हिंदी का अंध विरोध: हिंदी के दुश्मन हिंदी के दोस्त

तब अंग्रेजी अपने-आप चली जाएगी और संपर्क भाषा भी विकसित हो आएगी!

Update: 2022-10-31 02:19 GMT
एक दिन गृहमंत्री ने 'हिंदी' बोल दिया, तो 'हाय हाय' होने लगी, फिर एक दिन मेडिकल साइंस की तीन किताबों को 'हिंग्रेजी' में रूपांतरित कर उनका लोकार्पण कर दिया, तो हाय हाय होने लगी! इसे देख एक देसी अंग्रेज ज्ञानी ने तुरंत आरोप लगाया कि यह फिर से 'हिंदी-हिंदू' किया जा रहा है, तो दूसरा कहने लगा कि हिंदी थोपी जा रही है, हमारी भाषा सबसे पुरानी भाषा है, जबकि हिंदी तो कोई भाषा ही नहीं है। इसे हिंदी का सौभाग्य ही कहा जाएगा कि इतनी 'हीन' होने के बावजूद, बहुत-से ज्ञानियों के लिए हिंदी अब भी एक आफत की तरह है।
जब-जब उसका नाम लिया जाता है या उसके लिए जरा भी कुछ किया जाता है, तो तुरंत कुछ देसी अंग्रेज और दाक्षिणात्य तत्वों में आग लग जाती है और वे कहने लगते हैं कि हाय! हिंदी थोपी जा रही है! हमारी अपनी भाषा है, पहचान है, संस्कृति है, जबकि अंग्रेजी दुनिया की लिंक भाषा है...हिंदी भी कोई भाषा है? इसी क्रम में एक 'थिंकटैंक' ने 'वर्नाकुलर'; हिंदी को लेकर आंसू बहाए और कहा है कि अंग्रेजी ज्ञान की भाषा है, ताकत की भाषा है, विशेषाधिकार की भाषा है, जबकि वर्नाकुलर; हिंदी आदि देशज भाषाएं नाच-गाने की जातपांत की और दूसरे दरजे की भाषा है। इस संदर्भ में, हमारा पहला सवाल 'वर्नाकुलर' शब्द के औचित्य को ही लेकर है! सवाल है कि आजादी के इतने बरस बाद भी क्या हम अपनी संविधान स्वीकृत भाषाओं को 'वर्नाकुलर' कह सकते हैं? शायद नहीं।
जो भाषाएं संविधान स्वीकृत हैं, उनको वर्नाकुलर कहना एकदम अनुचित और अवैध है। ऐसे में, जो भारतीय भाषाओं को वर्नाकुलर बता रहे हैं, 'हीन' बता रहे हैं, मूलतः अंग्रेजों के द्वारा 'बनाए और बताए' भाषाविज्ञान को ही पेल रहे हैं। यह बात और किसी ने नहीं स्वयं एडवर्ड सईद ने ही अपनी किताब ओरियंटलिज्म में बताई है। यों भी, ऐसे महानुभावों से यह भी पूछा जा सकता है कि सैकड़ों-हजारों वर्नाकुलरों का मारा यह देश अब तक चलता कैसे रहा? क्या यह सिर्फ 'नाचता-गाता' रहा और जातपांत करता रहा? इसी से यह सवाल निकलता है कि क्या इन कथित 'वर्नाकुलरों' में कोई नीति विचार या ज्ञान विचार नहीं हो सकता। क्या ज्ञान सिर्फ अंग्रेजी में ही संभव है?
इस मामले में हमारा निवेदन है कि ये जो हर पांच बरस में चुनाव होते हैं, क्या बिना विचार के होते हैं? क्या जनता बिना ज्ञान विचार के ही किसी सरकार को चुन लेती है? तब क्या हम ये मानें कि आम जनता के पास विचार नहीं होते और वह बुद्धिहीन होती है और ज्ञान सिर्फ आप जैसे अंग्रेजों के पास ही हो सकता है? हमारी समझ में तो हर आदमी ज्ञानी होता है और इतना तो होता ही है कि वह अपने हित में काम करने वाले को चुन सके या अहित में काम करने वाले को न चुने। और अपने जनतंत्र में हर चुनाव एक प्रकार से किसी एक विचार या विचारों के समुच्चय का, एक नीति या नीतियों के पैकेज का ही चुनाव होता है। ऐसे में यह कैसे माना जा सकता है कि वर्नाकुलरों में जीने वाले आदमी के पास दिमाग नहीं होता, विचार नहीं होता, ज्ञान नहीं होता? इसलिए यह कहना, कि वर्नाकुलर सिर्फ नाच-गाने की और जातपांत की 'बोलियां' हैं, एक 'गढ़ा गया झूठ' है, ताकि वे अपने को हमेशा हीन ही समझती रहें और कभी अपने पैरों पर खड़ी होकर अंग्रेजी की बराबरी न कर सकें!
इस तरह हिंदी को लेकर चल रही समकालीन बहसों में एक ओर कुछ ज्ञानीजन हैं, जो हिंदी को नाना प्रकार से हीन बताते हैं, तो दूसरी ओर कुछ दाक्षिणात्य नेता हैं, जिनको हिंदी का नाम सुनते ही जूड़ी आती है और वे 'खतरा-खतरा' चिल्लाने लगते हैं। समकालीन हिंदी के 'अंध विरोध' का एक बड़ा कारण केंद्र में हिंदुत्ववादी सरकार का भी होना है, जिसके प्रधानमंत्री समेत अधिकांश नेता हिंदी भाषी हैं, जो 'संसद से सड़क तक' हिंदी बोलते हैं और प्रधानमंत्री तो विदेशों में भी हिंदी बोलते हैं। कई हिंदी द्वेषी इसे 'हिंदी साम्राज्यवाद' समझते हैं और कई हिंदुत्व से लड़ते-लड़ते हिंदी से ही भिड़ जाते हैं, जबकि हर हिंदू वाला हिंदुत्ववादी नहीं है!
लेकिन ठहरें! अब तक तो हिंदी पर ही बहस होती थी, अब हिंग्रेजी पर भी बहस होने लगी है। जब से सरकार ने मेडिकल की तीन किताबें 'हिंग्रेजी' में प्रकाशित की हैं, तब से अंग्रेजी न जानने वाले छात्रों में जहां खुशी की लहर है, वहीं ज्ञानियों के पेट में दर्द है। उनका कहना है कि ये किताबें शुरुआती पढ़ाई में तो काम आ सकती हैं, लेकिन उच्चतर शोध के पेपर लिखने के काम नहीं आ सकतीं, तब छात्र आगे क्या करेंगे? सेमिनारों में किस भाषा में पेपर पढ़ेंगे? ऐसे लोग अंग्रेजों के अनबोले गुलाम हैं, जो यही मानते हैं कि असली ज्ञान अंग्रेजी में ही हो सकता है, वे अंग्रेजों को कभी मजबूर नहीं करते कि जरा हिंदी पढ़कर आओ और हिंदी में भी सुनो।
एक जमाना था कि 'हिस्ट्री कांग्रेस' में सिर्फ अंग्रेजी में रिसर्च पेपर पढ़े जाते थे, जब दबाव पड़ा, तो हिंदी में भी लिखे-सुने जाने लगे! इसी तरह हिंदी के अंध विरोधी इस बात का भी जवाब नहीं दे पाते कि चीन, रूस, जर्मनी और फ्रांस में तो सब अपनी भाषाओं में काम करते हैं, तब अपने यहां क्यों नहीं हो सकता, तो जवाब आता है कि इसके लिए प्लानिंग और धन चाहिए, वह है नहीं। यानी जैसे हो, वैसे रहो, देशज भाषाओं की बात न करो! ऐसे लोग ये नहीं कहते कि मेडिकल की तीन हिंग्रेजी किताबें तो एक शुरुआत है, यह काम और आगे बढ़ेगा! इसलिए हिंदी न सही, हिंग्रेजी ही सही। यह भी हिंदी का एक संस्करण है। यही संसद से सड़क तक पर है, यही कक्षाओं में है, और यही कल को उच्चतर ज्ञान के क्षेत्रों में, 'नीति पत्रों' में होगी। हर भाषा इसी तरह मिक्स होकर, बदलकर आगे बढ़ी है, जब सब भाषाएं बढ़ेंगी, तब अंग्रेजी अपने-आप चली जाएगी और संपर्क भाषा भी विकसित हो आएगी!

सोर्स: अमर उजाला 

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