राजनीतिक हस्तक्षेप से त्रस्त शिक्षा संस्थान, विश्वविद्यालयों में नियुक्तियां योग्यता और प्रतिभा के आधार पर होनी चाहिए

राजनीतिक हस्तक्षेप से त्रस्त शिक्षा संस्थान

Update: 2022-06-06 08:20 GMT
कृपाशंकर चौबे। न्यूटन का तीसरा नियम है कि हर क्रिया के बराबर विपरीत प्रतिक्रिया होती है। बंगाल में इस नियम को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में घटित होते हुए देखा जा सकता है। राज्यपाल ने उच्च शिक्षा से संबंधित कुछ फाइलें रोकीं तो उसकी प्रतिक्रिया में राज्य मंत्रिमंडल ने सर्वसम्मति से निर्णय कर लिया कि राज्य के विश्वविद्यालयों में अब कुलाधिपति का पद राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री संभालेंगी। इस तरह की पहल राजस्थान, तमिलनाडु और तेलंगाना की सरकारों ने भी की है। कुछ अन्य राज्यों में यह व्यवस्था बहुत पहले से है। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कुलाधिपति का पद राज्यपाल के पास रहे या मुख्यमंत्री के पास, महत्वपूर्ण यह है कि विश्वविद्यालय शैक्षणिक सुधारों के बजाय राजनीतिक हितों के पोषण का केंद्र न बनने पाएं।केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति केंद्र सरकार और राज्यों के विश्वविद्यालयों में राज्य सरकारें करती हैं। जिस राज्य में जिस पार्टी की सरकार होती है, वह अपने चहेतों को कुलपति नियुक्त करती है। हर राज्य में इस तरह के उदाहरण हैं।
कोई पार्टी इस दोष से मुक्त नहीं है। यदि कुलपति की नियुक्ति इस आधार पर होगी कि वह सत्तारूढ़ दल या उसके मुखिया का कितना करीबी है तो क्या उससे शैक्षणिक सुधार लाने की उम्मीद बेमानी नहीं होगी? कहने की जरूरत नहीं कि नियुक्तियां योग्यता और प्रतिभा के आधार पर होनी चाहिए, न कि राजनीतिक पसंद के आधार पर। विश्वविद्यालय मेधाओं का निर्माण करते हैैं। यदि राजनीतिक विचारधारा के कारण मेधाओं की उपेक्षा होगी तो उसके घातक परिणाम होंगे। सवाल है कि राजनीतिक नापसंद के कारण मेधाओं को खारिज कर क्या शिक्षा के क्षेत्र में कोई गुणात्मक परिवर्तन आ सकता है? राजनीतिक दलों में वह विवेक कब आएगा कि मेधा को यथोचित मान मिले-चाहे वह मेधा किसी भी विचारधारा से युक्त हो।
कहने के लिए विश्वविद्यालय स्वायत्त हैं, किंतु प्राय: देखा जाता है कि राजनीतिक पसंद-नापसंद के आधार पर सरकारें विश्वविद्यालयों को धन आवंटित करती हैं। राज्याश्रित होने के कारण विश्वविद्यालयों को राजनीतिक दबाव का सामना करना पड़ता है। राज्यों के विश्वविद्यालय संसाधन की कमी के कारण समस्याग्रस्त रहते हैं और सरकार के मुखापेक्षी बने रहते हैं। प्राचीन काल में शिक्षा राज्याश्रित नहीं थी। इसीलिए तब गुरु की स्वतंत्र सत्ता होती थी। तब शिष्यों को नैतिक और बौद्धिक रूप से गुरु गढ़ता था और शिष्य के व्यक्तित्व के निर्माण को अपना धर्म मानता था। विद्यार्थियों के व्यक्तित्व निर्माण की दृष्टि से राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 बेहद तात्पर्यपूर्ण है। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में ïवे सुधार वर्षों पहले हो जाने चाहिए थे, जिनकी संकल्पना अब जाकर की गई है। विडंबना है कि शिक्षा के तमाम पाठ्यक्रम, जिन्हें अब कार्यक्रम कहा जा रहा है, पुराने ढर्रे के हैं। कोई भी शैक्षणिक सुधार पाठ्यक्रम को एकांगी होने के दोष से बचाकर, उच्च शिक्षा तथा शोध का मान उन्नत करके ही संभव है। शोध का मान तब उन्नत होगा, जब गंभीर शोध और सतत अध्ययन का रचनात्मक परिवेश निर्मित हो। यह परिवेश निर्मित कर ही युवा शक्ति को सकारात्मक और सृजनशील ढंग से ऊर्जस्वित किया जा सकता है, पर त्रासदी है कि उच्च शिक्षा की विषय वस्तु और प्रक्रिया प्राय: विदेशी ज्ञान को मानक मानकर की जाती रही है, जिसके परिणामस्वरूप हम अपनी परंपरा से कटकर दूर चले गए हैं।
अपनी अवधारणा से दूर होकर और यथास्थिति को कायम रखकर कोई सुधार संभव नहीं है। इतिहास जैसे विषय के पाठ्यक्रम अभी भी एकांगी बने हुए हैं। इससे न तो शिक्षा अद्यतन हुई, न सम्यक इतिहास अध्ययन की गुणवत्ता सुनिश्चित हुई। शिक्षा का उद्देश्य मूल्यों की स्थापना और चरित्र का निर्माण करना है। क्या हमारा पाठ्यक्रम ऐसा है, जो नई पीढ़ी को नैतिक दृष्टि से सबल और चरित्रवान बनाता हो और उसे देश की सांस्कृतिक थाती से परिचित कराता हो? समाज में वर्ग, लिंग तथा आयु के प्रति छात्रों को संवेदनशील बनाता हो और समतामूलक समाज की अवधारणा को अपनाता हो? जो ज्ञानार्जन को संभावनाओं और सर्जनात्मक प्रक्रियाओं से जोड़ता हो? यह सच्चाई है कि शिक्षा आज भी इन लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकी है। आज की शिक्षा न दुराग्रहों से मुक्त है, न राजनीतिक बाधाओं से। आज की शिक्षा समावेशी भी नहीं है। आज तक न तो एकसमान पाठ्यक्रम लागू हो पाया, न एकसमान शिक्षा की सुविधा उपलब्ध कराई गई।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में शिक्षा को कौशल और रोजगार से जोडऩे पर बल दिया गया है। आज अभिभावक अपनी संतान को इस तरह की शिक्षा दिलाते हैं जिनसे करियर बने और यथेष्ठ धनोपार्जन हो। आदर्श स्थिति यह है कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जो विद्यार्थी को बेहतर मनुष्य बनाए। बेहतर मनुष्य ही बेहतर नागरिक होगा, जिसके लिए देश और देशहित सर्वोपरि होगा। 15वीं शताब्दी में बांग्ला के मशहूर कवि चंडीदास ने कहा था, 'सबार ऊपोरे मानुष सत्य। ताहार ऊपरे नाई। यानी मनुष्य से ऊपर कोई नहीं है। विद्यार्थी को मानुष बनाने की उस लक्ष्य पूर्ति की दिशा में शिक्षा को आगे ले जाना आज की बड़ी और कड़ी चुनौती है। केंद्र और राज्य सरकारों को इस लक्ष्य को हासिल करने का उपक्रम करना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता मिले और शिक्षा संस्थान राजनीति हस्तक्षेप से मुक्त हों। उन्हें राजनीति का अखाड़ा नहीं बनने दिया जाना चाहिए।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर हैं)
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