एंट्रिक्स पूर्णरूप से भारत सरकार का उपक्रम है, जो इसरो की वाणिज्यिक इकाई के रूप में काम करता है। वहीं देवास मल्टीमीडिया एक निजी, परंतु पूर्ण रूप से भारतीय कंपनी है। इसरो के कुछ वैज्ञानिकों ने अमेरिकी निवेशकों के साथ मिलकर 2004 में बेंगलुरु में एक स्टार्टअप के रूप में इसकी स्थापना की थी। इसके पहले चेयरमैन एमजी चंद्रशेखर इसरो के वैज्ञानिक सचिव रह चुके थे। देवास में इसरो के कई और वैज्ञानिक भी कार्यरत थे। यह तब की बात है जब भारत में इंटरनेट आसानी से उपलब्ध नहीं था और इसरो द्वारा जीसेट-6 और जीसेट-6ए उपग्रह लांच किए जाने थे। इससे जारी स्पेक्ट्रम एस बैंड से सेना को हर समय इंटरनेट उपलब्ध हो जाता। अपनी स्थापना के अगले वर्ष ही 2005 में देवास ने एंट्रिक्स के साथ एक सौदा किया। इसे इसरो के तत्कालीन चेयरमैन जी माधवन ने किया, जो एंट्रिक्स के भी चेयरमैन थे। इस सौदे के अनुसार एंट्रिक्स ने इसरो द्वारा भविष्य में लांच किए जाने वाले दोनों सैटेलाइट से जारी एस बैंड स्पेक्ट्रम के अधिकारों को मात्र 30 करोड़ डालर में देवास को 12 वर्षों के लिए बेच दिया, परंतु सौदे को गुप्त रखा गया। उल्लेखनीय है कि इसरो अंतरिक्ष विभाग के अंतर्गत आता है, जिसका प्रभार सीधे प्रधानमंत्री के पास होता है। इसकी भावी परियोजनाएं बेहद गुप्त रखी जाती हैं। ऐसे में सबसे पहले तो यही सवाल उठा कि उक्त दोनों उपग्रहों के बारे में देवास को कैसे पता चला और यदि भारत सरकार को कोई सौदा करना ही था तो सार्वजानिक नीलामी के रूप में किया जाना चाहिए था।
2009 में जी माधवन के सेवानिवृत्त होने के बाद जब के राधाकृष्णन इसरो के चेयरमैन बने तब उन्हें इसका पता चला कि जिस स्पेक्ट्रम का अधिकार केवल भारतीय सेना के लिए सुरक्षित होना चाहिए, उसे पहले ही निजी कंपनी को बेच दिया गया है। इससे देश की आंतरिक सुरक्षा को भी खतरा हो सकता था। यह भी उल्लेखनीय है कि देवास को आश्चर्यजनक रूप से 56 करोड़ डालर का विदेशी निवेश भी प्राप्त हो चुका था। फरवरी 2011 में पहली बार यह सौदा सार्वजनिक जानकारी में आया। तब संप्रग सरकार का मुश्किल दौर चल रहा था। मनमोहन सरकार बहुचर्चित 2जी घोटाले सें घिरी हुई थी। ऐसी स्थिति में एक और घोटाले के उजागर होने पर सरकार ने आननफानन में इस सौदे को निरस्त कर दिया। विपक्ष के दबाव के चलते सरकार को दो जांच समितियां गठित करनी पड़ीं। इन समितियोंं ने इस सौदे को गैरकानूनी घोषित कर दिया। 2014 में सीबीआइ ने देवास-एंट्रिक्स सौदे को जालसाजी घोषित करते हुए जी माधवन को गिरफ्तार किया और इस घोटाले की परतें खोलीं। इसके बाद देवास अमेरिकी अदालत में पहुंच गई। वहां भारत सरकार की कमजोर पैरवी के चलते अमेरिकी अदालत ने 2015 में भारत सरकार के खिलाफ फैसला सुना दिया। उसने देवास को भारी-भरकम हर्जाना चुकाने को कहा और हर्जाना न चुकाने की स्थिति में 18 प्रतिशत सालाना ब्याज का प्रविधान भी किया, जो 2020 में 1.2 अरब डालर तक पहुंच गया था।
जैसे प्रत्येक देश के मध्यस्थता न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले को भी स्वदेश के न्यायालय द्वारा लागू किया जाता है, उसी प्रकार विदेशी न्यायालय के फैसले का हवाला देते हुए देवास ने नेशनल ला ट्रिब्यूनल अपीलेट कोर्ट में अपील की, परंतु वर्तमान सरकार द्वारा मामले की दृढ़ता से पैरवी करने और पुरानी रिपोर्ट के हवाले से यह सिद्ध हो गया कि देवास-एंट्रिक्स सौदा न केवल एक धोखा था, बल्कि यह भी स्पष्ट हुआ कि देवास कंपनी की स्थापना ही धोखेबाजी के लिए की गई थी। इस पूरे प्रकरण में यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी देश की स्वदेशी तकनीक और संसाधन यदि सरकार के नियंत्रण से बाहर चले जाएं तो देश की सुरक्षा के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं। संप्रग सरकार में हुए 2जी घोटाले और देवास-एंट्रिक्स सौदे से जुड़े घोटाले इसके प्रत्यक्ष प्रमाण भी हैं। ऐसे में अब समय आ गया है कि भारत सरकार बदलते परिवेश में भविष्य की चुनौतियों को देखते हुए डीआरडीओ और इसरो समेत सभी भारतीय अनुसंधान उपक्रमों से जुड़ी नियमावली की समीक्षा करते हुए एकात्मक नियंत्रण प्रणाली विकसित करे, ताकि भविष्य में किसी तरह की गड़बड़ी के लिए गुंजाइश न रहे।