अलविदा सागर सरहदी: यादों की इन सरहदों को तोड़ दुनिया से बह निकले 'सागर'
सागर सरहदी नहीं रहे
सागर सरहदी नहीं रहे। कहने, बताने या लिखने को ये सिर्फ एक और समाचार भर हो सकता है। लेकिन, ऐसा है नहीं। पाकिस्तान के गंगा सागर तलवार का हिंदुस्तान का सागर सरहदी हो जाना आसान नहीं है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में दो लोग बड़े से बड़े धन्नासेठ को भी गालियां देकर बातें करने के लिए चर्चित रहे हैं।
एक सुपर सिनेमा ट्रेड मैगजीन के संपादक विकास मोहन और दूसरे सागर सरहदी। और, दोनों से जब भी सामना हुआ दोनों ने अपनी वाणी पर हमेशा नियंत्रण रखा। इस एक अदद बात भर से दोनों के लिए मेरे मन में हमेशा बहुत ही अपनापन, स्नेह और सम्मान रहा। विकास मोहन को गुजरे अरसा हो चुका है।इतवार दिन ढले सागर भी अपनी सरहदें तोड़ दुनिया से बह निकले।
स्मृतियोंं केे बीच सागर
सागर सरहदी का जाना उस युग की आखिरी कड़ियों की निशानी हैं, जिसमें कभी साहिर के शेर, संतोष आनंद के गीत, कैफी आजमी की नज्में और सागर सरहदी के संवाद गूंजा करते हैं। मुंबई में अपने मिलने वालों को फिल्म 'सिलसिला' की शूटिंग का वह किस्सा अक्सर सुनाते जिसके मुताबिक कश्मीर में इस फिल्म की शूटिंग के दौरान अपने किरदार के लिए लिखे संवादों पर अमिताभ बच्चन उनकी खूब आवभगत किया करते थे। पास बैठे होते तो पैरों पर हाथ भी फिराते। ये और बात है कि दोनों के बीच वैसा रिश्ता कभी नहीं जैसा अमिताभ का अपने दूसरे सहकर्मियों के साथ रहा। खासतौर से जावेद अख़्तर के साथ। सागर का मानना था कि लेखक की रीढ़ का सीधा रहना ही उसके लेखक होने की निशानी है।
अस्पताल से हाल के बरसों में उनकी जान पहचान गाढ़ी होने लगी थी। छह सात साल पहले वह काफी बीमार भी पड़े थे और नीम बेहोशी में बड़बड़ाने लगे थे। लेकिन, मौत से भी वह आंख में आंख डालकर बातें करने के लिए तैयार रहते।
दवाइयों के असर से याददाश्त उनकी कमजोर भले हो चली हो लेकिन किस्से याद दिलाने पर उन्हें इंसान भी याद आ जाते थे। अमिताभ बच्चन का किस्सा चलने पर वह सीधे बोलते, 'राइटर सुपरस्टार तो बना सकता है, लेकिन कोई सुपरस्टार चाहकर भी राइटर नहीं बन सकता। उसके लिए साधना की जरूरत होती है।'
आखिरी तक आवाम से जुड़े रहे
दो साल पहले उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा था, 'मैं सोता हूं और जागता हूं, और जाग के फिर सो जाता हूं, सदियों का पुराना खेल हूं मैं, मैं मर के अमर हो जाता हूं।' अली सरदार जाफरी की लिखी ये लाइनें सागर सरहदी ने अपने दोस्त खय्याम के लिए लिखी थीं। सागर यारों के यार थे। बहुत दिलदार थे। वह आपसे पचास साल पहले के सिनेमा पर भी वैसे ही बातें कर सकते थे, जैसे ऋतिक रोशन की फिल्मों के बारे में। युवाओं से मिलना उन्हें खास पसंद था।
उनका कहना था कि अमिताभ बच्चन से लेकर शाहरुख खान और ऋतिक रोशन तक सब मुझे कुछ न कुछ सिखाकर ही गए। जैसे यश चोपड़ा से उनकी बाद में नहीं निभी, वैसे ही राकेश रोशन भी कभी उनकी पसंदीदा फिल्मी हस्तियों की सूची में शुमार नहीं रहे। वे कहते, बड़े से बड़े सितारों ने मुझे इज्जत बख्शी ये क्या कम है, मैंने तीन पीढ़ियों के साथ काम किया और कामयाब काम किया है, इससे ज्यादा मुझे जिंदगी से कुछ चाहिए भी नहीं था।
ये बातें तो सागर को जानने वाले शुरू से जानते रहे हैं कि उनकी ख्वाहिशें कभी आसमान नहीं छूने पाईं। तमाम शोहरत हासिल करने के बाद भी वह सायन के अपने घर से अंधेरी लोकल ट्रेन से आ जाते। अंधेरी के अपने दफ्तर से वह अंधेरी स्टेशन तक पैदल भी चले जाते। वजह पूछो तो बताते, जिसके लिए लिखते हो, उससे नहीं मिलोगे तो उसके लिए कैसे लिखोगे। वह जनसंवाद के सबसे बड़े पैरोकार थे। वह सिखाते कि लिखना है तो जीना सीखो। जीना सीखना है तो लोगों से घुलना मिलना सीखो। वह फकीराना तबीयत के इंसान थे।
फिल्मों की दुनिया में रहकर नहीं हुए फिल्मी
फिल्मी दुनिया में रहते हुए भी बिल्कुल नॉन फिल्मी। आज के दौर के लिए एक अजूबा शख्सीयत थे। अपनी बिरादरी की इज्जत न मिलने से भी वह अक्सर दुखी रहते। मीना कुमारी ने एक बार कुछ कह दिया था उनकी राइटिंग को लेकर तो तपाक से बोले थे, मैंने कभी आपकी एक्टिंग पर कुछ कहा। मुझे एक्टिंग का कुछ नहीं मालूम तो मेरा कुछ कहने का हक भी नहीं बनता। वैसे ही एक्टर को अगर राइटिंग का अलिफ बे भी नहीं पता तो उसे किसी की राइटिंग पर कमेंट करना का क्या हक भला।
1976 में रिलीज़ हुई फ़िल्म 'कभी कभी' से घर-घर मशहूर हुए सागर सरहदी ने यशराज फिल्म्स के लिए इसके बाद 'नूरी', 'चांदनी', 'सिलसिला' और 'फासले' भी लिखीं। वह फ़ारूख़ शेख, स्मिता पाटिल और नसीरूद्दीन शाह जैसे सितारों से सजी फ़िल्म 'बाज़ार' के निर्देशक भी थे।
'बाज़ार' के सीक्वेल की वह पटकथा भी लिख चुके थे और अविनाश दास से इसका निर्देशन करवाना चाहते थे। पत्रकार रामजनम पाठक की लिखी कहानी पढ़कर वह उनसे मिलने मुरादाबाद पहुंच गए थे। इस कहानी पर बनी फिल्म 'चौसर' में नवाजुद्दीन सिद्दीकी हैं, अमृता सुभाष भी हैं। फिल्म रिलीज नहीं हो पाई। इसका दर्द उन्हें बहुत रहा। दर्द का उनसे दोस्ताना शुरू से रहा है।
दिल्ली के शरणार्थी शिविरों से लेकर मुंबई की झोपड़पट्टियों में बिताए गुरबत के दिनों ने उन्हें शादी से दूर कर दिया। वह खुद संघर्ष कर रहे थे। किसी दूसरी जान को अपने साथ दुनिया जहान में घसीटते नहीं फिरना चाहते थे। आखिर तक अविवाहित ही रहे। पर इश्क मोहब्बत की बातें खूब करते। एक बार गिनने बैठे तो दाहिने हाथ की अंगुलियों के पोर कम पड़ गए थे, अपनी माशूकाओं के नाम गिनने में। ऐसे जिंदादिल थे सागर सरहदी।
सिनेमा ने उन्हें भले 'सिलसिला' से जाना हो, लेकिन साहित्य में उनकी आमद की धमक लघुकथा 'रक्खा' से हो चुकी थी, यही कहानी बाद में फिल्म 'नूरी' बनी। उनके लिखे नाटक 'भगत सिंह की वापसी', 'ख्याल की दस्तक', 'राज दरबार' और 'तन्हाई' बेशुमार पाठकों तक पहुंचे हैं और इनके मंचन को लाखों लोगों ने देखा है। उन्होंने अभी कुछ साल पहले भी एक नाटक मुंबई में पेश किया था, 'ऐ मोहब्बत'। मोहब्बत उनको लिखने से रही। पढ़ने से रही और अपने जानने वालों से रही। और, दुश्मनी? उनसे पूछो तो पूछते, वो क्या होती है?
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।