इस वर्ष केरल बोर्ड के 234 छात्रों ने 100 फीसद अंक और 18,510 छात्रों ने उच्चतम ए ग्रेड प्राप्त किया है। वहां सीबीएसई के मात्र एक छात्र ने ही 100 फीसद अंक पाए हैं। इस वर्ष केरल बोर्ड के 700 छात्रों ने बेस्ट फोर (जिसके आधार पर कट आफ निर्धारण होता है) में 100 फीसद अंकों के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय में आवेदन किया है। साथ ही केरल बोर्ड के कुल आवेदक 4,824 हैं, जिनमें से अधिसंख्य के अंक 98 प्रतिशत या उससे अधिक हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में यह ट्रेंड पिछले तीन-चार वर्षों में क्रमश: बढ़ता गया है। इसी के परिणामस्वरूप इस वर्ष 10 से अधिक कालेजों के 30 से अधिक पाठ्यक्रमों का कटआफ 100 फीसद हो गया है। वैसे भी 100 फीसद अंक लाने वाले इन छात्रों को विषय की बहुत कम समझ होती है। इसीलिए ये छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में जैसे-तैसे उत्तीर्ण हो पाते हैं। उपरोक्त तथ्य स्कूली शिक्षा की मूल्यांकन प्रणाली को संदिग्ध बनाते हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है। उसमें प्रवेश लेने का अधिकार देश के प्रत्येक राज्य और बोर्ड के छात्रों को है। क्षेत्र, धर्म या बोर्ड के आधार पर किसी छात्र को उपेक्षित या वंचित नहीं किया जा सकता है, लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि किसी बोर्ड से पढ़ने या राज्य विशेष का निवासी होने का नाजायज फायदा भी किसी को नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि इससे अन्य योग्य अभ्यर्थियों का हक छिनता है। उत्तर प्रदेश बोर्ड की सख्त मूल्यांकन प्रणाली के शिकार छात्र इसके उदाहरण हैं। वस्तुत: बेहिसाब बढ़े हुए अंक संवैधानिक दायित्वों और नौजवान पीढ़ी के भविष्य के साथ खिलवाड़ हैं। इससे अन्य बोर्डों में भी इसी तरह की प्रवृत्ति बढ़ेगी। वे भी अधिकाधिक अंक देकर अपने बोर्ड के छात्रों को दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में अधिक से अधिक संख्या में प्रवेश दिलाने के आसान रास्ते पर चल पड़ेंगे। इससे शिक्षा व्यवस्था और मूल्यांकन प्रणाली धराशायी हो जाएगी।
हालिया विवाद के केंद्र में भले ही केरल बोर्ड या वहां के छात्र हों, मगर करीब एक दशक से उदार मूल्यांकन और अत्यधिक अंक देने की प्रवृत्ति सीबीएसई के साथ-साथ कई अन्य बोर्डों में भी दिखी है। यह अत्यंत चिंताजनक है। जीवन में अंकतालिका के बढ़ते महत्व ने तमाम चुनौतियां पैदा की हैं। सबसे पहले तो इसने पढ़ने-पढ़ाने का आनंद समाप्त कर दिया है। सीखने और समझने की जगह पूरा ध्यान अंक लाने पर केंद्रित हो गया है। इससे छात्रों के ऊपर अत्यंत दबाव और तनाव हावी हो गया है। बोर्ड परीक्षाओं में अगर कोई छात्र बहुत अच्छे अंक नहीं ला पाता तो उसके माता-पिता को उसका जीवन बर्बाद होने की आशंका सताने लगती है। ये अंक उन्हें न सिर्फ सफलता और संभावनाओं की राह खुलने की आश्वस्ति देते हैं, बल्कि उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में भी इजाफा करते हैं।
इस अंक केंद्रित व्यवस्था में रचनात्मकता, आलोचनात्मक चिंतन और विश्लेषण क्षमता के विकास का कोई अवसर नहीं है। पूरा देश इस चूहादौड़ की चपेट में है। कोई इस कहावत को नहीं सुनना-समझना चाहता कि 'चूहादौड़ को जीतकर भी आप चूहा ही रहते हैं।' बच्चे ने कितना और कैसा ज्ञान अर्जित किया, क्या संस्कार सीखे, एक जिम्मेदार नागरिक और बेहतर मनुष्य के रूप में उसका कितना और कैसा विकास हुआ, इससे किसी को कुछ भी लेना-देना नहीं है। माता-पिता, समाज, शिक्षण संस्थान और सरकार का ध्यान और ध्येय बच्चे की अंकतालिका में अधिकाधिक अंक दर्ज कराने पर है। इससे अभिभावकों से लेकर शिक्षक, विद्यालय और स्वयं छात्र अत्यंत मुश्किल में हैं। इसलिए अवसाद आदि तमाम मानसिक विकार और आत्महत्या जैसे विचार छात्रों में लगातार बढ़ रहे हैं।
अधिकाधिक मार्क्स लाने की विकृत प्रतिस्पर्धा ने छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों का रोबोटीकरण कर दिया है। बोर्ड परीक्षा में सैकड़ों की संख्या में छात्र 100 फीसद अंक ला रहे हैं। 100 फीसद या उसके आसपास अंक प्राप्त करने वाले छात्र खुद की सर्वज्ञता का अहंकार पाल बैठते हैं। उनमें कुछ नया सीखने या करने की कोई चाहत नहीं बचती। इसे तत्काल दुरुस्त करने की आवश्यकता है। इसके लिए देशभर में एक स्तरीय, समावेशी और समान मूल्यांकन प्रणाली लागू करनी होगी। मूल्यांकन में सततता और समग्रता आवश्यक है।
हाल में शिक्षा मंत्रालय ने राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (एनटीए) द्वारा सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए केंद्रीकृत परीक्षा आयोजित करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। इससे कुछ हद तक समस्या का समाधान होगा, मगर कोचिंग आदि की प्रवृत्ति बढ़ने की भी आशंका है। इसके साथ ही मातृभाषा में उच्च शिक्षा देने की भी जरूरत है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में इस दिशा में ठोस प्रविधान किए गए हैं।
(लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)