कैसे अजीत सिंह ने पुत्र जयंत चौधरी को राजनीतिक अनाथ बना दिया?
राजनीति एक पारिवारिक पेशा है यह सभी जानते हैं. जिधर भी नज़र धुमाएं खानदानी नेता मिल ही जाएंगे
अजय झा। राजनीति एक पारिवारिक पेशा है यह सभी जानते हैं. जिधर भी नज़र धुमाएं खानदानी नेता मिल ही जाएंगे. सिर्फ कांग्रेस पार्टी (Congress Party) को दोष देना इस मामले में उचित नहीं है, क्योंकि खानदानी नेता लगभग हर प्रदेश और हर दल में मिल जायेंगे. उनकी योग्यता उनका खून होता है, क्योंकि वह बड़े नेताओं के घर में पैदा होते हैं. पर क्या कभी किसी राजनीतिक आनाथ के बारे में सुना है? यह उनकी कहानी है जो बड़े घरों में पैदा तो हो गए पर आज राजनीति में उन्हें कोई पूछने वाला नहीं बचा है. उनमें से एक हैं एलजेपी के नेता चिराग पासवान (Chirag Paswan) और दूसरे हैं राष्ट्रीय लोकदल अध्यक्ष जयंत चौधरी (Jayant Chaudhary).
पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह (Chaudhary Charan Singh) के पोते और पूर्व केंद्रीय मंत्री अजीत सिंह (Ajeet Singh) के पुत्र. जयंत अमेरिका में पैदा हुए थे, जब पिता अजीत सिंह वहां IBM में बतौर कंप्यूटर इंजिनियर नौकरी करते थे, जयंत के पास विकल्प था कि वह अमेरिका के नागरिक बने रहते. पर भारत में जमा-जमाया पारिवारिक पेशा था और उन्हें उस गद्दी को संभालने की ट्रेनिंग लेनी थी. लिहाजा जयंत भारत वापस आ गए, 2009 में लोकसभा चुनाव लड़ा और पिता अजीत सिंह बागपत से तथा जयंत मथुरा से 31 वर्ष की आयु में सांसद चुने गए. पर पिता की एक गलती ने उनका भविष्य अंधकारमय कर दिया.
अजीत सिंह को विपक्ष में रहना पसंद नहीं था
अजीत सिंह राजनीति में कभी किसी के सगे नहीं रहे. सत्ता का लोभ उन्हें बहुत ही ज्यादा था. वह विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, पी.वी. नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारों में मंत्री रहे. पश्चिम उत्तर प्रदेश में पिता चरण सिंह ने उनके लिए एक बड़ी विरासत छोड़ रखी थी, पर अजीत सिंह ने उसे संभालने और बढ़ाने की जगह आसान रास्ता चुनना पसंद किया. लिहाजा कभी समाजवादी पार्टी से, कभी बहुजन समाज पार्टी से, कभी कांग्रेस से और कभी बीजेपी से गठबंधन करते रहे. जिसका नतीजा हुआ कि चरण सिंह के कट्टर समर्थक भी असमंजस में पड़ गए कि अजीत सिंह कब किस के साथ हाथ मिला लेंगे और कब उन्हें किस पार्टी के लिए वोट मांगने के लिए कहा जाएगा, उसका उन्हें कोई अंदाज़ा नहीं रहता था.
RLD ने 2011 में कांग्रेस से हाथ ना मिलाया होता तो आज स्थिति कुछ और होती
धीरे-धीरे अजीत सिंह का आधार कम होने लगा. बात 2009 लोकसभा चुनाव की है. अजीत सिंह उस समय बीजेपी के साथ गठबंधन में थे. उनके खाते में सात सीटें गयीं जिसमें से आरएलडी पांच सीटों पर सफल रही, जिसमें जयंत चौधरी भी एक थे. पर उनका दुर्भाग्य था कि बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सत्ता में नहीं आ सकी. अजीत सिंह को विपक्ष में रहना पसंद नहीं था, लिहाजा 2011 में एक बार फिर से कांग्रेस पार्टी से हाथ मिला लिया और आरएलडी यूपीए में शामिल हो गयी. अजीत सिंह को मनमोहन सिंह सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री बनाया गया.
अगर अजीत सिंह ने हवा के रुख को पहचान लिया होता और थोड़ा सब्र दिखया होता तो 2014 से इस वर्ष मई के महीने में अपनी मृत्यु तक मोदी सरकार में मंत्री होते और जयंत चौधरी मंत्री पद की शपथ लेने के लिए अपना बंद-गले वाला कोट सिलवा रहे होते. लेकिन एनडीए से अलग होने का नतीजा रहा कि पिता और पुत्र 2014 और 2019 का चुनाव हार गए. अजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात जयंत आरएलडी के अध्यक्ष बने हैं. पर पार्टी के पास सिर्फ एक ही विधायक है, वह भी राजस्थान में.
जयंत चौधरी कांग्रेस के साथ जाएंगे?
उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष होने वाली विधानसभा चुनाव की तैयारी में सभी दल अभी से जुट गए हैं, पर आरएलडी या यूं कहें कि जयंत चौधरी को पता ही नहीं है कि तैयारी कब और कहां से शुरू करें. कोई भी पार्टी अब आरएलडी में रूचि नहीं रखती. या तो आरएलडी को अकेले चुनाव लड़ना पड़ेगा या या फिर उसके पास एक ही विकल्प बचा है जिसे उन्हें तलाशना पड़ेगा.
चौधरी चरण सिंह ने अजीत सिंह के लिए एक बड़ी राजनीतिक विरासत छोड़ी थी पर अजीत सिंह ने सब कुछ डूबा दिया और जयंत चौधरी के लिए बस एक ही विकल्प छोड़ रखा है कि वह राकेश टिकैत के साथ लग जाएं और उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस के लगातार डूबती नाव में सवार हो जाएं, इस उम्मीद के साथ कि टिकैत की मदद से पश्चिम उत्तर प्रदेश में शायद आरएलडी कुछ सीटें जीत पाए.