दिल्ली HC का खंडित फैसला: मैरिटल रेप के मुद्दे पर गहन बहस की जरूरत क्यों?
हाल ही में हृषिकेश साहू बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य नाम की एक रिट याचिका के तहत कर्नाटक उच्च न्यायालय (Karnataka High Court) ने वैवाहिक बलात्कार के सवाल पर कुछ दिलचस्प टिप्पणियां कीं
गीता लूथरा |
हाल ही में हृषिकेश साहू बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य नाम की एक रिट याचिका के तहत कर्नाटक उच्च न्यायालय (Karnataka High Court) ने वैवाहिक बलात्कार के सवाल पर कुछ दिलचस्प टिप्पणियां कीं. इस मामले में शिकायतकर्ता (पत्नी) ने याचिकाकर्ता (पति) के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) की धारा 376 (बलात्कार) और 377 (अप्राकृतिक यौन अपराध) के तहत मामला दर्ज किया था. अदालत के सामने एक सवाल यह था कि क्या धारा 376 के तहत पति के खिलाफ संज्ञान लिया जाना कानूनन वैध है. यानी यहीं से मैरिटल रेप (Marital Rape) का सवाल उठ खड़ा हुआ.
कोर्ट ने अपने फैसले में मैरिटल रेप के मुद्दे पर कई टिप्पणियां कीं. सबसे पहले कोर्ट ने कानून के औपनिवेशिक मूल को नोट करते हुए उस दौर में महिलाओं की असमान स्थिति पर जोर दिया. दूसरे कोर्ट ने जेंडर इक्वेलिटी (लैंगिक समानता) से जुड़े संवैधानिक प्रावधानों पर चर्चा की.
सुनवाई के दौरान अदालत ने अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), 15 (भेदभाव का निषेध), 16 (सार्वजनिक रोजगार में अवसर की समानता), 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार), 23 (व्यक्तियों के ट्रैफिकिंग और जबरन श्रम का निषेध), 39 (खास तौर से महिलाओं और अन्य नागरिकों के अधिकारों को सुरक्षित करने की नीतियां), 243-T (आरक्षण) जैसे प्रवधानों को रेखांकित किया.
महिलाओं के समान अधिकार युग की शुरुआत
इन तमाम चर्चा के बाद इस नतीजे पर पहुंचा गया कि संविधान के तहत महिलाओं के लिए समान अधिकारों और समान सुरक्षा के युग की शुरुआत हुई है और यह एक तरह से संवैधानिक भावना का प्रतिनिधित्व करता है.
तीसरा, इसने कानून में महिलाओं के अधिकारों की व्यापक कानूनी स्थिति को ध्यान में रखा. इसने आईपीसी और अन्य कानूनों के तहत महिलाओं के खिलाफ किए जा रहे अपराधों का संदर्भ दिया. अदालत के लिए इस बहस ने बिना किसी अपवाद के समानता की कानूनी स्थिति पर जोर दिया. इसके बाद ये बहस खास तौर से मैरिटल रेप के सवाल पर आई.
मैरिटल रेप के मुद्दे पर वर्मा समिति ने काफी गहन विचार करने के बाद ये सिफारिश दिया था कि अपवाद को समाप्त कर देना चाहिए. इन्हीं सिफारिशों के मद्देनजर अदालत ने कहा कि मैरिटल रेप अपवाद पिछड़ी सोच का हिस्सा है, क्योंकि यह एक महिला को अपने पति के अधीन मानती है और ये महिला को बराबरी का दर्जा नहीं देता है इसलिए कई देशों ने इसे अपराध माना है.
ब्रिटिश कानूनी प्रावधान अभी भी भारत में जारी
दिलचस्प बात यह है कि इसने इस बात पर जोर दिया कि यद्यपि ब्रिटिश कानूनी प्रावधान भारत में लागू रह गए, लेकिन ब्रिटेन ने खुद ही R v R (1991) शीर्षक वाले हाउस ऑफ लॉर्ड्स के फैसले के तहत अपवाद को समाप्त कर दिया है. अदालत ने अपना विचार रखते हुए कहा कि बलात्कार तो आखिर बलात्कार ही होता है, जबकि मैरिटल रेप कानून इस मुद्दे पर संविधान में समानता और अपवाद में असमानता को लेकर विरोधाभासी है. इसने यह भी स्पष्ट रूप से कहा कि शादी किसी भी पुरूषों को गैरकानूनी कार्य करने का न तो विशेषाधिकार देती है और न ही लाइसेंस प्रदान करती है.
बहरहाल, ये फैसला अपने तथ्यों तक ही सीमित है. अदालत ने माना कि वह मैरिटल रेप की वैधता पर नहीं बल्कि बलात्कार के आरोप तय करने पर फैसला सुना रही है. अदालत के मुताबिक, मैरिटल रेप की वैधता तो विधायिका को तय करना है. अदालत ने इस बात पर भी जोर दिया कि इस खास मामले के अजीबोगरीब तथ्यों और परिस्थितियों के मद्देनज़र ही ये फैसला सुनाया गया है.
खामोश लोगों की आवाज सुनी जाए
काफी सावधानी के साथ सुनवाई करते हुए अदालत ने माना कि चूंकि इस मामले में बलात्कार के सभी तत्व शामिल थे और अगर याचिकाकर्ता पति के अलावा कोई और होता तो भी बलात्कार का अपराध बनता ही. इसने आगे कहा कि अगर आरोप तय नहीं किया गया तो यह न्याय का मजाक होगा. मामले की सुनवाई का समापन इस अपील के साथ हुई कि विधायकों को खामोश लोगों की आवाज सुननी चाहिए.
बहरहाल, मैरिटल रेप का मुद्दा कई सवालों को उठाता है जिस पर हमारे जैसे देश में लोकतांत्रिक बहस करने की जरूरत है. लोकतंत्र में कानूनी सुधार पर जीवंत सार्वजनिक बहस जरूरी है. इस फैसले के तहत कुछ सवालों के जवाब नहीं दिए गए हैं जिन पर बहस होनी चाहिए. पहला रेट्रोस्पेक्टिव क्रिमीनलाइजेशन (पूर्वव्यापी अपराधीकरण) से संबंधित मुद्दा है. संविधान का अनुच्छेद 20 कहता है कि 'किसी भी व्यक्ति को किसी भी अपराध के लिए तब तक दोषी नहीं ठहराया जा सकता है जब तक कि वो उस समय के लागू कानून का उल्लंघन न कर रहा हो.' इसलिए कानूनी कार्यवाही के जरिए किसी कानूनी कार्य को आपराधिक बनाना एक समस्या ही होगी.
दूसरा, इससे जुड़ा एक और अहम मुद्दा ये है कि क्या अदालतें ऐसे मामलों पर कानून बना सकती हैं या फिर ये विधायिका का विशेषाधिकार है. "इंडिपेंडेंट थॉट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एंड अदर" मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक पुरुष और उसकी पत्नी के बीच यौन संबंध को तभी बलात्कार माना जाएगा अगर लड़की की उम्र 15 से 18 साल के बीच है. यह तर्क दिया गया है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कानून बनाया है. निस्संदेह ये एक महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दा है जो सवालों की जड़ तक जाता है.
तीसरा, न केवल मैरिटल रेप बल्कि सभी तरह के आपराधिक कानूनों को लेकर जांच के संबंध में गंभीर चिंता व्यक्त की गई है जिसे दूर करने की जरूरत है. सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार आपराधिक कानून और आपराधिक जांच में सुधार के मुद्दे को उठाया है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, बलात्कार के केवल 27 प्रतिशत मामलों में ही दोष साबित होते हैं.
रेप मामलों की गलत जांच जिम्मेदार
जाहिर है कि इस स्थिति के लिए बलात्कार के मामलों की गलत जांच को जिम्मेदार ठहराया जाता है और गलत जांच की वजह से दोष साबित करना मुश्किल है. कई विधि आयोग रिपोर्टों ने आपराधिक जांच में सुधार की वकालत की है . आज के दौर में जब जांच के वैज्ञानिक उपकरण उपलब्ध हैं तो भारत इसे अपनाने में काफी सुस्त रहा है. नतीजतन, निर्दोषों के खिलाफ मुकदमा चलता रहता है और अपराधी बिना दंड के छूट जाता है.
भारत में वैवाहिक अपराध बढ़ रहे हैं, जैसे दहेज की मांग और IPC की धारा 498A के तहत महिलाओं के खिलाफ क्रूरता के मामले. विवाह टूटने के प्रभावों में से एक आपराधिक कानून का इस्तेमाल है. इतना ही नहीं, आपराधिक न्याय प्रणाली में देरी की वजह से आपराधिक मुकदमे की बदनामी अभियुक्तों के सिर पर मंडराती रहती है.
इसलिए हमें अपनी जांच मशीनरी में सुधार लाने की जरूरत है. साथ ही जांच में प्रशिक्षित और योग्य जांच अधिकारियों और वैज्ञानिक उपकरणों को शामिल करने की आवश्यकता है. अंत में, एक और सवाल यह है कि मैरिटल रेप के बाबत हमारे कानून में पहले से ही एक नागरिक उपचार की व्यवस्था है.
हमारे कानून में Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005 की व्यवस्था है जो महिलाओं को यौन शोषण से बचाता है. इस अधिनियम के तहत पीड़ितों की रक्षा करने के लिए न्यायालयों के पास कई शक्तियां हैं, जैसे सुरक्षा अधिकारियों का उपयोग. यह मैरिटल रेप के अपराध से अलग है, जो कि विचाराधीन है. मैरिटल रेप के मुद्दे को हल करने के लिए आपराधिक कानून के इस्तेमाल पर भी बातचीत होनी चाहिए. फिलहाल, हमारी अदालतों में और बाहर चल रही ये बहस निश्चित रूप से ऐतिहासिक है और सारी दुनिया इसे काफी दिलचस्पी से देख रही है.