ज्ञानवापी विवाद : पूर्व-इस्लामिक भारत में भी मंदिरों को नष्ट करने की घटनाएं आम थीं
11वीं शताब्दी के बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों ने जो किया वह राजनीतिक व्यवहार भारत के बड़े हिस्से में पहले से ही स्थापित था
राजेश सिन्हा |
11वीं शताब्दी के बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों (Muslim Invaders) ने जो किया वह राजनीतिक व्यवहार भारत के बड़े हिस्से में पहले से ही स्थापित था. इस्लाम और भारतीय इतिहास पर अपने लेख में प्रसिद्ध इतिहासकार रिचर्ड ईटन (Richard Eaton) ने जैन और बौद्ध मंदिरों के अलावा हिंदू राजाओं द्वारा हिंदू मंदिरों को नष्ट करने के कई उदाहरणों का वर्णन किया है. दूसरे राजा के मंदिर या देवता को लूटने और नष्ट करने का कारण संपूर्ण विजय स्थापित करना होता था. राजा अपनी शक्ति उस देवता से प्राप्त किया करता था, जिसकी वह पूजा करता था और राजा के अपने राजनीतिक अधिकार और उसके द्वारा पूजित देवता के बीच घनिष्ठ संबंध हुआ करते थे.
बार्ड कॉलेज (Bard College) में रिलिजन एंड एशियन स्टडीज के प्रोफेसर रिचर्ड एच डेविड (Richard H. David) अपने निबंध, इंडियन आर्ट ऑब्जेक्ट्स एज़ लूट (Indian Art Objects as Loot) में लिखते हैं, 'मध्यकालीन भारत के प्रचलित वैचारिक मान्यताओं के मुताबिक वह लोग विष्णु, शिव या दुर्गा को उपासक मानते थे क्योंकि ब्रह्मांड के स्वामी ने साम्राज्यों, राज्यों, क्षेत्रों, या गांवों जैसे सीमित क्षेत्रों में शासन का अधिकार इंसानों के मालिक यानी राजाओं को दिया है.' डेविड ने हिंदू राजाओं द्वारा मंदिरों के विनाश और लूट के कई उदाहरण दिए हैं. सातवीं शताब्दी में हिंदू पल्लव राजा नरसिंहवर्मन प्रथम (Pallava king Narasimhavarman I) ने वातापी की चालुक्य राजधानी से गणेश की मूर्ति को लूट लिया था. इसके पचास साल बाद, उत्तर में अपने हिंदू दुश्मनों के मंदिरों से लूटी गई गंगा और जमुना की मूर्तियों को हिंदू चालुक्य सेना अपने साथ वापस ले आई.
मंदिरों को खंडित करने का इतिहास पुराना है
कहा जाता है कि आठवीं शताब्दी में बंगाल की हिंदू सेना ने अपने शाही दुश्मन कश्मीर के हिंदू राजा ललितादित्य (Hindu king Lalitaditya of Kashmir) से संबंधित विष्णु की मूर्ति को नष्ट कर दिया था. दसवीं शताब्दी में, हिंदू प्रतिहार राजा हेरम्बपाल (Pratihara king Herambapala) ने कांगड़ा के हिंदू शाही राजा को हराया और कांगड़ा शाही मंदिर से विष्णु की एक ठोस सोने की मूर्ति को लूट लिया. ग्यारहवीं शताब्दी में, चोल शासक राजेंद्र प्रथम (Chola ruler Rajendra I) ने अपनी राजधानी को हिंदू देवताओं की मूर्तियों से सुसज्जित किया, जिन्हें उन्होंने अपने दुश्मनों, चालुक्यों, पालों और कलिंगों से छिना था.
सोलहवीं शताब्दी के विजयनगर शासक कृष्ण देव राय (Krishna Deva Raya) के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने उदयगिरि को करारी शिकस्त देने के बाद वहां से कृष्ण की मूर्ति लूट ली थी. यह भी कहा जाता है कि उसने प्रसिद्ध पंढरपुर मंदिर से विट्ठल मूर्ति भी लूट ली थी. अपने साथी हिंदू दुश्मनों के मंदिरों से मूर्तियां लूटने के अलावा, कई हिंदू राजाओं ने अपनी जीत का लोहा मनवाने के लिए अपने पराजित दुश्मनों के शाही मंदिरों को नष्ट कर दिया. इस प्रकार, दसवीं शताब्दी के राष्ट्रकूट राजा इंद्र III (Rashtrakuta king Indra III) ने अपने सबसे खतरनाक दुश्मन प्रतिहारों द्वारा कल्पा में संरक्षित कलाप्रिया मंदिर को नष्ट कर दिया.
इसी तरह, उड़ीसा में सूर्यवंशी गजपति वंश के संस्थापक कपिलेंद्र के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने तमिल देश में अपने सैन्य अभियानों के दौरान कई हिंदू मंदिरों को लूट लिया था. जैसा कि डेविड कहते हैं, 'इसमें कोई संदेह नहीं है कि मध्ययुगीन हिंदू राजाओं ने स्थापित हिंसात्मक आचरण के तौर पर अक्सर धार्मिक प्रतीकों को नष्ट करने का काम किया.' इस प्रकार, 11वीं शताब्दी के बाद से मुस्लिम आक्रमणकारियों ने जो किया वह भारत के बड़े हिस्से में पहले से ही स्थापित राजनीतिक व्यवहार का हिस्सा था.
बौद्ध मंदिरों को भी हिंदू मंदिरों में तब्दील किया गया है
प्रसिद्ध इतिहासकार रिचर्ड ईटन (Richard Eaton) बताते हैं कि मुस्लिम शासकों द्वारा मंदिर तोड़ने के जिन 60,000 मामलों का उल्लेख आजकल हिन्दुओं द्वारा किया जाता है, उनमें से केवल अस्सी मामलों की पहचान की जा सकी है 'जिसकी ऐतिहासिकता निश्चित तौर पर विश्वसनीय लगती है'. उनका आगे तर्क है कि मंदिरों को अंधाधुंध निशाना नहीं बनाया गया था. मुस्लिम शासकों ने मुख्य रूप से केवल उन्हीं मंदिरों पर फोकस किया जिसने उनके विरोधियों को संरक्षण दिया और इससे उनकी वैधता कम हो गई. ठीक उसी तरह जैसे कि पिछली शताब्दियों में लड़ने वाले हिंदू राजाओं ने किया था.
ईटन कहते हैं, 'यह स्पष्ट है कि भारत में मुस्लिम तुर्कों के आने से बहुत पहले मंदिर राजसी सत्ता के संघर्ष के लिए सामान्य ठिकाने हुआ करते थे. आश्चर्य नहीं कि तुर्क आक्रमणकारियों ने प्रारंभिक मध्ययुगीन भारत में अपने शासन की जड़ें जमाने का प्रयास करते हुए स्थापित पैटर्न का पालन किया और उसे जारी रखा.' हिंदू राजाओं द्वारा बड़ी संख्या में जैन और बौद्ध मंदिरों को नष्ट कर दिया गया था. हिंदू धर्म के पुनरुत्थान (revival) के नाम पर भारत में बौद्ध मूर्तियों, स्तूपों और विहारों को नष्ट कर दिया गया था. स्वदेशी और विदेशी साहित्यिक और पुरातात्विक स्रोत बौद्ध धर्म पर ढाए गए कहर की गाथा कहते हैं. बड़ी संख्या में बौद्ध विहारों को ब्राह्मणों ने हड़प लिया और हिंदू मंदिरों में परिवर्तित कर दिया.
जगन्नाथ मंदिर क्या बौद्ध मंदिर था
प्रो. शम्सुल इस्लाम कहते हैं कि हिंदुओं द्वारा अधिग्रहित बौद्ध मंदिरों में से सबसे प्रमुख पुरी में जगन्नाथ मंदिर है. इसकी पुष्टि करने के लिए कई हिंदू प्रतीकों का हवाला देते हुए वे कहते हैं, 'स्वामी विवेकानंद जिन्हें आरएसएस द्वारा हिंदुत्व की राजनीति और हिंदू भारत के पुनरुत्थान का प्रतीक माना जाता है, जो प्राचीन भारत के अतीत के सबसे बड़े नैरेटर भी थे, उन्होंने स्पष्ट रूप से घोषित किया कि जगन्नाथ मंदिर मूल रूप से एक बौद्ध मंदिर था'. विवेकानंद के अनुसार, 'किसी भी व्यक्ति के लिए जो भारतीय इतिहास के बारे में कुछ भी जानता है, जगन्नाथ का मंदिर एक पुराना बौद्ध मंदिर है. हमने इसे और दूसरों को अपने कब्ज़े में ले लिया और उसका फिर से हिंदूकरण कर दिया. हमें अभी भी ऐसा ही बहुत कुछ करना होगा." [Swami Vivekananda, 'The Sages of India' in The Complete Works of Swami Vivekananda, Vol. 3, Advaita Ashram, Calcutta, p. 264.]
हिंदुत्व कैंप के एक अन्य पसंदीदा बंकिम चंद्र चटर्जी (Bankim Chandra Chatterjee) कहते हैं, जगन्नाथ मंदिर का अभिन्न अंग 'रथ यात्रा' भी एक बौद्ध अनुष्ठान था, जो मूल बौद्ध मंदिर से लिया गया था. बंकिम चंद्र चटर्जी ने लिखा, 'मुझे बहुत ही उचित तौर पर पता है कि जगन्नाथ मंदिर में रथ उत्सव की शुरुआत का विवरण जनरल कनिंघम (General Cunningham) ने भीलसा टोप्स (Bhilsa Topes) पर अपने लेख में दिया है. उन्होंने बौद्धों के ऐसे ही त्योहार का जिक्र किया जिसमें बौद्ध धर्म के तीन प्रतीक- बुद्ध, धम्म और संघ – इसी तरह के वाहन में खींचे जाते थे, और मैं ऐसा मानता हूं कि ऐसा रथ यात्रा वाले मौसम में ही किया जाता था. यह सिद्धांत के समर्थन में एक तथ्य है कि रथ पर सवार जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा की मूर्तियां बुद्ध, धम्म और संघ के जैसी ही हैं, और ऐसा लगता है कि वे उनके ऊपर मॉडल किए गए हैं." [चटर्जी, बंकिम चंद्र, "ऑन द ओरिजिन ऑफ हिंदू फेस्टिवल्स" इन एसेज एंड लेटर्स, रूपा, दिल्ली, 2010, पृ. 8-9.]
प्रो. इस्लाम कहते हैं, केवल पुरी में बौद्ध मंदिर का हिंदूकरण नहीं हुआ. उन्होंने आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती (Swami Dayanand Saraswati) का उल्लेख किया जिन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में शंकराचार्य की वीरता का वर्णन करते हुए लिखा, 'दस वर्षों तक उन्होंने पूरे देश का दौरा किया, जैन धर्म का खंडन किया और वैदिक धर्म की वकालत की. आज के समय में धरती से जो भी टूटी हुई मूर्तियां खोद कर निकाली गई हैं, वे शंकर के समय में तोड़ी गईं थीं, जबकि जो पूरी मूर्तियां यहां-वहां ज़मीन के नीचे पाई जाती हैं, उन्हें जैनियों ने तोड़े जाने के डर से दफना दिया था और बाद में उन लोगों ने जैन धर्म को त्याग दिया. [स्वामी दयानंद सरस्वती, सत्यार्थ प्रकाश, अध्याय xi, पृष्ठ. 347.]
ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग बौद्ध धर्म का उत्पीड़क था
भारत के प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास के एक्सपर्ट प्रमुख इतिहासकार डीएन झा ने अपनी पुस्तक "अगेंस्ट द ग्रेन: नोट्स ऑन आइडेंटिटी, इनटॉलरेंस एंड हिस्ट्री" में कहा है, 'प्रतिद्वंद्वी धार्मिक प्रतिष्ठानों का विध्वंस और अपमान, और उनकी मूर्तियों का अनुचित उपयोग, इस्लाम के आगमन से पहले भारत में असामान्य नहीं था.' उनकी किताब के मुताबिक, 'हिंदुत्व की मूल धारणा यह है कि मुस्लिम शासकों ने अंधाधुंध हिंदू मंदिरों को ध्वस्त कर दिया और हिंदू मूर्तियों को तोड़ दिया. वे लगातार इस अफवाह का प्रचार करते हैं कि मुस्लिम शासन के दौरान 60,000 हिंदू मंदिरों को तोड़ दिया गया था, हालांकि उनमें से 80 से अधिक के विनाश के लिए शायद ही कोई विश्वसनीय सबूत हैं.'
'ब्राह्मणवादी ताकतों द्वारा बौद्ध स्तूपों, मठों और अन्य भवनों की अपवित्रता, विनाश और अनुचित उपयोग का सीमित सर्वे' प्रस्तुत करते हुए झा कहते हैं, 'इस तरह के विनाश के साक्ष्य अशोक के शासनकाल के अंत तक मिलते हैं, जिन्हें बौद्ध धर्म को विश्व धर्म बनाने का श्रेय दिया जाता है.' इस बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं, 'बारहवीं शताब्दी के कश्मीरी ग्रंथ कल्हण की राजतरंगिणी अशोक के पुत्रों में से एक जलौका का उल्लेख करती है. अपने पिता के विपरीत वह एक शैव था और उसने बौद्ध मठों को नष्ट कर दिया. यदि इसे मान्यता दी जाती है तो ऐसा लगता है कि श्रमण धर्मों (Shramanic religions) पर हमले या तो अशोक के जीवनकाल में या उनकी मृत्यु के तुरंत बाद शुरू हो गए थे.'
झा के अनुसार, 'श्रमणों के उत्पीड़न के अन्य प्रारंभिक साक्ष्य मौर्यों के बाद के काल से मिलते हैं, जो बौद्ध संस्कृत में लिखे गए ग्रंथ दिव्यवदान में दर्ज है. यह ग्रन्थ ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग का वर्णन करते हुए कहता है कि वह बौद्ध धर्म का महान उत्पीड़क था. कहा जाता है कि उसने साकला, जिसे अब सियालकोट के नाम से जाना जाता है, तक एक बड़ी सेना के साथ मार्च किया, स्तूपों को नष्ट किया, मठों को जला दिया और भिक्षुओं को मार डाला और जहां उसने श्रमण के प्रत्येक प्रमुख के लिए एक सौ दीनार का पुरस्कार देने की घोषणा की.'
भूतेश्वर और गोकर्णेश्वर, प्राचीन काल में बौद्ध स्थल थे
व्याकरण के महान ज्ञाता पतंजलि का साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए झा कहते हैं कि उन्होंने 'अपने महाभाष्य में स्पष्ट तौर पर कहा कि ब्राह्मण और श्रमण सांप और नेवले की तरह शाश्वत दुश्मन हैं. इन सभी को मिलाकर इसका अर्थ यह हुआ कि मौर्योत्तर काल में बौद्ध धर्म पर ब्राह्मणवादी हमले के लिए मंच तैयार किया गया था. खास तौर पर पुष्यमित्र शुंग के शासन काल में जिसने संभवतः अशोक के समय के खंभे वाले हॉल (Pillared Hall) और पाटलिपुत्र, आजकल पटना, स्थित कुकुताराम मठ (Kukutarama monastery) को नष्ट कर दिया.' इतिहासकार रोमिला थापर के अनुसार, हिंदू शासक पुष्यमित्र शुंग ने 84,000 बौद्ध स्तूपों को ध्वस्त कर दिया था, जिन्हें सम्राट महान द्वारा बनाया गया था. (रोमिला थापर, अशोक और मौर्य का पतन, लंदन, 1961, पृष्ठ 200).
झा आगे कहते हैं, 'मलबे की परतों और बौद्ध धर्म के कई केंद्रों, विशेष रूप से मध्य प्रदेश से हुए पलायन से बौद्ध स्मारकों पर शुंग हमले की संभावना का पता चलता है. उदाहरण के लिए, अशोक के समय से एक महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल सांची में शुंग काल के दौरान कई इमारतों को तोड़े जाने के प्रमाण मिले हैं. इसी तरह के सबूत कटनी जिले के सतधारा और रीवा जिले के देउरकोथर और उसके आस-पास के स्थानों से मिलते हैं.' इसके बाद, 'विदिशा के उत्तर-पूर्व में 250 किलोमीटर से अधिक दूर खजुराहो में एक बौद्ध प्रतिष्ठान मौजूद था, जो दसवीं शताब्दी के बाद से चंदेलों के शासन काल में प्रमुख मंदिर शहर के रूप में उभरा. ऐसा प्रतीत होता है कि यहां का घंटाई मंदिर (Ghantai temple) नौवीं या दसवीं शताब्दी में जैनियों द्वारा बौद्ध स्मारक के अवशेषों पर बनाया गया था, जिनकी इस क्षेत्र में भी मजबूत उपस्थिति रही होगी.
कुषाण काल के दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समृद्ध शहर मथुरा का साक्ष्य देते हुए झा कहते हैं, 'कुछ वर्तमान ब्राह्मणवादी मंदिर, जैसे भूतेश्वर और गोकर्णेश्वर, प्राचीन काल में बौद्ध स्थल थे. यहां कुषाण काल के दौरान बौद्ध केंद्र कटरा माउंड प्रारंभिक मध्ययुगीन काल में एक हिंदू धार्मिक स्थल बन गया.' इसके अलावा, इलाहाबाद के पास कौशाम्बी में, 'प्रसिद्ध घोसीताराम मोनास्ट्री (Ghositaram monastery) के विनाश और जलने का श्रेय शुंगों को, विशेष रूप से पुष्यमित्र को, दिया जाता है'. झा कहते हैं, 'वाराणसी के पास सारनाथ, जहां बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था, ब्राह्मणवादी हमले का निशाना बना. इसके बाद शायद गुप्त काल में मौर्य सामग्रियों का फिर से उपयोग करके ब्राह्मणवादी भवनों का निर्माण हुआ, जैसे कि कोर्ट 36 और ढांचा 136.'
छठी शताब्दी के हूण शासक मिहिरकुल शिव भक्त थे
गुप्त काल के दौरान पांचवीं शताब्दी की शुरुआत में भारत आने वाले चीनी तीर्थयात्री फाह्यान (Fa Hien) का हवाला देते हुए झा कहते हैं, श्रावस्ती में जहां बुद्ध ने अपना अधिकांश जीवन बिताया था, 'ऐसा लगता है कि ब्राह्मणों ने एक कुषाण बौद्ध स्थल को अनुचित उपयोग किया था, और वहां गुप्त काल के दौरान रामायण की पट्टिका के साथ एक मंदिर का निर्माण किया गया था.' झा कहते हैं, 'वास्तव में ऐसा मालूम पड़ता है कि आज के उत्तर प्रदेश में माहौल इतना ख़राब था कि अकेले सुल्तानपुर जिले में कम से कम 49 बौद्ध स्थल आग से नष्ट हो गए. पुरातत्वविद् एलोइस एंटोन फ्यूहरर (Alois Anton Führer) के एक पेपर में बताया है, 'ब्राह्मणवाद ने बौद्ध धर्म पर अपनी अंतिम जीत हासिल की'.
झा कहते हैं, गुप्त काल के बाद की शताब्दियों में चीनी बौद्ध तीर्थयात्री और यात्री ह्वेन त्सांग ने हर्षवर्धन के शासनकाल के दौरान 631 और 645 के बीच भारत का दौरा किया, 'कहते हैं कि छठी शताब्दी के हूण शासक मिहिरकुल शिव भक्त थे, जिसने 1,600 बौद्ध स्तूपों और मठों को नष्ट कर दिया और हजारों बौद्ध भिक्षुओं और सामान्य लोगों को मार डाला. वे हमें आगे बताते हैं कि गांधार में 1,000 संघरामा (Sangharamas) निर्जन या खंडहर में तब्दील हो गए थे, और उदियाना में 1,400 संघरामा को आम तौर पर बेकार और उजाड़ हो गए थे.'
फिर झा कहते हैं, 'हुआन त्सांग हमें बताते हैं कि गौड़ा के राजा शशांक ने बिहार के बोधगया में बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति के स्थान पर बोधि वृक्ष को काट दिया और स्थानीय मंदिर से बुद्ध की मूर्ति को हटा दिया, और इस जगह पर महेश्वर की मूर्ति लगाने का आदेश दिया. पाल शासकों की अवधि के दौरान बोधगया फिर से बौद्ध नियंत्रण में आ गया क्योंकि वे बौद्ध थे.' यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि बौद्ध धर्म की जन्म भूमि भारत में बहुत कम बौद्ध हैं. ऊपर जिन इतिहासकारों का ज़िक्र हुआ है, वे हिंदुत्व के समर्थकों द्वारा किए गए शातिर हमलों का निशाना रहे हैं, जिन्होंने उन पर तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करने और हिंदू धर्म को बदनाम करने का आरोप लगाया है. बावजूद इसके जिन सबूतों की ओर इशारा किया गया है, उन्हें केवल इसलिए नहीं छिपाया जा सकता है क्योंकि यह उनके एजेंडे के अनुरूप नहीं है. ऐसे में इस बात पर बल देने की आवश्यकता है कि ऐसे आरोप संस्कृति या इतिहास के बजाय राजनीतिक हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)