अब तो प्राथमिकता में आए स्वास्थ्य: देश में एक हजार लोगों पर केवल 1.7 नर्सें हैं और 1404 लोगों पर सिर्फ एक डॉक्टर

अब तो प्राथमिकता में आए स्वास्थ्य

Update: 2021-05-25 05:19 GMT

एनके सिंह : बीते दिनों इंटरनेट मीडिया पर एक फोटो वायरल हुई, जिसमें बिहार के एक गांव में एक झोपड़ी के बाहर स्वास्थ्य उप-केंद्र का कटा-फटा बोर्ड लगा है और वहां कुछ जानवर बंधे हैं। यह उप-केंद्र यहां पिछले 30 वर्षों से है। यहां की जनता ने आधा दर्जन से ज्यादा बार देश और राज्य की सरकारें चुनीं, कई बार अपना ग्राम प्रधान, ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत चुना, लेकिन इस केंद्र की बदहाली, डॉक्टर या दवा का न उपलब्ध होन कभी भी मुद्दा नहीं बना। उत्तर भारत के किसी अन्य गांव की भी कमोबेश यही स्थिति है। देश की राजधानी से सटे गाजियाबाद के इंदिरापुरम इलाके में भी एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र गांव के एक किराये के मकान में है, जहां जाने का रास्ता दुर्गम है। सरकारी योजनाओं में कागजों पर जारी त्रि-स्तरीय चिकित्सा सेवा के तहत देशभर में डॉक्टरों की नियुक्ति तो है, पर वे छठे-छमाही दर्शन देते हैं, बाकि समय घर पर प्रैक्टिस करते हैं।

कोरोना की तीसरी लहर की दहशत लोगों के दिलो-दिमाग को कुंद कर रही
इस बीच कोरोना की दूसरी लहर की विभीषिका पहली से भी ज्यादा रही और तीसरी लहर की दहशत लोगों के दिलो-दिमाग को कुंद कर रही है। पहली लहर के बाद कहां चूक हुई, किससे हुई, अब क्या करें कि यह स्थिति दोबारा न आए आदि सवाल जन-विमर्श पर तारी हैं, लेकिन कब तक? क्या 70 वर्षों में तिल-तिलकर अपने नौनिहालों को बौना/नाटा, कमजोर और मरते देख हमें यह समझ आया था कि असली जनमत का दबाव केवल सरकार की इस कल्याणकारी भूमिका पर होना चाहिए? क्या हम समझ सके कि सत्ताधारी दल द्वारा दी गई सेवाओं में किसी भी किस्म की कोताही उसे अगली बार ठिकाने लगाने का सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए? हम धर्म, जाति, उपजाति, भाषा, क्षेत्र के आधार पर बंटते रहे।

स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च जीडीपी का मात्र एक फीसद
नतीजा यह रहा कि स्वास्थ्य पर कुल सरकारी खर्च जीडीपी का मात्र एक प्रतिशत रहा, बाकि तीन प्रतिशत हम अपनी जेब से खर्च कर गरीबी की गर्त में बार-बार गिरते रहे। इस वर्ष के 365 पृष्ठ के आर्थिक सर्वेक्षण (भाग-2) में जहां उद्योग के लिए 42, कृषि के लिए 27 और सतत विकास एवं जलवायु के लिए 20 पृष्ठ समर्पित थे, वहीं स्वास्थ्य सामाजिक अंतरसंरचना, रोजगार और मानव विकास शीर्षक वाले अध्याय में केवल चार पृष्ठों में और शिक्षा का मुद्दा छह पृष्ठों में सिमट गया। स्वास्थ्य और शिक्षा को सरकारों द्वारा नजरअंदाज करने का यह सिलसिला आजादी के बाद से ही शुरू हो गया था। इसका कारण सरकार से ज्यादा हम स्वयं रहे।
उप-प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की बदहाली
भारत आजाद हुआ तो तत्कालीन नेताओं ने समानता का यूरोपीय मूल्य अपनाया, जिसमें हर नागरिक का वोट समान होता है, जबकि भारतीय समाज कई स्तर पर विभाजित था। यह भारत के लिए व्यावहारिक नहीं था। आभिजात्य वर्ग के प्रभाव के कारण नीचे के तबके ने या तो उदासीनता दिखाई या स्वयं भी धीरे से अपना रास्ता सामाजिक बराबरी के उचित मार्ग को छोड़कर वैयक्तिक स्वतंत्रता की ओर कर लिया। जो सामूहिक शक्ति इन उप-प्राथमिक केंद्रों में सुविधाएं उपलब्ध कराने में लगानी थी, वह उसकी जाति की पार्टी और अपनी जाति के नेता में लग गई। नतीजा उप-प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की बदहाली के रूप में सामने आया।
सरकारें बजट में अधिक खर्च का प्रविधान करें तो देश की जनता का बेहतर होगा स्वास्थ्य
सामान्य अवधारणा है कि सरकारें अपने बजट में अधिक खर्च का प्रविधान करें तो देश की जनता का स्वास्थ्य बेहतर होगा और नौनिहालों की शिक्षा अच्छी होगी। लिहाजा जब कभी चमकी बुखार से सौ-दौ सौ बच्चे मरते हैं, मस्तिष्क ज्वर किसी तराई के इलाके में सैकड़ों को लीलता है या कोरोना की लहर देशभर में कहर बरसाती है तो पूरे देश में विशेषज्ञ स्वास्थ्य के मद में प्रति-व्यक्ति खर्च की चीन से तुलना कर सरकारों की गलती बताते हैं और जनाक्रोश कुछ दिन परवान चढ़ता है।
एंबुलेंस के अभाव में महिला बीमारी से मरे अपने पति को ठेले पर लेकर जाती है
जब एंबुलेंस के अभाव में एक पत्नी बीमारी से मरे अपने पति को ठेले पर लेकर जाती है या आक्सीजन की कमी से मरे अपने बेटे की लाश पर एक पिता दहाड़मार कर रोता है तो जनता टीवी पर उसे देखकर कुछ समय के लिए सरकार से नाराज होती है, लेकिन कुछ ही दिनों में सब कुछ सामान्य हो जाता है, क्योंकि हम आदतन सरकारों की क्षमता को इस तराजू पर तौलते ही नहीं।
स्वास्थ्य और शिक्षा प्राथमिकता पर नहीं
इसका कारण यह नहीं है कि हम स्वास्थ्य या शिक्षा नहीं चाहते, बल्कि यह हमारी सोच में प्राथमिकता पर नहीं रहता। राज्य को हम आज भी पुलिस के डंडे की ताकत से नापते हैं। उसकी कल्याणकारी भूमिका दंडात्मक-शासकीय भूमिका से बड़ी है, यह बात आज भी हमारे मन-मस्तिष्क पर असर नहीं डाल सकी है।
जहां प्रति हजार आबादी डॉक्टरों की संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा है वहां बाल मृत्यु दर कम
स्वास्थ्य संबंधी अध्ययनों की मानें तो उन राज्यों में बाल मृत्यु दर कम है, जहां प्रति हजार आबादी डॉक्टरों की संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा है। उदाहरण के लिए बिहार और मध्य प्रदेश में कम डॉक्टर हैं, लिहाजा बाल-मृत्यु दर ज्यादा है, जबकि केरल, तमिलनाडु में स्थिति ठीक उलटी है। चूंकि भारत में निम्न जाति के लोग आर्थिक रूप से भी पिछड़े हैं, लिहाजा स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव सबसे ज्यादा उन्हेंं प्रभावित करता है।
भारत में एक हजार लोगों पर केवल 1.7 नर्सें हैं और 1404 लोगों पर एक डॉक्टर
इस तथ्य से भी परिचित होना आवश्यक है कि भारत में एक हजार लोगों पर केवल 1.7 नर्सें हैं और 1404 लोगों पर एक डॉक्टर। डब्ल्यूएचओ के पैमाने के अनुसार नर्सों की संख्या दोगुनी होनी चाहिए और डॉक्टरों की डेढ़ गुनी। एक अध्ययन के अनुसार भारत के 69,000 डॉक्टर और 56,000 नर्सें अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में सेवाएं दे रही हैं। क्या उन्हेंं बेहतर सेवा शर्तों के साथ वापस नहीं बुलाया जा सकता? सवाल यह भी है कि तमाम स्वास्थ्य कर्मी संविदा पर क्यों नियुक्त किए जाते हैं?
निम्न आय वर्ग में मरने वालों की संख्या अधिक
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे में बताया गया एक एक कटु सत्य देखें- पांच साल की आयु से कम में ही मरने वाले बच्चों का प्रतिशत अनुसूचित जाति (एससी) वर्ग में 55.9 है, अनुसूचित जनजाति ( एसटी) में 57.2, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में 50.9, लेकिन अन्य (यानी उच्च जाति वर्ग में) 38.5 प्रतिशत है। आर्थिक रूप से बनाए गए पांच आय वर्गों में देखा जाए तो सबसे निम्न आय वर्ग में यह प्रतिशत 71.7 है, जबकि सबसे ऊपर के आय वर्ग में यह मात्र 22.6 प्रतिशत है।
सरकार से स्वास्थ्य ढांचे पर खर्च बढ़ाने की मांग
ऐसे में सवाल कोरोना की तीसरी लहर में केवल सरकार से स्वास्थ्य ढांचे पर खर्च बढ़ाने की मांग की ही नहीं, बल्कि जो सेवाएं हैं उन्हेंं सरकारी कर्मियों के भ्रष्टाचार, लापरवाही का शिकार न बनने देने की भी है।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं )


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