इतिहास लेखन : अतीत की गलियों में संभलकर चलिए, बेहद मूल्यवान है बाबा का यह 'हींग सूत्र'
इसलिए इतिहास लेखन की समकालिकता की चुनौती और चिंता 'नादान की दोस्ती, जी का जंजाल' मुहावरे से ही समझी जा सकती है।
सबसे आसान शब्दों में तारीख यानी इतिहास वाकयात (घटनाओं) का सिलसिला है। पर उससे आगे की बात है कि इतिहास गुजरे हुए वक्त को अपने नजरिये से, किसी खास नजरिये से देखना है। उस नजर में मिलावट संभव भी है और वाजिब भी। उस नजर की वह मिलावट कितनी हो, यह सोचने वाली बात है। हिंदी के बड़े कवि नागार्जुन से किसी ने एक बार पूछा कि साहित्य में विचार (यानी नजर की मिलावट) कितना होना चाहिए? तो बाबा ने जो सुंदर जवाब दिया, वह ज्ञान के सभी अनुशासनों पर लागू किया जा सकता है।
बाबा के शब्द थे- 'सब्जी में हींग जितना! हींग ज्यादा हो, तो सब्जी बेस्वाद हो जाती है।' इतिहास लेखन के लिहाज से भी बाबा का यह 'हींग सूत्र' मुझे बेहद मूल्यवान लगता है। पहले दो जरूरी बातें, पहली, सत्ता पक्ष या विपक्ष का कोई एक झंडा उठाकर इतिहास लिखना या उसे देखना इतिहास के साथ अन्याय है। दर्शनशास्त्र के मेरे एक प्रोफेसर कहते थे कि बौद्धिक व्यक्ति के लिए सत्य की खोज और लालसा सबसे बड़ा गुण होना चाहिए, कोई भी विचार सत्य के लिए सीढ़ी बने, पांव की बेड़ी नहीं कि उस एकतरफा सच से आगे देख ही न सको।
दूसरी, इतिहास की अनजान या नई गलियों में घुसने से पहले अच्छे सवाल उठाने की तमीज और तरबियत भी जरूरी है। यही दुविधा भी है, चुनौती भी कि स्थापनाएं सब देना चाहते हैं, अपनी स्थापनाओं को प्रश्नांकित किया जाना सबको असहनीय हो चला है। तो, इतिहास का समकाल प्रेजेंट परफेक्ट टेंस होता है, पास्ट और प्रेजेंट की संधि पर। इतिहास लेखन में सबसे संवेदनशील और मुश्किल होता है, इस क्षण का इतिहास।निकट भूतकाल के साथ वर्तमान का एक सघन भावनात्मक जुड़ाव बना रहता है, जो धीरे-धीरे कम होता है कि हम वस्तुनिष्ठ सच को देख, समझ, स्वीकार सकें।
इतिहासकार की चिंताएं तो अपार होती ही हैं, उसकी चुनौतियों और पीड़ाओं का भी कोई ओर-छोर नहीं है। उदाहरण के तौर पर, पंजाबी लोक कथाओं का नायक 'दुल्ला भट्टी' अकबर के राजस्व सिस्टम का बागी है, तो दोनों में से एक खलनायक बनता है। यह इतिहास की नजर है, जो तय करती है कि क्या रखना है, क्या छोड़ देना है, और रखना है, तो उसे किस खांचे में सजाना है। इतिहासकार की व्यक्तिगत धारणाएं, राग-द्वेष, लालच-महत्वाकांक्षाएं तो रहनी ही हैं, क्योंकि वह मनुष्य है। जैसा पश्चिम के बड़े इतिहासकार-दार्शनिक कह गए हैं कि इतिहास में संपूर्ण वस्तुनिष्ठता संभव ही नहीं है। कोशिश रहे कि हम यथासंभव वस्तुनिष्ठता छूने को आतुर रहें।
कौन इतिहासकार विमर्श के स्तर पर इससे इनकार करेगा कि जब भारत की आजादी के बाद स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास उस दल की सरकार द्वारा लिखवाया गया, जिसका उस आंदोलन में बड़ा और सक्रिय योगदान रहा, तो इतिहास लिखे जाने में तत्संबंधी भावुकता के साथ समकाल लेखन की सीमाएं और चुनौतियां नहीं रही होंगी, और कितनी ही बार उन सीमाओं को मानवीय भूलों के तहत लांघ पाना संभव नहीं हुआ होगा और नतीजे के रूप में इतिहास लेखन को ज्ञान के एक अनुशासन के रूप में नुकसान हुआ होगा!
जोड़ना प्रासंगिक है कि एजेंडों, प्रोपगैंडा, देश या खास नायकों के महिमामंडनों की प्रक्रिया में जब हम दास्तानों को इतिहास मानने लगते हैं, तो इतिहास एक निरीह बकरी में रूपांतरित हो जाता है, जो मिमियाती रहती है, वह शेर का शिकार भी बनती है, हथियार भी। यह सामूहिक अपराध है, जिसमें हम सब अपने ही खिलाफ शामिल होते हैं। दुनिया के प्रायः देशों में अभिलेखागारीय रिकॉर्ड्स को सार्वजनिक किए जाने के लिए एक खास न्यूनतम अवधि बीत जाने का प्रावधान है, जो लगभग 70-80 साल है। ठीक वैसे ही जैसे नोबेल पुरस्कार के नॉमिनेशंस को सार्वजनिक किए जाने की न्यूनतम समय-सीमा 50 साल है। यह समकालीनता के भावुक पक्षों का ही रूप है।
यों समय भी एक मिथक ही है। इटली की भौतिकविद कार्लो रोवेली की किताब कुछ साल पहले आई थी-द ऑर्डर ऑफ टाइम यानी समय का क्रम। स्टीफन हॉकिंग की विश्व प्रसिद्ध, बेस्टसेलर किताब समय का संक्षिप्त इतिहास को विचार के स्तर पर कार्लो रोवेली की यह किताब आगे ले जाती है। किताब भौतिकी और दर्शनशास्त्र के संधिस्थल पर है, पर मैं इससे इतिहास के सबक निकालने की कोशिश करता हूं, तो पाता हूं कि समय को ऐसे समझना चाहिए कि समय को समझने की कोशिश ही न की जाए। पर क्या यह संभव है?
फिर तो यह उलटबांसी हुई, विरोधाभास हुआ। अल्बर्ट आइंस्टीन, ऑगस्टाइन से लेकर कार्लो तक ने माना कि समय पहाड़ों पर समंदरों के बजाय अलग तरह से गतिमान होता है। वही तय करता है कि हम कैसे जिएं। जब वैज्ञानिक रूप से समय की सत्ता ही नहीं है, तो अतीत और भविष्य का कोई भेद ही नहीं है! पर इतिहास के लिए समयबोध एक उपमा भी है, उपमान भी। इसलिए इतिहास लेखन की समकालिकता की चुनौती और चिंता 'नादान की दोस्ती, जी का जंजाल' मुहावरे से ही समझी जा सकती है।
सोर्स: अमर उजाला