चुनावी मुकाबला : हिंदुत्व के सूत्रधार, पार्टी, परिवार और परोक्ष नियंत्रण, लिखते रहे हार-जीत की कहानी

चुनावी मुकाबला

Update: 2022-03-13 17:31 GMT
रामचंद्र गुहा।
हर चुनावी मुकाबला हार-जीत की कहानी होता है। हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों पर की जाने वाली अधिकांश टिप्पणियां अनिवार्य रूप से प्रमुख विजेताओं की उपलब्धियों को रेखांकित करेंगी, लेकिन मैं यहां अपने लेख को प्रमुख हारने वाले पर केंद्रित कर रहा हूं। उत्तर प्रदेश में भाजपा और आदित्यनाथ का आसानी से पुनर्निर्वाचन, और पंजाब में आम आदमी पार्टी की प्रभावशाली जीत एक बार फिर कांग्रेस पार्टी के निरंतर हो रहे अपूरणीय पतन को दिखा रही है।
शुरुआत देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश से करते हैं जहां से लोकसभा के 80 सांसद आते हैं। औपनिवेशिक काल में यह प्रदेश कांग्रेस की अगुआई वाले स्वतंत्रता संग्राम का केंद्र था। स्वतंत्रता मिलने के बाद इसने प्रथम तीन प्रधानमंत्री दिए। हालांकि 1960 के दशक में उत्तर प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस की पकड़ कमजोर होने लगी थी और 1980 के दशक के बाद यह प्रदेश में छोटी पार्टी बनकर रह गई।
इस बार राजनीति में प्रवेश करने वाली नेहरू-गांधी परिवार की प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की जिम्मेदारी ली। हालांकि उन्होंने दिल्ली से अपना आवास लखनऊ स्थानांतरित नहीं किया और खुद विधानसभा चुनाव लड़ने से भी इनकार कर दिया लेकिन प्रियंका नियमित तौर पर राज्य में आती रहीं। इसने मीडिया (और सोशल मीडिया) के उस वर्ग के उत्साह को कम नहीं किया, जिसने अभी तक नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य को हाउस ऑफ विंडसर (ब्रिटेन का शाही परिवार) के भारतीय संस्करण की तरह देखना बंद नहीं किया है।
उनकी हर यात्रा, हर प्रेस कांफ्रेंस, हर घोषणा को इन वंश-उपासकों ने उत्तर प्रदेश में पार्टी के चुनावी उभार के तौर पर रिपोर्ट किया। प्रियंका की अगुआई में कांग्रेस को सिर्फ दो फीसदी वोट मिले और पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में उसकी सीटें भी घट गईं। उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी का प्रभाव न सही, पर प्रयास दिखा। मगर पंजाब जहां कांग्रेस सत्ता में थी, उनके भाई राहुल ने चुनावों से साल भर पहले मनमाने ढंग से मुख्यमंत्री बदलकर पार्टी के दोबारा जीतने की संभावनाओं को ध्वस्त कर दिया।
वह विधायकों के एक वर्ग में लोकप्रिय नहीं थे, लेकिन अमरिंदर सिंह के पास राजनीति का वृहत अनुभव है और उससे भी अहम यह कि उन्होंने किसान आंदोलन का मजबूती से पक्ष लिया था। एक साल पहले तक पंजाब में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों के पास जीतने के बराबर अवसर थे। लेकिन अमरिंदर की जगह अपेक्षाकृत अनजाने चरणजीत सिंह चन्नी को लाए जाने, और फिर राहुल गांधी के कृपापात्र नवजोत सिंह सिद्धू द्वारा चन्नी को कमजोर करने से राज्य में पार्टी की पूरी इकाई अस्त-व्यस्त हो गई। नतीजतन आम आदमी पार्टी ने पंजाब में कांग्रेस को बुरी तरह पराजित कर दिया।
अब गोवा और उत्तराखंड पर गौर करें। इन दोनों राज्यों में भाजपा सत्ता में थी, लेकिन दोनों जगहों पर उनकी सरकारें अलोकप्रिय थीं और उन्हें भ्रष्ट और निर्मम माना जा रहा था। उत्तराखंड में भाजपा ने असंतोष को नियंत्रित करने के लिए दो मुख्यमंत्री बदल दिए। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी थी, मगर वह दोनों जगह सत्ता हासिल करने के लिए मजबूत चुनौती पेश नहीं कर सकी। मणिपुर में भी कांग्रेस प्रभाव नहीं डाल सकी, जबकि वह वहां कभी शासन की स्वाभाविक पार्टी थी।
अभी हुए विधानसभा चुनावों ने एक बार फिर पुष्टि की है कि मौजूदा नेतृत्व के अधीन कांग्रेस राष्ट्रीय राजनीति में फिर से मजबूत दावेदार बनने में अक्षम है। 2019 के आम चुनाव में पार्टी को मिली अपमानजनक हार के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। उसके बाद उनकी मां सोनिया गांधी पार्टी की 'कार्यवाहक' अध्यक्ष बन गईं; करीब ढाई साल बीत चुके हैं, लेकिन पार्टी ने उनका उत्तराधिकारी चुनने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। पार्टी पर परिवार का परोक्ष नियंत्रण बना हुआ है और नतीजे हम देख ही रहे हैं।
2019 में कांग्रेस के पास खुद को पुनर्जीवित करने का अवसर था, लेकिन उसने उसे गंवा दिया। अभी वह क्या कर सकती है? मैं यह मानता हूं कि, न सिर्फ पार्टी की भलाई के लिए, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के हित में गांधियों को न केवल पार्टी के नेतृत्व से अलग हो जाना चाहिए, बल्कि राजनीति से ही रिटायर हो जाना चाहिए। सिर्फ यही नहीं कि, राहुल और प्रियंका गांधी ने यह दिखाया है कि वे पार्टी को राज्य और राष्ट्रीय चुनावों में एक प्रतिस्पर्धी ताकत बनाने में अक्षम हैं।
बल्कि इसलिए भी कि कांग्रेस में उनकी मौजूदगी ने नरेंद्र मोदी और भाजपा को सरकार की नाकामियों को अतीत की बहसों के जरिये ध्यान भटकाने का अवसर दिया है। इसलिए रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार के आरोपों का जवाब राजीव गांधी और बोफोर्स की याद दिलाकर दिया जाता है; मीडिया के उत्पीड़न और कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के जवाब में इंदिरा गांधी और आपातकाल है; चीनी सेना के हाथों भूमि गंवाने और सैनिकों की मौत के जवाब में जवाहरलाल नेहरू और 1962 के युद्ध का जिक्र किया जाता है।
मोदी सरकार ने अपने आठ साल के शासन में कई दावे किए हैं और कई वादे किए हैं। फिर भी जब वस्तुनिष्ठ मानदंडों की गणना की जाती है तो इसका रिकॉर्ड बेहद खराब रहा है। विकास दर में भारी गिरावट (यह महामारी से पहले दिखने लगी थी) और बेरोजगारी में वृद्धि दर्ज की गई है; इसने बर्बरतापूर्वक हिंदुओं को मुस्लिमों के खिलाफ खड़ा कर दिया; पड़ोस में और दुनिया में इसने हमारी हैसियत गिरने दी; इसने हमारे अत्यंत महत्वपूर्ण संस्थानों को भ्रष्ट और क्षरित किया; इसने प्राकृतिक पर्यावरण को बर्बाद कर दिया। कुल मिलाकर मोदी सरकार के कार्यों ने भारत को आर्थिक, सामाजिक, संस्थागत, अंतरराष्ट्रीय, पारिस्थितिकी और नैतिक रूप से नुकसान पहुंचाया है।
इन नाकामियों के बावजूद यदि नरेंद्र मोदी और भाजपा 2024 में चुनाव जीतने की स्थिति में होते हैं, तो इसका मुख्य कारण नेहरू गांधी के नेतृत्व में इसका मुख्य 'राष्ट्रीय' विपक्ष कांग्रेस पार्टी है। तृणमूल कांग्रेस पार्टी, बीजू जनता दल, वाईएसआर कांग्रेस, तेलंगाना राष्ट्रीय समिति, द्रमुक, माकपा और आप भाजपा को प्रभावी रूप से उन जगहों पर चुनाव में चुनौती दे सकते हैं, जहां वे प्रमुख विपक्ष हैं। कांग्रेस यह काम नहीं कर सकती - जैसा कि गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड के नवीनतम परिणाम एक बार फिर दिखाते हैं। नेहरू-गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की कमजोरियां आम चुनावों के दौरान विशेष रूप से दिखाई देती हैं।
उदाहरण के लिए, 2019 के चुनाव में 191 सीटों पर भाजपा से आमने-सामने के मुकाबले में कांग्रेस सिर्फ 16 सीटें जीत सकी। राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताते हुए कांग्रेस की स्ट्राइक रेट सिर्फ आठ फीसदी थी। जहां तक भाजपा की बात है, तो गांधी परिवार उसके लिए तोहफा है, जिसे वह बरकरार रखना चाहेगी। दूसरी ओर वे उसे कोई प्रभावी चुनावी चुनौती नहीं देंगे।
जैसा कि वे अपने चाटुकारों के बंद घेरे में रहते हैं, गांधियों को इस बात की बहुत कम समझ है कि इक्कीसवीं सदी में भारतीय वास्तव में कैसे सोचते हैं। आतिश तासीर ने कठोर लेकिन सटीक चित्रण किया 'राहुल गांधी ऐसे औसत दर्जे के हैं, जिसे सिखाया नहीं जा सकता।' वर्तमान की राजनीति के लिए उनकी पूरी तरह से अनुपयुक्तता उनके पिता, दादी और परदादा के बार-बार संदर्भों में प्रकट होती है। वे इसे जानते हैं या नहीं, वे इसे समझते हैं या नहीं, गांधी परिवार हिंदुत्व अधिनायकवाद के सक्रिय सूत्रधार बन गए हैं।
Tags:    

Similar News

-->