कैसे टूटा था मध्य प्रदेश के लोकप्रिय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का प्रधानमंत्री बनने का सपना
एक समय था जब भारतीय जनता पार्टी को यकायक तीन उभरते हुए सितारे मिल गए थे
अजय झा.
एक समय था जब भारतीय जनता पार्टी (BJP) को यकायक तीन उभरते हुए सितारे मिल गए थे. यह वह दौर था जब बीजेपी अध्यक्ष के तौर पर लाल कृष्ण अडवाणी (Lal Krishna Advani) द्वारा चलाये गए अयोध्या आन्दोलन का परिणाम भारतीय राजनीति में दिखने लगा था. केंद्र में बीजेपी की सरकार थी और कई राज्यों में बीजेपी की स्थिति सुदृढ़ होने लगी थी. बीजेपी उस समय एक ऐसे दौर से गुजर रही थी, जबकि पार्टी के तीन सर्वोच्च नेता अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण अडवाणी तथा मुरली मनोहर जोशी (Murli Manohar Joshi) उम्र के उस दौर में पहुंच चुके थे जब उनके सामने सिर्फ वर्तमान था, भविष्य नहीं. यानि समय आ गया था कि भविष्य के मद्देनजर नयी पीढ़ी के नेताओं की ट्रेनिंग हो सके, ताकि समय आने पर वह बीजेपी की बागडोर संभाल सकें.
केंद्र में बीजेपी के तीन युवा नेता थे जिन पर सभी की निगाहें टिकी थीं सुषमा स्वराज, प्रमोद महाजन और अरुण जेटली. पर समय ने कुछ ऐसी करवट ली कि उस दौर में यह तीन नेता पीछे छूट गए और तीन नए नेता सामने आ गए. वर्ष 2000 और 2003 के बीच बीजेपी ने अगल-अलग परिस्थितियों में तीन राज्यों में नए नेताओं को मुख्यमंत्री का पद सौंपा. गुजरात में बीजेपी सत्ता में 1998 से थी. पर मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल की लगातार लोकप्रियता में गिरावट बीजेपी के लिए चिंता का विषय बन चुका था. 2003 में अगला चुनाव होना तय था और केशुभाई पटेल के नेतृत्व में चुनाव जीतने की सम्भावना नगण्य होती दिख रही थी. बीजेपी ने एक जुआ खेला और युवा नेता नरेन्द्र मोदी को 2001 में गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया. यह जुआ इस दृष्टि से था कि उस समय तक मोदी जीवन में कभी चुनाव लडें तक नहीं थे और प्रशासन का उन्हें कोई अनुभव नही था. उस समय किसे पता था कि मोदी एक नए इतिहास की रचना करने वाले हैं. मोदी के नेतृत्व में बीजेपी गुजरात में लगातार तीन बार चुनाव जीती और मोदी ने लगभग 13 वर्षों के बाद मुख्यमंत्री पद तब ही छोड़ा जबकि 2014 में वह भारत के प्रधानमंत्री बने.
2014 में आडवाणी ने पीएम उम्मीदवार के तौर पर शिवराज सिंह चौहान का नाम आगे किया था
नवगठित प्रदेश छत्तीसगढ़ में 2003 में हुए प्रथम विधानसभा चुनाव में बीजेपी की धमाकेदार जीत हुई. यह एक संयोग ही था कि बीजेपी को दिलीप सिंह जूदेव की जगह मुख्यमंत्री पद के लिए किसी अन्य नेता की जरुरत पड़ी. जूदेव का नाम भ्रष्टाचार के एक आरोप में आ गया था, लिहाजा चुनाव के बाद केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के एक राज्य मंत्री रमन सिंह की लॉटरी लग गयी. अगले 15 वर्षों तक रमन सिंह मुख्यमंत्री पद पर बने रहे और 2018 में बीजेपी छत्तीसगढ़ में पहली बार चुनाव हारी और रमन सिंह कहीं खो गए.
पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश में 2003 में एक लम्बे अर्से के बाद बीजेपी की जीत हुई जिसका श्रेय युवा नेता उमा भारती को दिया गया. उन्होंने जमकर मेहनत भी की थी, लिहाजा उमा भारती मुख्यमंत्री बनीं. परन्तु उमा भारती एक साल भी पद पर नहीं रह सकीं और एक केस में गिरफ़्तारी के पहले उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा.उनकी जगह बुजुर्ग नेता बाबूलाल गौड़ को मुख्यमंत्री बनाया गया जो एक गलत निर्णय साबित हुआ. गौड़ का ना ही अपने जुबान पर कंट्रोल था ना ही प्रशासन पर. लिहाजा बीजेपी ने एक नए नेता की तलाश शुरू की जिसके नेतृत्व में वह 2008 में चुनाव लड़ सके. यह तलाश युवा नेता शिवराज सिंह चौहान पर आ कर रुक गयी. चौहान 1991 से 2004 के बीच लगातार पांच बार लोकसभा चुनाव जीत चुके थे. बस उनके नाम पर एक ही धब्बा था. 2003 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव मेंबीजेपी को किसी बलि के बकरे की तलाश थी जो तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के खिलाफ उनके गढ़ राघोगढ़ से चुनाव लडे. चौहान पार्टी के आदेश को नहीं टाल पाए और यह जानते हुए भी कि उनके जीतने की सम्भावना बिलकुल नहीं है, वह चुनाव लड़ें और अपनी बलि चढ़ा दी. उस समय उन्हें कहां पता था कि बस इसी कारण जल्द ही उनकी किस्मत बदलने वाली है. बाबूलाल गौड़ की जगह 2005 में चौहान को मुख्यमंत्री पद सौंपा गया और अगले 13 वर्षों तक चौहान मुख्यमंत्री पद पर बने रहे.
स्वाभाविक था कि बीजेपी के तीन लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों की धाक जम चुकी थी और पार्टी को उनसे भविष्य के लिए बहुत उम्मीद थी. पर लोकप्रियता के मामले में मोदी चौहान और रमन सिंह से कहीं आगे निकल चुके थे. फिर वह समय आ ही गया जबकि बीजेपी को 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए किसी नए नेता को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में सामने लाना था. केंद्र में 2004 से कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में यूपीए की सरकार चल रही थी. वाजपेयी रिटायर हो चुके थे तथा अडवाणी और जोशी काफी बूढ़े हो चले थे. अडवाणी की इच्छा जरूर थी कि उन्हें फिर से एक बार मौका मिले पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसके लिए राजी नहीं था. बीजेपी में पहली बार नेतृत्व के सवाल पर जबरदस्त उठा-पटक दिखी. अडवाणी अपने प्रिये शिष्य मोदी से किन्हीं करण वश नाराज़ हो चुके थे और वह शिवराज सिंह चौहान की वकालत कर रहे थे. उन्होंने अपनी पूरी शक्ति लगा दी पर मोदी को आगे बढ़ने से रोक नहीं सके. मोदी को बीजेपी ने अपना नया नेता चुन लिए और देश में मोदी की ऐसी लहर चली जो अब तक लगातार चल रही है और बीजेपी नित नए आयाम बनाते दिख रही है.
आज शिवराज सिंह दूसरी पंक्ति में खिसक गए हैं
इसे दुर्भाग्य ही माना जा सकता है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी लम्बे अर्से के बाद मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव हार गयी. रमन सिंह का सूर्यास्त हो गया. अब स्थिति यह है कि अगले वर्ष छत्तीसगढ़ में चुनाव होने वाला है और उनके नाम की कहीं चर्चा भी नहीं है. यह तय माना जा रहा है कि बीजेपी छत्तीसगढ़ में किसी नए नेता को मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करेगी. अपुष्ट खबरों के अनुसार बीजेपी रमन सिंह को भारत के अगले उपराष्ट्रपति चुनाव में अपना उम्मीदवार बनाने के बारे में सोच रही है.
वहीं जो शिवराज सिंह चौहान कभी मोदी के बराबर कद के नेता माने जाते थे पर 2018 के चुनाव में उनकी किस्मत पर ग्रहण लग गया. मध्य प्रदेश चुनाव में त्रिशंकु विधानसभा चुनी गई, जिसमें बीजेपी 209 तथा कांग्रेस पार्टी 214 सीटों पर विजयी रही. 2017 के गोवा और मणिपुर में भी कुछ ऐसा ही नज़ारा दिखा था, पर बीजेपी यहां भी किसी तरह से सरकार बनाने में सफल रही. मध्य प्रदेश में बीजेपी ने किन्ही वजहों से ऐसा प्रयास नहीं किया और कांग्रेस पार्टी सरकार बनाने में सक्षम हो गयी जो मात्र सवा साल ही चल पायी. मध्य प्रदेश में पिछले दो वर्षों से बीजेपी की सरकार है और शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री भी हैं, पर उनका कद कहीं छोटा हो गया है. एक बार फिर से मुख्यमंत्री बनने के लिए उन्हें मोदी के सहायता की जरूरत पड़ गयी. इस बात की सम्भावना काफी अधिक है कि अगले साल के अंत में होने वाले मध्य प्रदेश चुनाव में बीजेपी अपने बूते पर चुनाव जीत कर आये, पर इसके लिए चौहान को मोदी पर आश्रित रहना पड़ेगा.
राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि 2018 में बीजेपी ने मध्य प्रदेश में अन्य दलों से विधायक तोड़ कर सरकार बनाने की पहल इसलिए नहीं की कि वह शिवराज सिंह चौहान को बताना चाह रही थी कि बिना मोदी के प्रश्रय में आये उनका कोई भविष्य नहीं है. चौहान को यह बात अच्छी तरह से समझ में आ भी गयी और अब उन्हें मोदी को अपना नेता मानने से कोई परहेज नहीं है. मध्य प्रदेश में अब किसी भी पोस्टर या होर्डिंग पर चौहान से पहले और बड़ा मोदी का फोटो होता है.यह कहना मुश्किल है कि क्या वाकई चौहान प्रधानमंत्री पद का कभी सपना देख रहे थे या फिर वह सपना मोदी को सबक सिखाने के लिए सिर्फ लाल कृष्ण अडवाणी ने ही देखा था. राजनीति कितनी कठोर हो सकती है इसका उदाहरण शिवराज सिंह चौहान हैं, 2018 में सिर्फ 6 सीटों की कमी की वजह से शिवराज सिंह चौहान सरकार नहीं बना सके और अब वह बीजेपी के अग्रणी नेताओं की पंक्ति से दूसरी पंक्ति में खिसक गए हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)