गणगौर: प्रकृति और संस्कृति का अभिवादन

भक्ति और श्रृंगार में डूबी लोक गीतों और नृत्यों की छवियों से जब हमारा सामना होता है

Update: 2022-03-24 11:53 GMT

विनय उपाध्याय

भक्ति और श्रृंगार में डूबी लोक गीतों और नृत्यों की छवियों से जब हमारा सामना होता है तो उनकी जीवंतता हमें ऐतिहासिक अनुभव की ओर ले जाती है. कुछ मूल्य, कुछ विश्वास, कुछ स्मृतियाँ जीवन के ओर-छोर को देखने की ललक जगाते हैं. अचानक जीवन, प्रकृति और संस्कृति को हम एक ही डोर में बंधा पाते हैं. कुछ ऐसी ही आपसदारी की मिसाल है गणगौर. गीत, संगीत और नृत्य की रेशमी झालरों से सजा जीवन का रंगमहल यहाँ अलग ही चहक-महक से भरा है.

यहाँ गीतों की गागर छलकती है और इस बौछार में भीगा तन-मन खुशियों का बसंत समेटे लाता है. सौन्दर्य की नदी नर्मदा ने निमाड़ को ऐसी ही तहज़ीब और तस्वीर से सँवारा है. गणगौर इसी मधुमय संस्कृति की कोख से जन्मा रंग-बिरंगा उत्सव है. सुखी, समृद्ध और दकमता दाम्पत्य यहाँ खुशहाल जीवन में प्रेम, श्रृँगार और लालित्य की लालिमा लिए भक्ति में अपने समर्पण की ठौर तलाशता है.
चैत्र महीने के दसवें दिन से आगामी नौ दिनों तक मध्यप्रदेश के निमाड़ की धरती गणगौर की धन्यता को गाने मचल उठती है. इन गीतों में स्मृतियों की दुनिया खुलती है. स्त्री की सृजन शक्ति, उसकी अभिलाषाएँ, उसके सरोकार, उसकी नियति और दैवीय महिमा के दिव्य स्वरूपों को जीवन्त होता देखा जा सकता है. इन गीतों की गुंजार फैलती है तो देह अनायास ही थिरक उठती है.
एक सिरे पर आध्यात्म के गहरे रंग, अनुष्ठान की पवित्रता, पूजा-प्रार्थना और निवेदन तो दूसरे सिरे पर लोकरंजन में आकंठ डूबा तन-मन एक आदिम सुख की इच्छा से भरकर थिरकने लगता है. रनुबाई यानी निमाड़ की स्त्री को ही अधिष्ठात्री देवी मानकर उसका गुणगान किया जाता है. यहाँ दूर देश को ब्याही रनुबाई की अपनी सखियों के संग ठिठोली है, तो प्रेम, ममत्व, करूणा, वात्सल्य और वियोग भी है.
निमाड़ की खेतिहर संस्कृति में परवरिश पाने वाले लोक समाज ने गणगौर को अनुष्ठान की तरह जिया है. यहाँ स्त्री और पुरूष का सहकार शिव और पार्वती यानी मातृशक्ति का प्रतीक बनकर उभरता है. निमाड़ की लोक आस्था ने इन्हें धणियर राजा और रनुबाई के नामों से पुकारा और सुरीले वैवाहिक जीवन की कामना की. गणगौर की दुनिया गीतों से गमकती है और ताल-ताल पर ताल देती थिरकनों का रोमांच जगाती है. एक ऐसा दर्पण जिसमें भारतीय नारी का नूर एक सुन्दर अक्स बनकर उभरता है.
गणगौर स्त्री की कामनाओं का सुन्दर पर्व है. ये कामनाएँ सुखी-समृद्ध, सपनीले, सुरीले, मधुर दाम्पत्य से जुड़ी हैं. ये कामनाएँ गीत बनकर गमकती हैं और नृत्य बनकर ठुमकती हैं. यहाँ जीवन का राग झरता है. इस राग में अंग-प्रत्यंग से लेकर मानो आत्मा तक श्रृंगार करती है. भाव-रस गंध अलंकरण-आभूषण, जे़वर बन जाते हैं. इन सबसे दमकती देह, जीवन की आनंदित लय-ताल पर नर्तन करने लगती है. यह झूमना या झंकृत होना अपनी आकृतियों में उस चरम पर पहुँचता है, जहाँ प्रार्थना का सबसे उदात्त क्षण आता है. किसी भी सच्चे नृत्य की आकांक्षा अंततः साधना से इसी सिद्धि को पा लेना है. इस सृष्टि के निसर्ग में कोई आदिम नृत्य ऐसा ही पवित्र रहा होगा. यहाँ नृत्य एक घटना है. देह में आलोड़न पैदा करता वह क्षण, जब बिना साज़ के ही अन्तर्लय की उर्जा कुछ ऐसा असर करती है कि समूची देह झंकृत हो उठती है.
पूरे नौ दिनों पर गणगौर की रंगत तारी है. रनुबाई और उसके पति धणियर राजा के सुन्दर रथ सजाए जाते हैं. उन्हें पूरे सम्मान से सिर पर धारण कर स्त्रियाँ उनका यशोगान करती है. अन्तर्लय जागती है और अंग-प्रत्यंग में यह महाभाव नृत्य बनकर उभरता है. उधर दैवीय अनुष्ठान के क्रम में बाँस की छोटी टोकनियों में रखी मिट्टी में गेहूँ के जवारे फूटने लगते हैं. ये हरे-भरे जवारे जीवन में अंकुराती उम्मीदों का प्रतीक होते हैं. गणगौर के लोकाचार को देखें तो ये जवारे नौवें दिन गाँव के ही जलाशय में पूरी श्रद्धा के साथ सिरा दिये जाते हैं. गोधुली का यह मुहूर्त गणगौर को विदा कहने का भी होता है. पूरा गाँव भीगीं आँखें लिये इन भावुक क्षणों का साक्षी बनता है.
मृदंग, ढोल, थाली और ताली में लयबद्ध स्त्रियों का उल्लास देखते ही बनता है. वे अपने घर के आँगन में रथों को एक निश्चित स्थान पर प्रतिष्ठित करती हैं और उनके सामने झालरिया देती है. झालरिया यानी नृत्यांजलि. इस दौरान सहज ही निगाह रनुबाई और धणियर राजा के रथ श्रृंगार पर जा टिकती है. पूरा श्रृंगार पारम्परिक गरिमा लिये होता है. चमकीली गोटा किनारे वाली साड़ी, चटखदार चुनरी, छीट का लहंगा और सिर से पाँव तक गहनों से लदकद रनुबाई की आभा बरबस ही आँखों में बस जाती है. इस पर्व में शरीक होने वाली हर कन्या और स्त्री ऐसा ही श्रृंगार करती है.
लोक श्रुतियों के अनुसार गणगौर का संबंध होलिका से रहा है. इस संबंध में राजस्थान और मालवा में एक कथा प्रचलित है- हिरण्य कश्यप नाम का एक राजा था, जो नास्तिक था. वह स्वयं को भगवान मानता था, पर उसका पुत्र प्रहलाद आस्तिक था, वह विष्णु का भक्त था. राजा प्रहलाद को फूटी आँख भी नहीं चाहता था. उसने उसे मरवा डालने के अनेक प्रयत्न किये पर सब विफल रहे. अंत में बहन होलिका को यह कार्य सौपा जो अपने साथ उसे लेकर अग्नि में प्रवेश कर गई. इस चिता में बड़ी विचित्र घटना घटी कि जिस होलिका को अग्नि स्नान का वरदान था, वह जल मरी और प्रहलाद बच गया.
होलिका की जलने की ख़बर चारों ओर फैल गई. हिरण्य कश्यप का जीना दूभर हो गया. उधर होली के पति इसर ने चढ़ाई कर दी. हिरण्य कश्यप घबराया. मंत्री, ज्योतिषी, तांत्रिक इकट्ठे हुए. सबने अपनी-अपनी अटकलों से होलिका को जीवित करने का भरसक प्रयत्न किया. पर यह कार्य हुआ बालिकाओं द्वारा, जिन्होंने होली की राख के पिंड बनाकर अपने गीत मंत्रों से उनकी पूजा आरंभ कर दी. कहते हैं कि सातवें दिन से ही लड़कियों को यह लगा कि पिंडों में प्राण पड़ने शुरू हो गये हैं. इधर लड़कियों के घरों में धन-धान्य, सुख आनंद की बढ़ोत्तरी होनी आरंभ हो गयी जो स्वाभाविक था उनकी माताएँ भी उनके अनुष्ठान के साथ अधिक श्रद्धा-आस्था के साथ जुड़ गई. पन्द्रहवें दिन पूजा करने वाली एक स्त्री को स्वप्न दिया कि तुम मुझे एक काठ प्रतिमा बनाकर उसे अच्छे वस्त्र आभूषणों से अलंकृत कर देना. मैं गौरा के रूप में उसी में जीवित हो उठूँगी.
वरिष्ठ लोक संस्कृतिकर्मी वसंत निरगुणे गणगौर के सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि यह एक स्त्री का कमाल नहीं तो और क्या हो सकता है. लोगों ने उसे अपनी निश्छल आस्था सौंपकर लोकदेवी का रूप दे दिया है. यह किसी दिखावे के रूप में नहीं, जब कोई स्त्री या पुरूष लोकमन के बहुत भीतर तक पहुँच जाता है, तब यह अमृत यात्रा किसी भी मनुष्य अथवा प्राणी की शुरू हो जाती है. बस, इसके लिए एक सच्चा मन चाहिए, शुद्ध मानस चाहिए और सत्य का समरस चाहिए. संभवतया गणगौर ने बहुत थोड़े से सुखी और दुःखी जीवन के बीच की सच्ची सहिष्णुता को अर्जित कर लिया था. गणगौर सबके बीच की होकर भी सबसे ऊपर के शिखर पर पहुँचने वाली स्त्री थी, जिसने परंपरा की रक्षा करते हुए, एक उदात्त चरित्र को गढ़ लिया था.
गणगौर सामूहिकता का पर्व है. लोककल्याण का पर्व है. नवसंवत्सर के स्वागत में प्रकृति और संस्कृति का अभिवादन है. भारतीय जीवन मूल्यों से झरता अमन, एकता और आपसदारी का सनातन संदेश है.


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