तपा देने वाली गर्मी, कंपा देने वाली ठंड और बहा ले जाने वाली बारिश की आदत डाल लें

कांग्रेस की तरह इसलिए कि जिन राहुल गांधी की अगुआई में दस साल से हारे जा रहे थे

Update: 2022-05-19 08:37 GMT
नवनीत गुर्जर का कॉलम: 
पूरब के चूल्हे को आजकल कौन जला रहा है? जाने कौन-सी पवन उसमें फूंकें मार रही हैं? आंच- बल्कि कहना चाहिए ताप- घर-आंगन और चौखट ही नहीं, मन के भीतर तक चीरे जा रहे हैं।
कहते हैं आकाश बड़े, बूढ़े बाबा की तरह सबको कुछ देकर जाता है, लेकिन इस गर्मी में तो उसकी भी कनपटी के नीचे के बाल पक-से गए हैं। पानी से रीते सफेद बादलों से घिरा हुआ आकाश भी बूढ़ा दिखाई देता है। सूरज तो जैसे आग का गोला बना हुआ है। उसे कोई कहने-सुनने वाला नहीं है। अगर उसे ताप से निजात दिलाना हो तो गीले कपड़े में लपेटकर पत्थर पर पछीटें। अगर उसे ठंडक चाहिए हो तो फ्रिज के ऊपर वाले हिस्से यानी
फ्रिजर में रखकर भूल जाएं। आखिर करें तो क्या करें इस तपिश से उबरने के लिए? एक तरफ मौसम विज्ञानी हैं कि रोज कोई न कोई भविष्यवाणी कर देते हैं और बेचारे रोज ही झूठे पड़ जाते हैं। कभी वो कहते हैं कि चार दिन पहले आएगा मानसून, फिर कहते हैं फलां जगह तो आ ही चुका। अते-पते कुछ रहते नहीं। कांग्रेस की तरह धूल में लट्ठ घुमाए रहते हैं।
कांग्रेस की तरह इसलिए कि जिन राहुल गांधी की अगुआई में दस साल से हारे जा रहे थे, उन्हीं राहुल को अब नए चिंतन शिविर में फिर से अगुआ बना दिया गया है। नाम किसी का भी हो, छत्रछाया में गांधी परिवार के ही रहना है। दरअसल, कांग्रेस की उम्र अब पूरी हो चुकी लगती है। कुछ राज्यों में सरकारें हैं जरूर लेकिन अगले चुनाव में इनमें से कितनी बचेंगी, कहा नहीं जा सकता।
कभी कहा जाता था कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक कांग्रेस हर खेत की मिट्टी में रची- बसी हुई है। अब लगता है उन्हीं खेतों में दब गई है। मिट्टी के सिवाय कुछ बचा नहीं है।
खैर, बात गर्मी और बढ़े हुए तापमान की हो रही थी, जिससे हर कोई हैरत में है। लेकिन ऐसा ताे होना ही था। भीतर तक तपा देने वाली गर्मी, हाड़ कंपा देने वाली ठंड और सबकुछ बहा ले जाने वाली बारिश को अब हमें आदत में ढाल लेना चाहिए। क्योंकि वातावरण को, प्रकृति को जब हमने ही संतुलित नहीं रहने दिया है तो यह सबकुछ भला सामान्य कैसे रह सकता है! क्योंकि नदी से हमें पानी नहीं, रेत चाहिए। पहाड़ों से हमें औषधि नहीं, बल्कि पत्थर चाहिए। पेड़ों से छाया नहीं, लकड़ी चाहिए और खेतों से अन्न नहीं, नकद फसलें चाहिए। परिणाम सामने है।
रेत उलीचने के चक्कर में तमाम मीठे कुएं हमने औंधे कर दिए। याएं सारी काट-काटकर बेच डालीं।
नदियों-नालों को पाट दिया और उन पर कॉलोनियां काट दीं।
लाखों-करोड़ों में बेच डाला मनुष्य के जीवन के इन अभिन्न अंगों को।
अब बेहद गर्मी पड़ रही है तो झेलिए। झेलना ही पड़ेगा। सिवाय इसके चारा ही क्या है।
अब भी संभल सकते हैं। पानी-बिजली बचाकर। पेड़ लगाकर। आखिर हम कोई कांग्रेस तो हैं नहीं कि एक बार हारें तो बस फिर लगातार हारते ही चले जाएं। …और तब तक सबक न लें, जब तक कि पूरी तरह से नेस्तनाबूद न हो जाएं। बहरहाल, सूरज अपना रौद्र रूप दिखा रहा है। उसके इस रूप को सहन करने के अलावा हमारे पास दूसरा कोई रास्ता नहीं है।
सामने हैं नतीजे
नदी से हमें पानी नहीं, बल्कि रेत चाहिए। पहाड़ों से हमें औषधि नहीं, बल्कि पत्थर चाहिए। पेड़ों से छाया नहीं, बल्कि लकड़ी चाहिए। और खेतों से अन्न नहीं, बल्कि नकद फसलें चाहिए। परिणाम सामने है।
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