सामंती क्रूरता

मध्य प्रदेश में रीवा जिले के पड़री गांव से मेहनताना मांगने पर एक मजदूर पर जानलेवा हमला करने और उसका हाथ काट देने की जो घटना सामने आई है, वह किसी भी संवेदनशील समाज को दहला देने के काफी है।

Update: 2021-11-23 01:30 GMT

मध्य प्रदेश में रीवा जिले के पड़री गांव से मेहनताना मांगने पर एक मजदूर पर जानलेवा हमला करने और उसका हाथ काट देने की जो घटना सामने आई है, वह किसी भी संवेदनशील समाज को दहला देने के काफी है। लेकिन इससे यह अंदाजा लगता है कि आज भी देश में कमजोर तबकों के लोगों को अपना हक मांगने पर अक्सर कैसी स्थिति का सामना करना पड़ता है। गांव में राजमिस्त्री का काम करने वाले एक दलित मजदूर ने सिर्फ अपने काम की मजदूरी मांगी और काम कराने वाले व्यक्ति ने इसके बदले उस पर तलवार से हमला कर दिया। उस समय मजदूर की जान तो किसी तरह बच गई, लेकिन तलवार के वार से उसका हाथ कट कर अलग हो गया। बुरी तरह घायल अवस्था में उसे अस्पताल तो पहुंचाया गया।

यह घटना बताती है कि आज भी ग्रामीण इलाकों में किस तरह की सामंती प्रवृत्तियां अपने बर्बर रूप में काम करती रहती हैं। इस मामले में संतोषजनक पहलू बस यह रहा कि खबर मिलने के बाद पुलिस महकमे ने जरूरी सक्रियता बरती और वक्त पर कार्रवाई करके आरोपियों को गिरफ्तार किया। साथ ही पीड़ित मजदूर का छिपाया गया कटा हाथ खोज कर अस्पताल पहुंचाया और डाक्टरों से जोड़ने की कोशिश करने का आग्रह किया।
यह घटना बताती है कि झूठी श्रेष्ठता के भ्रम से उपजे दंभ में व्यक्ति किस हद तक क्रूर हो जा सकता है। सवाल है कि एक मजदूर से काम कराने वाले किसी व्यक्ति के भीतर ऐसी संवेदनहीनता, हकमारी करने की प्रवृत्ति का स्रोत क्या है और मजदूरी या हक मांगने पर किसी की हत्या तक कर डालने का दुस्साहस कहां से आता है! निश्चित रूप से इस तरह का सामंती और क्रूर बर्ताव करने वाले व्यक्ति को भी यह पता होगा कि उसकी ऐसी हरकत के बाद कानून के कठघरे में उसका क्या होगा!
मगर आमतौर पर ऐसे लोगों के भीतर इस बात का भरोसा होता है कि वे अपनी सामाजिक हैसियत और आर्थिक सामर्थ्य के बल पर प्रशासन और तंत्र में बैठे लोगों को अपने पक्ष में प्रभावित करके सजा से बच जाएंगे! दरअसल, ऐसे मामले अक्सर आते रहे हैं, जिसमें कमजोर या दलित तबके के लोगों के खिलाफ हुए अपराध, अत्याचार के मामलों में पुलिस का रवैया न केवल उदासीन देखा गया, बल्कि कई बार वह आरोपी और समर्थ तबके के बचाव तक में खड़ी दिखी। ऐसे में इंसाफ की उम्मीद धुंधली होती है।
लेकिन इसके समांतर ज्यादा जटिल स्थिति यह है कि इस तरह के हिंसक व्यवहार का मूल स्रोत ऐसे व्यक्ति के भीतर अपनी सामाजिक हैसियत से उपजा अहं और कुंठित मानस होता है। जिस राजमिस्त्री का हाथ काट दिया गया, वह दलित पृष्ठभूमि से है और हमलावर उच्च कही जाने वाली जाति से आता है। हमारे समाज में जातिगत पहचान से संचालित होने वाली मानसिकता क्या इसकी जड़ में नहीं है कि दबंग हैसियत वाले लोग कमजोर जाति या तबके के खिलाफ इस हद तक आक्रामक हो जाते हैं?
क्या इसका मकसद यह होता है कि ऐसे हमलों के आतंक से उनके भीतर अपने ही अधिकारों से वंचित होने के प्रति उदासीनता या भय का भाव भरा रहे? ऐसे कई सवाल इस तरह की घटनाओं के समय उभरने लगते हैं। इससे निपटना न केवल सरकार का प्राथमिक दायित्व है, बल्कि खुद समाज को ऐसी अमानवीय स्थितियों पर विचार करना चाहिए। खासतौर पर सामाजिक रूप से मजबूत और सुविधा से लैस तबकों को इस दिशा में पहल करके तस्वीर बदलने और व्यवस्था को मानवीय स्वरूप देने की कोशिश करनी चाहिए। जाति और इस व्यवस्था के तहत संचालित मनोविज्ञान ने हमारे समाज को अतीत से लेकर अब तक बहुत नुकसान पहुंचाया है।

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