दावों के मुताबिक भारत में कोविड-19 की दूसरी लहर की वजह कोरोना वायरस का डेल्टा वैरिएंट (म्यूटेशन से पैदा हुआ नए किस्म का कोरोना वायरस) था। अब आठ से दस राज्यों में अपनी पहुंच बना चुका इसका नया संस्करण डेल्टा प्लस नई चिंताओं के केंद्र में है। कोई नहीं जानता कि ग्रीक वर्णमाला के आधार पर किए जा रहे कोरोना वायरस के नए रूपों के नामकरणों की यह सूची अभी कहां तक जाएगी। फिलहाल बात डेल्टा और लेम्डा तक पहुंच चुकी है। डेढ़ साल पहले दुनिया में जब कोरोना वायरस का प्रसार शुरू हुआ था तो उम्मीद नहीं थी कि इतनी जल्दी कोरोना के नए और खतरनाक वैरिएंट सामने आएंगे, पर इस संक्रमण की रफ्तार, संहारक क्षमता और रूप बदलने की प्रवृत्ति ने दुनिया और मेडिकल साइंस की अब तक तरक्की को सकते में डाल दिया है।
संक्रमणों के पिछले तीन दशकों के इतिहास पर नजर डालें तो पता चल रहा है कि दुनिया में एक वायरस का खौफ थमता है और दूसरा कोई अन्य संक्रामक रोग कई गुना ज्यादा ताकत के साथ आ धमकता है। इस तरह दो सवाल पैदा होते हैं। एक, नए वायरस क्यों पैदा हो रहे हैं और क्या हमारे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पास नए संक्रमणों को रोकने का कोई तरीका है? दो, वायरसों का म्यूटेशन क्यों होता है और उसे कैसे रोका जाए? करीब सौ साल पहले दुनिया में पेनिसिलिन के आविष्कार के साथ यह माना जाने लगा था कि मानव सभ्यता को अब संक्रामक रोगों से निजात पाने में कोई मुश्किल नहीं होगी, बल्कि यह राय बनी कि रोगाणुओं (विषाणुओं-जीवाणुओं) को अब अपनी मांद में चले जाना होगा, क्योंकि इंसान को इलाज की एक ऐसी मुकम्मल विधि मिल गई है, जिसमें रोग पनप ही नहीं सकते। स्कॉटिश चिकित्सक और माइक्रोबायोलॉजिस्ट अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने 1928 में पेनिसिलिन का आविष्कार करके संक्रामक रोगों से लड़ने और उन पर काबू पाने का जो रास्ता सुझाया था, वह चेचक, पोलियो, फ्लू सरीखे कई संक्रामक रोगों के टीके और दवाएं विकसित करने का जरिया बना। इस उपलब्धि के बावजूद समय के साथ साबित हुआ है कि मनुष्य ने संक्रमणों के खिलाफ जितने हथियार बनाए, वायरसों के नए रूपों ने सारे उपायों को बौना साबित कर दिया
जोर वायरस मारने पर, प्रक्रिया समझने पर नहीं : आधुनिक विज्ञान ने संक्रामक रोगों (विषाणुओं) को खत्म करने पर तो जोर दिया, लेकिन रोगाणुओं (माइक्रोब्स) के जीवनचक्र को समझने की कोशिश नहीं की। यह जीवनचक्र बताता है कि किसी संक्रमण के लंबे समय तक जीवित रहने, एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में छलांग लगाने और उत्परिवर्तन की कार्यप्रणाली क्या होती है। इसका परिणाम यह निकला कि संक्रमण की श्रंखला टूटने के बजाय वह और मजबूत होती चली गई। शायद यही वजह है कि बीते चार दशकों में बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू, इबोला, मलेरिया, डेंगू बुखार, जीका और एचआइवी-एड्स आदि से होने वाली मौतों में कई गुना बढ़ोतरी हो चुकी है। दावा यह भी है कि 1970 के बाद से 30 नई संक्रामक बीमारियों ने मानव समुदाय को घेर लिया है।
कोरोना वायरस को इस गिनती में सबसे नया ठहराया जा सकता है। चूंकि वायरस म्यूटेशन का रुख अपना रहे हैं। यानी हालात के मुताबिक खुद को समायोजित कर लेते हैं और अपना स्वरूप बदल लेते हैं। इससे उनके मुकाबले को बनी दवाइयां और टीके कारगर नहीं रह पाते हैं। हालांकि इसके पीछे फार्मा कंपनियों की साजिश का भी एक आरोप लगाया जाता है। दावा किया जाता है कि दवा कंपनियां खुद नहीं चाहतीं कि कोई वायरस इतनी जल्दी धरती से विदा हो जाए या उनका म्यूटेशन हमेशा के लिए रुक जाए। इस दावे का आधार यह है कि शोध-अनुसंधान का हवाला देकर उन्हें पहले से कई गुना महंगी दवाएं और टीके बेचने का मौका मिल जाता है। एक और बड़ा कारण रोग-निदान या उपचार का सही तरीका विकसित किए बगैर दवाओं और टीकों की बमबारी करना भी है। खास तौर से एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध इस्तेमाल ने वायरसों को खत्म करने के बजाय उन्हें और मजबूत ही बनाया है। कोरोना से निपटने में जिस तरह विभिन्न दवाओं का बिना यह जाने ताबड़तोड़ इस्तेमाल हुआ कि वे कोई असर करेंगी भी या नहीं, स्थितियां बिगाड़ी ही हैं।
बिगड़ती जीवनशैली भी गुनहगार : पिछले चार दशकों में अगर संक्रामक बीमारियों ने रफ्तार पकड़ी है तो इसके लिए शहरीकरण और लोगों की बिगड़ती जीवनशैली भी एक अहम वजह प्रतीत होती है। कोरोना से पहले भी इसकी चर्चा दुनिया भर में थी कि खराब जीवनशैली हर साल लाखों लोगों को मौत के मुंह में धकेल रही है। कोरोना के प्रकोप के दौरान यह जोखिम और बढ़ गया है। ब्रिटिश जर्नल ऑफ स्पोर्ट्स मेडिसिन के शोध में बताया गया है कि शारीरिक श्रम की कमी और निष्क्रिय जीवनशैली ने कोरोना संक्रमण की जद में आने वालों में वायरस के गंभीर लक्षण पैदा किए और उनकी मृत्यु का जोखिम दूसरों के मुकाबले अधिक रहा। निष्क्रिय जीवनशैली के साथ धूमपान, मोटापा और उच्च रक्तचाप ने कोरोना की मार में काफी ज्यादा इजाफा कर दिया। हो सकता है कि आगे चलकर यह तथ्य भी पर्याप्त डाटा मिलने पर सामने आए कि ग्रामीणों के मुकाबले कोरोना ने उन शहरियों पर ज्यादा कहर ढाया है, जो सुविधाजनक जीवनशैली के आदी हो गए हैं। वातानुकूलित कमरों में रहने के कारण उनके फेफड़े कमजोर पड़ गए जिससे वे कोरोना की आसान चपेट में आ गए।
चार साल पहले सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने भी अपनी रिपोर्ट 'बॉडी बर्डन' में चेताया था कि भारत में होने वाली कुल मौतों में से 61 फीसद खराब जीवनशैली और गैर संचारी रोगों की वजह से होती हैं। कैंसर, हृदयरोग और मधुमेह के अलावा हमारे शहरों में लोगों के फेफड़े वायु प्रदूषण और शारीरिक निष्क्रियता के चलते कमजोर होते जा रहे हैं। दिल्ली में हर तीसरे बच्चे के फेफड़े प्रभावित हैं और 2016 में भारत में 3.5 करोड़ लोग अस्थमा के गंभीर मरीज पाए गए थे। अफसोस कि इस रिपोर्ट के महत्व को गंभीरता से नहीं समझा गया और कोरोना के दौर में हम भारतीयों के फेफड़े गंभीर संकट में फंस गए। अब वक्त आ गया है, जब पूरी दुनिया को ठहरकर सोचना चाहिए कि वह आखिर ऐसा क्या करे, जिससे कोरोना जैसी महामारियां दोबारा लौटकर न आ पाएं। सरकारें जनता को कम कीमत पर अच्छे इलाज की सहूलियतें देने के साथ जागरूक करें कि बीमार होने से बेहतर है कि स्वस्थ जीवनशैली अपनाई जाए। उन पर्यावरणीय कारणों की तह में भी जाना होगा, जो नए वायरसों की पैदावार, कई पुराने वायरसों की वापसी और उनके उत्परिवर्तन की वजह बन रहे हैं। ऐसे प्रबंध किए जाएं, ताकि भविष्य में किसी भी संक्रमण को हावी होने का मौका नहीं मिले।
कहानी 'कप्पा' और 'डेल्टा' की : पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जब कोरोना वायरस को चाइनीज वायरस कहा और उनके सहयोगी (माइक पोंपियो) ने इसे बाकायदा वुहान वायरस कहकर पुकारा तो सबसे पहली आपत्ति चीन की तरफ से ही आई। वैसे वायरस के ऐसे नामकरण को लेकर कोई भी देश एतराज कर सकता है। यही वजह है कि डब्ल्यूएचओ ने इसकी एक व्यवस्था बनाई है। इसके तहत कोरोना वायरस सार्स-कोव-2 के विभिन्न नामकरण किए गए हैं। चूंकि वक्त के साथ और म्यूटेशन के कारण कोरोना वायरस के व्यवहार और संहारक क्षमता में तब्दीली हो रही है, इसलिए नाम में भी परिवर्तन किया जा रहा है। यह इसलिए जरूरी है, क्योंकि इन बदलावों का एक असर वायरसों के गुणों पर पड़ता है। परिवर्तनों के बाद कोई वायरस आसानी से फैल सकता है या बीमारी-महामारी की गंभीरता को प्रभावित कर सकता है अथवा बचाव की वैक्सीनों को धता बता सकता है। ऐसे में नए वायरस की पहचान सुनिश्चित कर उससे बचाव के तौर-तरीके में भी तब्दीली लानी पड़ती है। यह परिवर्तन अलग-अलग देशों में वहां की जलवायु और वायरस के म्यूटेशन की प्रवृत्तियों के आधार पर होता है। जैसे भारत की बात करें तो यहां अक्टूबर 2020 में पहली बार सामने आए कोरोना वायरस के नए स्वरूप बी.1.617.1 को डब्ल्यूएचओ ने 'कप्पा' नाम का लेबल दिया, जबकि एक अन्य वैरिएंट बी.1.617.2 को डेल्टा नाम दिया। डेल्टा नाम दिए जाने से पहले दुनिया में बी.1.617.2 को भारतीय या कोरोना का बंगाल वायरस कहा जाने लगा था। इस पर भारत ने आपत्ति जताई थी।
वायरस की नई पहचान के लिए डेल्टा आदि अक्षर ग्रीक वर्णमाला से लिए गए हैं। इस सिलसिले में ब्रिटेन में मिले कोरोना के नए वैरिएंट बी.1.1.7 को अल्फा, दक्षिण अफ्रीका में मिले वैरिएंट बी.1.351 को बीटा और ब्राजील में मिले पी.1 को गामा नाम दिया है। ये सभी वे वैरिएंट हैं जिन्हें वैरिएंट ऑफ कंसर्न (वीओसी) की श्रेणी में रखा गया है। जबकि वैरिएंट ऑफ इंटरेस्ट (वीओआइ) की श्रेणी में रखे अमेरिका में पहली बार मिले वैरिएंट बी.1.427/बी.1.429 को एप्सिलोन, ब्राजील में मिले पी.2 को जीटा, कई अन्य देशों में मिले वैरिएंट बी.1.525 को ईटा, फिलीपींस में मिले पी.3 को थीटा, बी.1.526 को लोटा नाम दिया गया है। जोखिम के स्तर को देखते हुए कोरोना के नए रूपों को वीओआइ और वीओसी दो भागों में बांट दिया है।
[असिस्टेंट प्रोफेसर, बेनेट यूनिवर्सिटी, ग्रेटर नोएडा]