अलविदा लता मंगेशकर: कुदरत के करिश्मे का खामोश होना

रेडियो के उद्घोषक ने रेकॉर्ड पर देखा, तो गायिका का नाम लिखा था कामिनी। प्रसारित हुआ नाम कामिनी

Update: 2022-02-07 05:42 GMT
बिस्मिल्लाह खान साहब से लता मंगेशकर जी का जिक्र छेड़ते ही उन्होंने कहा था, 'लता की आवाज में कुदरत बोलता है।' दिलीप कुमार साहब से पूछा, तो उन्होंने कहा, 'लता की आवाज कुदरत की तखलीक का एक करिश्मा है।' और जब खुद लता जी से पूछा था, तो हंसते हुए उन्होंने कहा था, 'ईश्वर से पूछिए न, वही बता सकते हैं। वर्ष 1949 में जब ऑल इंडिया रेडियो से आएगा आने वाला गाना प्रसारित हुआ था, तब पूरे देश ने एक साथ पूछा था कि यह आवाज किसकी है।
रेडियो के उद्घोषक ने रेकॉर्ड पर देखा, तो गायिका का नाम लिखा था कामिनी। प्रसारित हुआ नाम कामिनी। श्रोताओं को विश्वास नहीं हुआ। वे उन दिनों की राजकुमारी, उमा देवी और अमीर बाई कर्नाटकी की आवाज से परिचित थे, लेकिन यह आवाज बिल्कुल मीठी, ताजा और अलग थी। वे मुग्ध कर देने वाली इस आवाज की मलिका का नाम जानने को बेचैन हो गए। रेडियो के अधिकारियों ने रेकॉर्ड कंपनी से जानकारी ली। वे भी गायिका कामिनी को ही बता रहे थे। तब इस फिल्म के निर्देशक कमाल अमरोही से पूछा गया, तो पता चला, गायिका हैं लता मंगेशकर। फिल्म महल के लिए खेमचंद प्रकाश ने लता जी से यह गाना गवाया था, जो उमा देवी को गाना था। गाना लोकप्रिय हुआ, फिल्म हिट हुई और इस गाने से लता श्रोताओं में प्रिय हुईं।'
यह सब बताते हुए लता जी उदास हो गईं। उन्होंने कहा, 'फिल्म और फिल्म का संगीत, दोनों लोकप्रिय हुआ, लेकिन फिल्म के प्रदर्शन से पहले ही खेमचंद प्रकाश हमें छोड़कर चले गए। वह मुझे एक और फिल्म के सभी गाने गाने के लिए तैयार कर रहे थे। मैं भेंडी बाजार घराने के उस्ताद से राग गायन सीखती थी उन दिनों। फिल्म में कलाकार को ही गाना पड़ता था यानी पार्श्व गायन अभिनेता-अभिनेत्री को ही करना पड़ता था। फिल्म में सुरैया को अभिनय करना था और गाना था, लेकिन वह दूसरी फिल्मों में व्यस्त होने के कारण इसमें काम नहीं कर पा रही थीं। तब अशोक कुमार के कहने से कामिनी की भूमिका निभाने के लिए कमाल साहब ने मधुबाला जी से अनुरोध किया। मधुबाला जी ने कामिनी की भूमिका निभाई, तो रेकॉर्ड पर गायिका का नाम अंकित हो गया कामिनी। कंपनी को लगा कि पर्दे पर कामिनी ही गा रही है। मधुबाला भी उस समय तक लोकप्रिय नहीं हुई थी। और फिर, उस जमाने में नए कलाकारों का नाम तुरंत ब्रॉडकास्ट नहीं होता था।'
लता जी यह सब बता रही थीं और मुझे लग रहा था कि मैं कोई गद्य कोमल सुर में सुन रहा हूं। सत्यजीत रे ने एक बार एक बातचीत के दौरान जब ध्यान दिलाया था कि देश में किशोर कुमार अकेले पार्श्व गायक हैं, जिनकी आवाज गाते समय भी वही रहती है, जैसी बात करते समय, वह बदलती नहीं, तब पहली बार इस तथ्य की ओर ध्यान गया था। लेकिन लता जी से करीब तीन घंटे तक बात करने के दौरान या बाद में भी यह नहीं लगा कि दो आवाजें हैं। वह जब 40 और 50 के दौर में चली जातीं, तो आवाज और सुरीली हो जाती। क्यों, यही जानने की कोशिश में मेरे प्रश्न थे। 'गायन के लिए आवाज पहली खूबसूरती होती है। राजकुमारी, सुरैया, नूरजहां, शमशाद बेगम, मुबारक बेगम, उमा देवी, अमीर बाई कर्नाटकी, खुर्शीद आदि के बीच अपनी आवाज से बिल्कुल अलग सुनाई देना तो पहचान बना लेता है, लेकिन सुनने वाले का दिल जीतने के लिए आवाज ही काफी नहीं', वह बता रही थीं, 'सुर की नासमझ और उच्चारण दोष अच्छी आवाज को भी कुरूप दिखा सकती है।
लोकल ट्रेन में जब यूसुफ भाई (दिलीप कुमार) से मेरा परिचय कराया गया, तो नाम सुनते ही उनके मुंह से निकला, अच्छा, मराठी लड़की, यानी दाल-भात खाने वाली। सुनकर तो बुरा लगा था, लेकिन अगले दिन से ही मैं एक मौलवी से उर्दू सीखने में जुट गई, क्योंकि मैंने यूसुफ भाई का इशारा पकड़ लिया था। दाल-भात खाने वाली लड़की-यानी उर्दू शब्दों का उच्चारण सही नहीं होगा। फिर मैंने अमान अली खान साहब से शास्त्रीय संगीत की तालीम ली। अमीर खान साहब के पिताजी और अंजनी बाई मालपेकर इसी घराने से जुड़े थे, आप जानते ही हैं।'
लखनऊ में वर्ष 1994 में लता मंगेशकर को बेगम हजरत महल पार्क में सम्मानित किया गया था। उसी रात ये बातें हम उनसे होटल में सुन रहे थे। उन्हें सुनना कई आस्वाद को एक साथ सहेजना था। उनकी मीठी आवाज, जेहन में संजोई इस आवाज से जुड़ी स्मृतियों की आवाज और फिर उनके जीवित एहसास के पुराने खंडहर से धीरे-धीरे बाहर आती यादों की आवाज। किसी की पुकार की स्मृति में उस आवाज की स्मृति भी सुनाई देती है। इस आवाज को कानों से सुनने की बचपना कोई नहीं करता। सिर्फ सुनाई देती है पुकार। जैसे कुमार गंधर्व की पुकार। 1950 और 60 के दशकों में लता पूरे देश की सुरीली आवाज बन गईं। एम. एस. सुबुलक्ष्मी के बाद आधुनिक भारत की संस्कृति लता की उपस्थिति से चिह्नित होती गई। अब देश की आत्मिक स्वरलिपि और हस्तलिपि, दोनों में एक ही गीत लिखा रहता, लता मंगेशकर। संगीत का ऐसा उत्कर्ष देश ने पहले कभी नहीं देखा था। लता की मुस्कान और रुदन में देश मुस्कराता और रोता था।
मनुष्य में जो गाता हुआ मन है, उसकी वह प्रतिनिधि थीं। सचिन देव बर्मन, नौशाद, मदन मोहन, सी रामचंद्र, रोशन, सलिल चौधुरी, हेमंत कुमार और राहुल देव बर्मन को अपने स्वर में श्रद्धांजलि लता जी ने ही दी थी। इन सभी से जुड़े हजारों किस्से वह उस एक रात में सुना देने को व्यग्र हो उठी थीं, लेकिन उनकी आवाज को आराम मिले, मेरे इस अनुरोध को उन्होंने अंततः स्वीकार कर लिया। वह अचानक कह बैठीं, 'सब तो एक एक कर चले गए। मुझे सबके साथ जीना पड़ा और श्रद्धांजलि देनी पड़ी। मुझे कौन देगा श्रद्धांजलि!' उनके स्वर में अब मौन घुलने लगा था। वह कह रही थीं, 'दरअसल अभी-अभी श्रद्धांजलि रेकॉर्ड तैयार हुआ और पंचम (राहुल देव बर्मन) के लिए बोलकर आ रही हूं। पंचम के पास अभी बहुत सुर थे। लेकिन वे सब सुर उसके साथ ही चले गए। मैंने तो सिर्फ गाया। सुर तो इन सब (संगीकारों) के पास थे। जब संगीतकार ही नहीं रहे, तो इस आवाज का क्या? अब मैं सिर्फ सुनना चाहती हूं, मौन रहना चाहती हूं।' लता मंगेशकर की उस आवाज में तब एक करुण पुकार थी। मीठी और मधुर होकर भी इस समय कुदरत की यह आवाज दर्द के सुर में सुनाई दे रही है।
अमर उजाला 
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