कमाई को देश से बचाने का खेल

पैंडोरा पेपर्स जैसे खुलासे हमारी अर्थव्यवस्था की गड़बड़ियों को उजागर करते हैं

Update: 2021-10-06 04:33 GMT

अरुण कुमार, अर्थशास्त्री।

पैंडोरा पेपर्स जैसे खुलासे हमारी अर्थव्यवस्था की गड़बड़ियों को उजागर करते हैं। यह कोई पहला मामला नहीं है। पनामा पेपर्स, पैराडाइस पेपर्स जैसे कई खुलासों के हम गवाह रहे हैं। इन सबमें बताया गया है कि किस तरह से देश से पैसा निकालकर विदेश भेजा गया और टैक्स से बचने की पूरी कोशिश की गई। संपन्न तबका ऐसा करता है, ताकि उसे अपनी आमदनी पर पूरा कर न चुकाना पड़े। पैसा भेजने का जरिया अमूमन हवाला होता है या फिर 'अंडर-इनवॉयसिंग ऑफ रेवेन्यू' (वस्तु की कीमत वास्तविक दाम से कम बताना) या 'ओवर-इनवॉयसिंग ऑफ कॉस्ट' (वस्तु की कीमत वास्तविक दाम से ज्यादा बताना) के माध्यम से काली कमाई की जाती है। टैक्स-हैवन देशों (जिन राष्ट्रों में कर की दर काफी कम अथवा नाममात्र की होती है) में पैसों की 'लेयरिंग' होती है, यानी पैसे के मूल स्रोत को छिपाने के लिए उसे वित्तीय प्रणाली में इधर-उधर किया जाता है। मसलन, पहले किसी एक टैक्स-हैवन देश की शेल कंपनी (अमूमन कागजों पर चलने वाली कंपनी) में निवेश किया जाता है, फिर इस कंपनी को बंद करके पैसे को किसी दूसरे टैक्स-हैवन देश की शेल कंपनी में डाल दिया जाता है। यह प्रक्रिया तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी या इससे आगे की कंपनी तक दोहराई जाती है। और अंत में, किसी अन्य टैक्स-हैवन देश की शेल कंपनी में पैसा रख दिया जाता है। दुनिया भर में तकरीबन 90 टैक्स-हैवन देश हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रिया जैसे उन्नत देश भी इससे अछूते नहीं हैं।

एक अध्ययन में हमने पाया है कि 1948 से 2012 के बीच भारत से जो पैसा बाहर गया, उससे देश को तकरीबन दो ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हुआ। बेशक, जो पैसा यहां से निकलता है, उसका कुछ हिस्सा 'राउंड ट्रिपिंग' द्वारा वापस लौट आता है, लेकिन यह महज 30-40 फीसदी होता है। शेष रकम का एक हिस्सा टैक्स-हैवन देश में खर्च होता है और बाकी नकद रूप में जमा रहता है, जिसे वापस लाया जा सकता है। करीब 500-700 अरब डॉलर की रकम अब भी विदेश में पड़ी होगी, जिसको पकड़ा जा सकता है। मगर लेयरिंग की वजह से सरकारों के लिए यह पता करना काफी मुश्किल हो जाता है कि पैसे का मूल स्रोत क्या था और यह कहां से आया है?
हालांकि, एक दिक्कत काम करने के ढर्रे को लेकर भी है। हमने अब तक जो प्रयास किए हैं, वे कारगर नहीं रहे हैं। अदालत की निगरानी में 2014 में एसआईटी (विशेष जांच दल) का गठन किया गया, काला धन विधेयक भी लाया गया, मगर नतीजा बहुत निराशाजनक रहा है। फिर, अपने अध्ययन में हमने यह भी देखा है कि कुल काली कमाई की सिर्फ 10 फीसदी राशि विदेश भेजी जाती है, शेष 90 फीसदी यहीं रह जाती है। इसलिए, अगर इस अवैध आमदनी का निर्माण रोक दें, तो बाहर जाने वाला पैसा भी स्वत: रुक जाएगा। 1955-56 में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से डॉ कॉलडोर यहां आए थे। उन्होंने अनुमान लगाया था कि काली कमाई देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद, यानी जीडीपी का चार से पांच फीसदी होती है। 1970 में वांचू कमेटी ने इसे सात फीसदी कहा था। 'नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस ऐंड पॉलिसी' ने बताया कि 1980-81 में काला धन जीडीपी का 18 से 21 प्रतिशत हो गया था। 1995-96 तक यह 40 फीसदी हो गया। ईपीडब्ल्यू के एक आलेख में अब इसे जीडीपी का 62 फीसदी बताया गया है।
पैंडोरा पेपर्स इन्हीं आंकड़ों की तस्दीक करते हैं। इसने साफ कर दिया है कि किस तरह से कर चोरी के साथ-साथ काली कमाई का जाल बुना गया है। केमैन आइलैंड में तो एक ही कमरे में 10 हजार शेल कंपनियां चलती हैं। यहां दो-ढाई हजार डॉलर में कोई अपनी कंपनी बना सकता है। मॉरीशस का हाल भी इससे बहुत अलग नहीं है। लंदन, न्यूयॉर्क की वित्तीय कंपनियां भी यह खेल बखूबी खेलती हैं। स्विट्जरलैंड तो खैर इसके लिए बदनाम ही है। ऐसे देशों में एक पूरा तंत्र काला धन को खपाने के लिए काम करता है।
ऐसा नहीं है कि हमें अपनी चूक का इल्म नहीं है। पिछले सात दशकों में काली कमाई को रोकने के लिए 30-40 कमेटियां बन चुकी हैं। सैकड़ों कदम उठाए गए हैं। 1971 में आयकर की दर 97.5 फीसदी से घटाकर 30 फीसदी की गई, 1991 में उदार अर्थव्यवस्था अपनाकर कई तरह के नियंत्रण हटाए गए, फिर भी काला धन अपनी रफ्तार से बढ़ता रहा है। दरअसल, भ्रष्ट उद्योगपतियों, राजनेताओं, पुलिस व आयकर विभाग के अधिकारियों की सांठगांठ इसका पोषण करती है। जब तक इस पर नियंत्रण नहीं किया जाएगा, काली कमाई का निर्माण नहीं रुकेगा।
हम चाहें, तो दूसरे देशों से सबक ले सकते हैं। न्यूजीलैंड और स्केंडिनेवियाई देश बेशक छोटे देश हैं, लेकिन वे हमारे लिए आदर्श हो सकते हैं। वहां टैक्स बहुत ज्यादा वसूला जाता है, लेकिन लोग खुशी-खुशी इसे देते हैं, और काली कमाई वहां महज एक प्रतिशत है। लोगों को यह भरोसा है कि जो पैसे उनसे लिए जा रहे हैं, वह उनके हित में खर्च होंगे। वहां शिक्षा और बुनियादी ढांचे पर काफी निवेश किया जाता है। मगर अपने यहां आम धारणा है कि कुरसी पर बैठा सभी भ्रष्ट है, जो सिर्फ और सिर्फ जनता से पैसे लूटकर अपना पेट भरता है। इसीलिए, हर कोई टैक्स बचाने की जुगाड़ में रहता है। यहां मुझे 1976 की अपनी अमेरिका यात्रा याद आ रही है। जब मैं वहां से लौटने को था, तब टैक्स सर्टिफिकेट के लिए मैं स्थानीय आयकर विभाग में गया। वहां के अधिकारी मेरी गुजारिश सुनकर आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने कहा कि इसके लिए यहां आने की कतई जरूरत नहीं होती है। यह तो बस एक फोन कॉल पर पूरा हो जाता है और सर्टिफिकेट घर पहुंचा दिया जाता है। क्या अपने देश में हम ऐसा कुछ सोच सकते हैं?
साफ है, काली कमाई हमारी उत्पादकता प्रभावित कर रही है। इससे काम की गुणवत्ता पर भी खासा असर पड़ रहा है। ऐसे में, हमें इसको हल्के में नहीं लेना चाहिए। अगर काली कमाई आज इतनी न होती, तो उत्पादकता बढ़ने की वजह से हमारी अर्थव्यवस्था 2.5 ट्रिलियन डॉलर की जगह तकरीबन 20 ट्रिलियन डॉलर की होती और हम उन्नत राष्ट्रों में शामिल होते। यह अब भी मुमकिन है, बशर्ते काली कमाई का निर्माण हम रोक पाएं।



(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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