सेंट्रल विस्टा परियोजना पर कोरोना की दूसरी लहर के दौरान भी काम जारी रखने के लिए सरकार ने उसे आवश्यक सेवाओं में शामिल कर दिया था। इस बात के लिए सरकार की भारी आलोचना भी हुई थी। आलोचना का आधार यह था कि जब कोरोना ने देश को हिलाकर रख दिया है, तब इस परियोजना पर संसाधन नहीं खर्च किए जाने चाहिए। आलोचना करने वालों का कहना यह भी था कि आखिर इस परियोजना में इतना महत्वपूर्ण क्या है, जो इसे आवश्यक सेवा घोषित किया गया? सरकार का कहना यह है कि सेंट्रल विस्टा के सिर्फ उन हिस्सों पर काम चल रहा है, जिन्हें पहले ही मंजूरी दी जा चुकी थी और जिनके मद में पैसा आवंटित किया जा चुका था। यह काम और यह राशि पूरी सेंट्रल विस्टा परियोजना का एक छोटा हिस्सा है, इसलिए इससे कोई बड़ा आर्थिक भार सरकारी खजाने पर नहीं पड़ने वाला।
सरकार का के इस तर्क को भी अदालत ने मान लिया कि यह परियोजना राष्ट्रीय महत्व की है, क्योंकि इन इमारतों में हमारे गणतंत्र से जुडे़ विधायी काम होने हैं। इस नजरिए से भी यह जरूरी है कि ठेकेदार शापूरजी पालनजी ग्रुप ठेके में दर्ज तारीखों तक अपना काम पूरा कर सके। राजपथ पर निर्माण कार्य का नवंबर तक पूरा होना इसलिए भी जरूरी है कि जनवरी में गणतंत्र दिवस की परेड यहां आयोजित की जा सके। अदालत में इस याचिका पर बहस के दौरान काफी तीखे आरोप-प्रत्यारोप हुए। याचिकाकर्ताओं ने परियोजना पर काम करने वाले मजदूरों की स्थिति की तुलना नाजी जर्मनी के ऑशविट्ज यातना शिविरों से की, तो सरकार ने यह आरोप लगाया कि यह जनहित याचिका की आड़ में परियोजना रोकने की कोशिश है और इसलिए याचिकाकर्ताओं को ऐसा दंड मिलना चाहिए, जो सबक सिखा सके। अदालत ने सरकार के पक्ष को सही ठहराते हुए याचिकाकर्ताओं पर एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया। यह याचिका और इससे जुड़ा विवाद सेंट्रल विस्टा परियोजना को लेकर चल रहे विवाद का एक अध्याय है। इस विवाद के एक पक्ष में सरकार और उसके समर्थक हैं, तो दूसरी ओर जो लोग हैं, उनमें विपक्षी दल हैं, कई पर्यावरणविद, इतिहासकार और लेखक हैं। यह विवाद अभी आगे चलता रहेगा और आखिरकार देखने की असली बात यही होगी कि जनमानस में इस भव्य और महत्वाकांक्षी परियोजना की क्या छवि बनती है।