पर 'ट्रैजेर्डी ंकग' का ठप्पा समय से पहले लगा दिया गया। फिल्मों में मैंने जिस तरह के दुखद किरदारों को अदा किया है, उससे प्रभावित होकर लोग अब भी मेरे साथ हमदर्दी और गर्मजोशी से पेश आते हैं। खैर मुझे समय से पहले ही दुख का लबादा पहनना पड़ा और इसने मेरी शख्सियत को असामान्य तरीके से प्रभावित किया। मुझे लगने लगा कि शायद खुशी और कामयाबी का अनुभव करना मेरी किस्मत में नहीं है।
मैं खुद को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखने लगा, जिसका वजूद दुख और पीड़ा से भरा था, जिसके जीवन में मुस्कान और हंसी के लिए कोई जगह नहीं थी। इस स्थिति ने मेरे जीवन में भयानक उथल-पुथल मचा दी और मेरे अंदर की खुशमिजाज रूह को झकझोर कर रख दिया। जब मुझे अपने अंदर के खुशमिजाज शख्स को दबाना पड़ा, तब मैं एक अजीब तरह के मनोवैज्ञानिक घुटन का शिकार हो गया। जैसे-जैसे मेरी पेशेवर छवि ने मेरे निजी जीवन पर असर डालना शुरू किया, मेरे अंदर के संघर्ष और गहरे होते चले गए। यह मेरी जिंदगी का बेहद अस्वाभाविक और दुखद दौर था।
लगभग उसी समय जब मुझे शबनम में एक हल्का-फुल्का किरदार ऑफर किया गया, तो इसे स्वीकार करने को लेकर मैं दुविधा में पड़ गया, और कई दिनों तक चिंतित रहा। मैंने इंग्लैंड में मनोवैज्ञानिकों से मदद लेने का फैसला किया। मैं वहां कुछ विशेषज्ञों से मिला, और उनमें से लगभग सबने सलाह दी कि मुझे दुख भरी भूमिकाओं से हटकर हल्के-फुल्के और कॉमिक किरदारों की तलाश करनी चाहिए। यदि मैंने ऐसा नहीं किया, तो हो सकता है कि मेरी शख्सियत कमजोर व अधूरी रह जाएगी। लिहाजा, मैं भविष्य की अपनी भूमिकाओं के बारे में एक निर्णायक स्पष्टता के साथ भारत लौटा। जब मुझे एस एम एस नायडू की आजाद ऑफर की गई, तो मैंने तुरंत इसे लपक लिया। यह मेरे निजी जीवन और एक कलाकार के रूप में मेरे विकास का अहम मोड़ था, यह वह समय था, जब मेरी शख्सियत के बिखरे टुकड़े फिर से इकट्ठे हो गए।
एक नई राह तैयार करना किसी भी तरह से आसान नहीं था, और मुझे बौद्धिक तथा काल्पनिक उलझनों से दो-चार होना पड़ा। यह 'पहचान का बदलाव' मेरे लिए एक मुश्किल सफर था। मैं फिर से दुख के घेरे में आ गया था, क्योंकि अपनी पिछली शख्सियत का बिल्कुल उल्टा होने की कोशिश कर रहा था और ऐसा कर पाना आसान नहीं था। लेकिन अल्लाह की मेहरबानी से मैं अच्छा करने में कामयाब रहा और मेरी कामयाबी ने ट्रैजेडी किंग को एक कॉमेडी अभिनेता के ठीक बगल में रख दिया। मेरा मतलब यह नहीं है कि मैंने एक अलग किरदार निभाकर फुटपाथ के संजीदा अभिनेता को ठंडे बस्ते में डाल दिया, बिल्कुल नहीं। जब मैं इनायत और कोहिनूर में नई जमीन पर कदम रख रहा था, उसी समय देवदास, मुगल ए आजम और गंगा जमुना जैसी फिल्मों में भी काम कर रहा था।
अलग-अलग भूमिकाओं में काम करना मुझे एक ऐसे रास्ते पर ले गया, जो नया था, लेकिन चुनौतीपूर्ण भी था। नए क्षेत्रों में अपने कौशल को आजमाने के लिए कम्फर्ट जोन से बाहर निकलना एक अभिनेता की ट्रेनिंग का अहम हिस्सा है। दरअसल, एक कलाकार के सफर में कलात्मकता की समझ विकसित करना पहला लक्ष्य होता है। अहंकारी लगने का जोखिम उठाते हुए, मैं खुद को- थोड़े संदेह के साथ -एक ऐसा अभिनेता कहूंगा, जिसके पास कलात्मक मूल्य हैं। मैंने पूरी विनम्रता के साथ 'संदेह' शब्द का इस्तेमाल किया है। वरना, कौन अधिकार के साथ यह दावा कर सकता है कि आंसुओं की कुछ बूंदों में दूसरों की तुलना में अधिक संजीदगी होती है या हंसी में हास्य और शरारत की माप को दिखा सकता है। एक कलाकार के जीवन में आंसू और हंसी, दो ऐसी खासियतें हैं, जिनके संबंध में सभी मान्यताएं बेमानी हो जाती हैं।
गंगा जमुना, मुगल-ए-आजम, राम और श्याम, आदमी, गोपी, दास्तान और सगीना महतो सभी अलग-अलग किरदार वाली फिल्में थीं। उनके बीच के विरोधाभास एक अभिनेता के रूप में मेरे सीखने की अवस्था का अहम मोड़ थे, जहां मेरा हर अगला कदम नए कौशल, नई तदबीर की मांग पेश करता था। यह एक कलाकार के जीवन में हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है।
शमा के जून, 1973 अंक में प्रकाशित 'मैं शहंशाह-ए-ट्रैजेडी क्यों न बना रहा' लेख के संपादित अंश) ब्लूम्सबरी से प्रकाशित यासिर अब्बासी की पुस्तक 'ये उन दिनों की बात है' से साभार।
 लाइव हिंदुस्तान 

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